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Showing posts from 2023

खाऊंगा तो हाथी ही

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एक बार की बात है । शब्द थे अपनी दादी के पास... और दादी बना रही थीं पूड़ी ।  बुआ ने एक पूड़ी शब्द की ओर बढ़ाई और बोलीं – खाओ...   शब्द : मैं नहीं खाऊँगा... बुआ : क्यों नहीं खाओगे...  शब्द : मुझे भूख नहीं लगी है...  बुआ : अच्छा चिड़िया बना देती हूँ... खाओगे...  शब्द : चिड़िया क्या खाई जाती है...  बुआ : सचमुच की थोड़े न... आटे की...  शब्द : आटे की क्या कोई चिड़िया होती है...   बुआ : हाँ... होती है... खाने वाली होती है...  शब्द : तो क्या हाथी भी होता है खाने वाला... बुआ : हाथी भी होता है खाने वाला...  शब्द : तो हाथी बना दो... वो खाऊँगा...  बुआ : हाथी मैं नहीं बना पाती हूँ...  शब्द : तो चिड़िया कैसे बना लेती हो...  बुआ : चिड़िया बना लेती हूँ...  शब्द : तो हाथी तो बनाना ही पड़ेगा... वरना कुछ नहीं खाऊँगा...  अब बुआ से लेकर दादी, मम्मी सब पड़ गए चक्कर में । शब्द ने ठान ली जिद । खाऊँगा तो हाथी ही खाऊँगा ।    सबने कोशिश की बनाने की लेकिन बना नहीं पा रहा था कोई भी ।   किसी से पूछ नहीं बनती तो किसी से उसकी सूड...   किसी के बनाए पैर नहीं समझ आते शब्द को तो कोई हाथी की जगह कुछ और ही बना देता था।   ऐसे हाथी बना

भूख लगी हम चब्बइं का

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शब्द जैसे-जैसे बड़े होते जा रहे हैं, उन्हें कहानियाँ सुनने की लत-सी लगने लगी है । मम्मा-पापा तो कभी-कभी इस बात पर डाँट तक देते हैं । फिर क्या – बैठ जाते हैं मुँह फुलाकर ।  इस बार सर्दियों की छुट्टी में जब गाँव गए तो पकड़ लिया दादी को । ...और दादी के पास तो मानो कहानियों का खजाना ही है । शब्द की तो जैसे लाटरी ही लग गई ।  शाम हुई नहीं कि शब्द जा घुसे दादी की रजाई में । एक मीठा चुम्मा इधर से... एक मीठा चुम्मा उधर से... बस यही बहुत होता कहानी सुनने के लिए...  आज दादी के पिटारे से एक चिड़िया की कहानी निकल पड़ी ।  दादी ने कहानी सुनानी शुरू की -     ‘बात है बहुत पुरानी...   शब्द : कितनी पुरानी ?  शब्द के प्रश्न तो मानो शांत बैठ ही नहीं सकते हैं ।  दादी झल्ला पड़ीं – हमें नहीं पता... सीधे-साधे कहानी सुननी हो तो सुनो... नहीं तो हम नहीं सुना पाएंगे... हाँ नहीं तो क्या...  शब्द : अच्छा-अच्छा सुनाओ-सुनाओ...  दादी : तो बात है बहुत पुरानी । एक थी चिड़िया । नाम था उसका चिर्रु...  एक दिन की बात है । चिर्रु कहीं से एक दाना लेकर आई थी । चने का आधा टुकड़ा । एकदम छिला हुआ । इसे कहते हैं ‘दिउला’, बोले

ये पेंटिंग कौन बनाता है पापा

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एक दिन की बात है । शब्द अपने मम्मा-पापा के साथ बाइक से अपने बाबा के पास जा रहे थे । शब्द बाइक पर आगे बैठते हैं और खूब बातें करते हैं ।   ...तो शब्द कर रहे थे बातें...   ...खूब सारी बातें...  पहले तो वह गाना गाते रहे... कान्हा वाला... फिर वन... टू... थ्री... कहना शुरू कर दीं...  घर फिर भी नहीं आया ।   अब शब्द अपने गले में पड़ी दूरबीन से दूर रास्ते को देखने लगे...  एक तरफ से देखते तो रास्ता दूर दिखता था... बहुत दूर...    और दूसरी तरफ से देखते तो बिलकुल पास... एकदम यहीं पर...  और भी न जाने क्या-क्या बातें...  ऐसे ही बाइक गाँव की ओर वाले रास्ते पर मुड गई...  अब चारों रास्ते के दोनों ओर थे खेत...  शब्द शुरू हो गए... ये क्या है... ये क्या है...  पापा बताते जाते...  ये सरसों है...  सरसों क्या होती है...  ...जिसमें से तेल निकलता है... फिर उससे खाना बनता है...  अच्छा ये क्या है...  फिर ये क्या है...  फिर एकदम से...  अच्छा पापा ये स्काई में क्या है...  बादल हैं...  हमें तो पेंटिंग लगती है...  हाँ ! पेंटिंग ही तो है...  कौन बनाता है ये पेंटिंग...  हवा बनाती है...  हवा कैसे बना सकती है... हमें तो द

खंती मंती

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छोटे शब्द को इधर एक खेल बड़ा अच्छा लगाने लगा है । जब भी वह पापा के पास होते हैं अपने आप ही पापा को लिटाकर उनके घुटनों पर चढ़ जाते हैं । पापा समझ जाते हैं और खन्ती-मन्ती करने लगते हैं ।   पापा शब्द को अपने घुटनों पर लिटाए हुए ऊपर-नीचे करते हैं । साथ ही साथ कुछ गुनगुनाते भी जाते हैं ।  खन्ती मन्ती, खेलु खिलाई कउडी पाई, गंग बहाई  गंगा मइया नि बारू दइ बारू हमने भुज्जीक दइ भुज्जीनि हमइं चबेना दो चबेना हम घसियारक दो घसियारनि हमका घास दइ घास हमने गउवइ खबाई गउवा मातानि दूधु दो  दूधकि हमने खीरि पकाई खीरि पूरे घर ने खाई बाबानि खाई दादीनि खाई बुआनि खाई चाचानि खाई अम्मानि खाई पापानि खाई बची बचाई  आरे धरी कंधारे धरी  आई मूस  लइ गइ घूस  बुढ्ढा - बुढिययु हटउ पुरानी दिवार खसी  नइ दिवार उठी  हमारो लल्ला कित्तो ऊंचो  इत्तोsssssss ऊंssssचो....  शब्द को यह गीत बहुत अच्छा लगता है । शब्द पापा से ऐसा करने और गाने के लिए बार-बार जिद करता है । खासकर जब पापा उसको पैरों से खूब ऊंचे पर उठाते हैं...  शब्द खूब खिलखिलाकर हँसता है।  सुनील मानव

इस घर में आप भी रहोगे न पापा

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एक दिन की बात है । तब शब्द स्कूल नहीं जाया करते थे लेकिन पापा रोज स्कूल जाते थे । एक दिन पापा जब स्कूल से वापस आए तो देखा शब्द ने कुछ बनाया है । बेड के चार गद्दों, तकियों से ।   एक मेज को खड़ी करके उसके इधर-उधर से गद्दे लगाए गए थे । एक ओर अपनी साइकिल ‘इबनेबतूता’ को भी खड़ी कर लिया था । उसके अंदर शब्द ने मम्मा के किचन से कुछ बर्तन भी रख लिए थे । साथ ही अपनी कुर्सी और मेज भी ।  शब्द के इस क्रियेशन को देख पापा मुस्कुराए ।  उन्होंने चेयर पर बैठ अपने जूते निकालते हुए पूछा – ये क्या बना है शब्द...  ‘घर बनाया है...’ – शब्द तपाक से बोल पड़े ।  ‘इस घर में आप भी रहोगे न पापा...’ शब्द पापा से मनुहार करते हुए बोले ।  पापा ने खुश होकर कहा – ‘हाँ क्यों नहीं ! मैं तो जरूर रहूँगा इसमें...’  फिर क्या था । पापा, मम्मा को साथ लेकर जा पहुंचे शब्द के इस घर में...   शब्द बहुत खुश हुए । वह बताने लगे –  ‘ये आपका बेडरूम है... यहाँ हम सब लेटेंगे...  इस कमरे में आप अपनी किताबें और कंप्यूटर रख लेना... ये मम्मा का किचन है... इसमें हम खाना बनाएंगे...  ‘... आज क्या बनाया है शब्द... मुझे तो बड़ी भूख लगी है...

ये खिलौने बाजार में नहीं मिलते

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शब्द फाइव इयर का हो गया है । वह अपने मम्मी-पापा के साथ शहर में रहता है । वहीं एक स्कूल में पढ़ता भी है । यहाँ उसके कई अच्छे दोस्त बन गए हैं । अक्षत भइया, गोंटू, नमो भइया, वीर तो शब्द के मोहल्ले में ही रहते हैं ।   ...इसके अलावा मायरा, नियति, आराध्या, राज, शुभ, अनुष्का, दानिश और इसनेहा मैम उसके स्कूल के बेस्ट फ्रेंड हैं ।  शब्द इन सबके साथ खूब खेलता है ।  स्कूल के फ्रेन्डों के साथ वह स्कूल में मैम के सामने खेलता है । झूला झूलना, पेंसिल से खेलना, पकड़म-पकड़ाई... कभी-कभी वह इन दोस्तों के साथ अपनी वैन में भी खेलता है...  ...लेकिन शब्द का असली खेल तो मोहल्ले वाले दोस्तों के साथ होता है । इन सबके पास खूब सारे खिलौने हैं । वह सब टीवी के कार्टून वाले खेल खेलते हैं...   शब्द के पास खूब सारी गेंदें हैं... सब उसके साथ गेंदों से खेलते हैं... गोंटू के पास कई सारे टैड़ी हैं... सब उसके साथ टैड़ी से खेलते हैं...  वीर के पास बहुत बढ़िया साइकिल है... सबने अपने पापा से साइकिल मंगाईं... अब सब साइकिल से भी खेलते हैं...  नमो भइया के पास एक बंदूक है । उसमें से कई तरह की आवाजें निकलती हैं... वह सबको चलाने को देता ह

सबीहा आंटी वाली कहानी

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शब्द रोज वाली जिद फिर करने लगे । पापा के गले में गोफा डाले हुए कहानी सुनाने की मनुहार... काफी देर पोटने-पाटने पर पापा तैयार हुए... ...और शब्द को टालने के प्रयास से लगे वही पुरानी कहानी सुनाने...  ‘...बहुत दिनों की बात है...’ शब्द समझ गए कुछ-कुछ, लेकिन अभी चुप रहे... ‘...एक गाँव में एक राजा और एक रानी रहते थे...’ अब शब्द से न रहा गया । पापा की गोद में चढ़ते हुए उनके लिप्स पर फिंगर रख दी ।  ‘...अब नहीं... बिलकुल नहीं... ये वाली कहानी बिलकुल नहीं सुननी है... ...एक राजा वाली नहीं सुनाना... ...एक रानी वाली भी नहीं सुनाना...’  ‘...फिर कौन-सी सुनाऊँ... ’ पापा थोड़ा झुँझलाते हुए बोले ।  ‘...कोई भी सुना दो... आपको तो बहुत सारी कहानियाँ आती हैं... इतनी सारी किताबें पढ़ते हो... कोई भी सुना दो भाई मेरे...  ...मून वाली... ...टाइगर वाली... ...जंगल वाली...  ...साइकिल वाली...  ...सन वाली...’  पापा सोचने लगते हैं ।  ‘...कौन-सी सुनाऊँ... कौन सी सुनाऊँ...’ शब्द : अच्छा वो वाली सुना दो... पापा : कौन वाली...  शब्द : सबीहा वाली... जो आंटी बम में फ्लावर लगाती थीं...  पापा को ‘साइकिल’ की एक कहानी याद हो आई... ।

शब्द का गाना

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घर में सब लोगों की महफ़िल जमी थी । सब अंत्याक्षरी खेल रहे थे । सभी बहुत ही बेसुरा गा रहे थे । सबको देखकर शब्द को भी जोश आ गया ।  ‘...मैं भी दाना दाउंदा...’ ‘...तो दाओ न...’ मम्मा बोलीं ।  ...और शब्द गाने लगे... टी वी वाला गाना...  ‘...कान्हा छू जा जरा...  ...कान्हा छू जा जरा... ...बंसी बजइया... ...नंदलाला कन्हइया...  ...पर्वत उठइया... ...मक्खन खबइया... ...होमवर्क करइया...  ...राक्षस भगइया...  ...फ्रेंड के साथ खिलइया...  ...सबकी हेल्प करइया...’     जग गाना रबड़ की तरह खिचने लगा तो सबको आ गई हंसी...  ...सब हँस पड़े तो शब्द गए रूठ...   ...अब रूठ गए तो सब उन्हें लगे मनाने...  और जब मनाने में लग गए तो अंत्याक्षरी हो गई खतम ।    सुनील मानव

सेंटा के खिलौने

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एक दिन की बात है । शब्द सोकर उठे तो उनके पास एक गिफ्ट रखा था । शब्द को पता था – ‘इस रात सेन्टा आने वाला है ।’ इसनेहा मैम ने उसे पहले ही कहानी सुनाई थी । गिफ्ट देखकर शब्द बहुत खुश हो गए । जल्दी से पैकेट खोला... अरे यह क्या !   ... शब्द की सभी फ़ेबरेट चीजें...  एक बड़ी सी वॉल... कई सारी चॉकलेट... जेम्स की बोतल... और भी बहुत सारी चीजें...  शब्द सर पकड़कर बैठ गया...  बोला – लगता है पागल ही हो जाऊंगा...  खुशी सम्हाले नहीं सम्हाल रही थी...  पापा से बोला – सेन्टा के पास इतने खिलौने आते कहाँ से हैं...  पापा - उसके पास एक मैजिक बैग होता है... उसी में होते हैं...  शब्द - मेरे पास क्यों नहीं है मैजिक बैग...  पापा - आप जब बड़े हो जाओगे तब आपके पास भी आ जाएगा...  शब्द - आप तो बड़े हो... आपके पास क्यों नहीं हैं... अब पापा क्या करें । लगे एक झूठ-मूठ की कहानी सुनाने...  ‘... सेन्टा के पास एक रथ होता है... उसमें हार्स होते हैं... उनके पंख होते हैं... वह आसमान में उड़ता है...’  ‘...हार्स के पंख कैसे होते हैं... वह तो सड़क पर चलता है... शादी में होते हैं हार्स... मैंने तो देखे नहीं उनके पंख...’  ‘..

दादी को इंग्लिश कहां आती है

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आज शब्द की बेस्ट फ्रेंड मायरा स्कूल नहीं आई ।  उसने मैम से पूछ – मैम मायरा क्यों नहीं आई स्कूल...  ‘...उसके दांत में पेन है...’ – मैम ने शब्द के सिर पर हाथ फेरते हुए उसे बताया । साथ ही शब्द के साथ आज अब्दुल को बिठा दिया ।  शब्द ये सब बातें अपने पापा को फोन पर बता रहा था ।   शब्द को अब्दुल बिलकुल पसंद नहीं है । वह पूरे टाइम रोता ही रहता है ।  मायरा उसे बहुत पसंद है । वह पूरे टाइम हँसती ही रहती है ।  वह मिलकर खेलते हैं । एक सीट पर बैठते हैं और एक साथ ही खाना खाते हैं । वह दोनों ही अपने टिफिन का खाना आपस में बांटकर खाते हैं ।  आज मायरा के न आने से शब्द उदास होकर बैठ गया । उसका मन न खेलने में लग रहा था और न ही पढ़ने में । खाने में तो बिलकुल ही नहीं ।  मैम ने यह देख लिया ।  मैम शब्द को खूब पसंद करती थीं । उन्होंने शब्द को खुश करने के लिए उसके सिर पर क्राउन लगा दिया और सभी बच्चों से कहा – ‘...देखो आज शब्द किंग बना है...’  इस पर शब्द बहुत खुश हुए ।  घर आते ही सारी बातें पापा को फोन पर बता डालीं ।  शाम को जब पापा घर आए तो उन्होंने अपनी मम्मा को शब्द के किंग बनने की बात बताई । शब्द पास ही बैठे ।

सुई लगा दूंगा

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शब्द के बाबा डॉक्टर हैं । शब्द उन्हें रोज ही लोगों को दवाई देते देखते हैं । जब बाबा दुकान पर चले जाते हैं तब वह उनकी सीट पर जाकर बैठ जाता है और उनकी नकल करने लगता है ।  पहले वह बाबा का चश्मा अपनी आँखों पर लगाता है । फिर आला गले में डालता है । इसके बाद एक कॉपी पर कुछ लिखने लगता है । सब लोग उसे देखते रहते हैं ।   फिर कुछ मरीज़ आ जाते हैं । दादी... बुआ आदि...    दादी – डॉक्टर साहब मुझे बुखार है...  बुआ – डॉक्टर साहब मुझे खांसी आ रही है...  शब्द – अच्छा...   ...फिर शब्द दोनों मरीजों को पहले आला लगाकर देखते हैं ...  बारी-बारी से सभी मरीजों की नब्ज़ देखते हैं ...  इसके बाद कागज की दवाई देते हैं और कहते हैं – गुनगुने पानी से खाना ...  फिर जब मरीज पैसों के लिए पूछते हैं तो वह उनसे कागज के ही पैसे लेकर भाग जाते हैं ।   बाबा जब दुकान से वापस घर आते हैं तो शब्द उनकी दवाइयों वाला झोला चारपाई पर उलट देते हैं और उसमें से उनका आला निकालकर अपने कान में लगा लेते हैं । इसके बाद फिर से शुरू हो जाता है घर के सभी लोगों का चेकअप । ऐसा करने से या किसी अन्य बात पर कोई शब्द को डांटना चाहता है तो शब्द धमकी देने ल

शब्द के नखरे

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पापा को न जाने क्यों लगाने लगा है कि शब्द के नखरे बड़े अजीब होते जा रहे हैं ।  पहले जब पापा घर से बाहर जाते या वापस आते तो बड़े ही लाड़-प्यार से शब्द के गाल चूम लिया करते ।  धीरे-धीरे ये शब्द की आदत में आ गया । पापा कभी भूल जाएं तो शब्द नाराज़ हो जाते हैं ।  आज पापा ऑफिस के काम से घर आने में जरा लेट हो गए । वापस आए तो शब्द के गाल चूमे बगैर नहाने चले गए । नहाकर निकले तो फोन आ गया और उसके बाद लैपटॉप लेकर कुछ काम करने लगे । शब्द पर ध्यान ही नहीं दिया ।   अब जब शब्द को लगा कि पापा उनका गाल नहीं चूमेंगे तो गाल फुलाकर बाहर बैठ गए । मम्मा ने देखा तो पहले उनकी सूरत पर हँसे बगैर फ़ोटो खींच ली । इस पर शब्द थोड़ा और नाराज हो गए ।  आखिरकार मम्मा ने पूछ ही लिया - क्यों नाराज़ हो...   पहले तो कुछ देर बोले नहीं । कुछ मिन्नतें करबाई ।  फिर सर झुकाए हुए ही कहने लगे – पापा बहुत गंदे हो गए हैं ...    मम्मा - क्यों… क्या हुआ…  शब्द - बाहर से आ जाते हैं… नहाने चले जाते हैं… मोबाइल पर लग जाते हैं… लैपटॉप लेकर बैठ जाते हैं लेकिन प्यार ही नहीं करते हैं…  मम्मा - (कमरे की ओर आवाज देकर) अरे शब्द को प्यार क

अच्छरो की बाजार

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शब्द के पास खूब सारे रंगों के खूब सारे अच्छर हैं । हिन्दी के और अंग्रेजी के भी । शब्द को ‘अंग्रेजी’ बोलना अच्छा नहीं लगता है ।  वह कहता है – ये अंग्रेजी के नहीं होते हैं... मैम कहती हैं ये इंग्लिश के होते हैं...  पापा हार मान लेते हैं । उसकी प्यारी इसनेहा मैम के आगे उनकी कहाँ चलने वाली !   अच्छरों के रंग और आकार उसे बहुत पसंद हैं । वह उनसे अपने खेलने के लिए खूब सारे खिलौने बना लेता है । कभी छिपकली, कभी चूहा, कभी बंदर, कभी लंबी सूड वाला हाथी ।  कभी वह इन्हीं रंगीन अच्छरों से रेमबो भी बनाता है ।  शब्द पापा का हैपी बड्डे अक्सर मनाता है । इसके लिए वह इन्हीं अच्छरों से खूब सुंदर केक और मिठाई भी बनाता है । पापा को देने के लिए गिफ्ट भी इन्हीं अच्छरों से बनाया जाता है ।  मम्मा के बराबर में शब्द ने कुछ बिस्तरों को मिलाकर अपना एक किचन बनाया है । इस किचन में मम्मा के किचन के कुछ बर्तन भी रख लिए हैं । कुछ चम्मच हैं, एक कढाही है, एक बड़ा चम्मच है । फिर अपने पढ़ने की टेबल को चूल्हा बनाकर वह इन बर्तनों को उस पर चढ़ाता है । इसके बाद उसमें अपने प्यारे रंगीन अच्छरों से सब्जी, दाल, रोटी, चावल, म

शब्द बने वैज्ञानिक

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एक दिन की बात है । पापा अपने एक फ्रेंड से बातें कर रहे थे । शब्द भी वहीं खेल रहे थे । पापा और उनके फ्रेंड गाँव में गोबर से गैस और बिजली बनाने की योजना बना रहे थे । शब्द दोनों की बातें ध्यान से सुन रहे थे । फिर पापा के फ्रेंड चले गए तो शब्द पापा से बिजली बनाने के बारे में पूछने लगे । तब पापा ने बताया –  गाँव में हमारे घर पर जो काऊ, बफेलो हैं । उनका गोबर होता है।  शब्द – गोबर क्या होता है ? पापा – काऊ और बफेलो की पॉटी...   शब्द – पॉटी तो हमारी होती है...  पापा – उनकी भी होती है...   शब्द – तो उसे गोबर क्यों कहते हैं... हमारी पॉटी को गोबर क्यों नहीं कहते हैं...   (पापा चुप ! उनके सिर पर चाँद-तारे नाचने लगे ।) शब्द – अच्छा बताओ... गोबर से बिजली कैसे बनती है...   पापा – गोबर को एक गड्ढे में डाला जाता है... उसमें से गैस निकलती है और बिजली बनती है ।  शब्द ने खूब ध्यान से पापा की बात सुनी ।  फिर दोनों सो गए ।  अगले दिन जब पापा ऑफिस से वापस आए तो देखा कि दरवाजे पर किसी जानवर ने गोबर किया था और शब्द ने उस गोबर पर बिजली बनाने के लिए प्रयोग !  पापा – यह क्या है ?  शब्द – अरे यार पापा म

शब्द का आई, नहीं नहीं ‘जे’ फोन

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शब्द को मोबाइल बहुत पसंद है लेकिन उसके पास अपना मोबाइल नहीं है । वह कभी मम्मा का तो कभी पापा के मोबाइल से अपना काम चलाता है । इसके लिए उसे मम्मा-पापा को खूब मनाना होता है । कई बार उसे मम्मा-पापा के कई काम भी करने पड़ते हैं । मम्मा तो उसके स्कूल का सारा होमवर्क इसी बहाने करा लेती हैं । और तो और खाना खिलाने के लिए भी मम्मा उसे मोबाइल के नाम से ब्लेकमेल करती हैं । इससे शब्द कई बार रूठ जाते हैं । कई बार उन्हें बहुत गुस्सा भी आ जाता है और मम्मा का मोबाइल फेंक देते हैं । ऐसे ही करते-करते एक दिन मोबाइल गया टूट ।  फिर एक दिन पापा, मम्मा के लिए एक नया फोन ले आए । शब्द को यह अच्छा नहीं लगा । वह रूठ कर बैठ गए । मम्मा मनाने गईं तो बोले – ‘आपके ही लिए फोन लाते रहते हैं... एक मेरे लिए भी ले आते तो क्या था... हमें तो पता है... आपको ही प्यार करते हैं... हमें तो खाली बेवकूफ बनाते रहते हैं...’  मम्मा ने खूब समझाया शब्द को उस दिन । अपना नया फोन दिया । इस पर शब्द बोले – ‘मुझे चुप कराने के लिए अभी दे रही हो... फिर ले लोगी... मुझे तो नया फोन ही चाहिए... और आई फोन ही चाहिए... ’  मम्मा शब्द की इस ब

शब्द बाबू का बस्ता

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शब्द अभी चार साल के हो रहे हैं । उनके पास एक बैग है । यह बैग उन्हें उनकी मम्मा ने दिया है । मम्मा इसमें पुराने कपड़े रखा करती थीं । शब्द को यह बहुत पसंद आया । उसमें शब्द ने अपने सभी पुराने खिलौने रखे हैं । एकदम शुरुआत से लेकर अभी तक के । कुछ साबुत हैं तो ढेर सारे टूटे-फूटे हैं ।  छिपकली की पूछ नहीं है, शब्द को लगता है उसे चूहा खा गया । इस पर शब्द को गुस्सा आ गया । उसने चूहे की पूछ ही तोड़ दी ।  पुरानी बड़ी गेंदों में हवा गायब है । कुछ में बड़े-बड़े छेद हो गए हैं । एक गेंद को तो शब्द ने काटकर टोपी की तरह लगाने का भी प्रयास किया ।   झुनझुने में केवल जाली ही बची है । उसके अंदर की घुँघरू कहीं खो गए हैं । इससे शब्द आटा फेंटने का काम करता है । जैसे मम्मा दही फेंटती हैं ।  हिंदी अंग्रेजी वर्णमाला के आधे-अधूरे वर्ण शब्द के बैग में मुस्कुराते रहते हैं । अब वह उन्हें जोड़कर कुछ-कुछ शब्द बनाना सीख गए हैं । उसने इन आधे-अधूरे अच्छरों में से अपने और बाबा के नाम के अच्छर तलाश कर शब्द बना दिए हैं ।  खाना बनाने के टूटे हुए बर्तन तो बड़े मजेदार हैं । टूटी गैस स्टोव पर टूटी कढ़ाई में खाना बनाकर वह हमें लगभग रोज

घने जंगल में

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घने जंगल में शब्द अभी यही कोई तीन साल के हैं । आज उनका मूड कहानी सुनाने का हो रहा है । वह एक किताब उठाते हैं, जिसमें खूब सारे रंग बिरंगे चित्र बने हुए हैं । वह कुछ देर उन चित्रों को देखते हैं और घर में सबके बीच बैठकर कहानी सुनाने लगते हैं -  ‘‘एक लड़का होता है ... उसके पापा भी होते हैं ... एक दिन वो जंगल मेनजाते हैं ... तो उनको वहाँ एक टाइगर मिलता है ... टाइगर चुपचाप बैठा था ... वो लड़का अपने पापा के साथ वहाँ से भाग जाता है । फिर उसको एक गिल्लू मिल जाती है । अब दोनों फ्रेंड बन जाते हैं । अब उस लड़के को अपने पापा और फ्रेंड गिल्लू के साथ जंगल में घूमते-घूमते रात हो जाती है । तभी उसको एक इसनेक मिल जाता है । फिर वो इसनेक भी उसका फ्रेंड बन जाता है । अब सब लोग इसनेक के घरपर जाते हैं । इसनेक का घर एक ट्री पर होता है । सब ट्री पर सोने लगते हैं । तभी वहाँ एक उल्लू और एक भूत आ जाता है । सब लोग उससे डरने लगते हैं । फिर मून आ जाता है । जब मून आटा है तब सन अपने घर चला जाता है । मून का भी एक भइया होता है । जैसे आप पापा और मैं आपका भइया हूँ ... ।  ... तभी गिल्लू भागकर कहीं जाती है । तभी सब लोग आ जाते है

समीहा अप्पो के दांत

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बड़ा जिद्दी हो गया है । रोज ही कहानी सुनने की जिद करता है । आज पापा ने उसे ‘समीहा अप्पो के दांत’ वाली कहानी सुनाई ।   ‘‘समीहा और अनमता बहने हैं । अनमता छोटी है । वह समीहा को अप्पो कहती है । समीहा के दांत बड़े सुंदर हैं । एकदम मोती जैसे । वह उन्हें प्यार भी खूब करती है । सुबह-शाम अच्छे से साफ करती है । अपने फ़ेबरेट ब्रस और साँसों से खुशबू देने वाले पेस्ट से ।  एक दिन समीहा का एक दांत टूट गया । वह परेशान हो गई । घर में सभी उसे चिढ़ाने लगे । मम्मी, पापा, चाचू, दादी ... सब के सब ।  ‘‘टूथफेरी आएगी, गोल्डन क्वाइन लाएगी । टूथफेरी आएगी, गोल्डन क्वाइन लाएगी ।’’   अप्पो को उसके फ़ेबरेट कार्टून से यों चिढ़ाना अनमता को बिलकुल अच्छा न लगा ।  उसने मन ही मन में टूथफेरी से पक्का वाला वादा ले लिया – ‘प्लीज़ टूथफेरी आ जरूर जाना ...’  घर के सभी लोग अपने कामों में लग गए । अनमता, अप्पो का टूटा दांत तलाशने लगी । अप्पो ने अपने दांत को एक सुंदर सी डिब्बी में रख लिया था । आखिर अनमता को वह डिब्बी दिख ही गई ।  अब क्या था ... अनमता लग गई अपने काम में । उसने अप्पो के दांत को खूब अच्छे से साफ किया । फिर एक साफ

बालसाहित्य पर बतकही

आज के दौर में भी जब हम बालसाहित्य की बात करते हैं तो हमारे मनोमस्तिष्क में वह बाल छवि अनायास ही कौतूहल मचाने लगती है, जिससे हम निकलकर आए हैं अथवा जिसके संग - साथ हम रोज ही अपने बचपन को महसूस करते हैं । बच्चों की मासूमियत, उनकी संवेदना, उनके मनोभाव, उनके सहज से तर्क और प्रश्न हमें कभी-कभी निरुत्तर से कर देते हैं ।  आज के बालसहित्य में कोरी उपदेशात्मकता के स्थान पर संवेदनात्मकता, मार्मिकता के साथ विषय-वस्तु की चित्रात्मकता भी होनी चाहिए । किसी बात को निराधार अथवा महज शैलीगत  रूप में प्रस्तुत करने के बजाय विषय-वस्तु की मज़बूती के साथ प्रस्तुत करना चाहिए । आज का बच्चा तर्कशील हो गया है । वह बात क यूँ ही नहीं मानने को तैयार होगा ! उसके सामने प्रमाण प्रस्तुत करना पड़ेगा ! आज का दौर बाज़ारवाद का दौर है । हमारे जीवन के समस्त पहलुओं को बाजार अपनी चपेट में लेता जा रहा है । हमारे जीवन की प्रत्येक आवश्यकता का निर्धारण बाजार ही कर रहा है । यहाँ तक कि बच्चों की सुकुमार संवेदना को भी ग्रहण लग रहा है । बच्चों के खेल-खिलौनों की दुनिया से कब गुड्डे-गुड़िया, बाजे-नगाड़े आदि निकलते चले गए और कब उनकी जगह ‘बंदूक

नीला दरवाजा

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दुनिया की आपसदारी की कहानियां  लोककथाएं पूरी दुनिया को आपसदारी में बांधती हैं । अलग–अलग भाषा शब्दों में टंकी हुई संवेदनाओं को, मानव से लेकर मानवेतर भावों को एक धागे में पिरोती हैं ।  एक संवेदना, एक भाव कैसे पूरी दुनिया भर में बिखरा होता है, बड़ी ही सहजता से कह जाती हैं ।  ‘नीला दरवाजा’ एक ऐसी ही किताब है । यहां फिनलैंड, चेक गणराज्य, कोर्सिका (फ्रांस), अफ्रीका, एस्तोनिया, लातिन अमेरिका, नाईजीरिया और युगांडा की आठ लोककथाएं हैं । इनमें से कई पर बेहतरीन फिल्में भी बन चुकी हैं ।  यदि आपने कभी अपने घरों में दादी, नानी आदि से अपने परिवेश की कहानियां सुनी होंगी तो ये कहानियां केवल नामों को छोड़कर उन जैसी ही लगेंगी ।  गर्मियों की छुट्टियों में इससे बेहतरीन क्या कोई किताब हो सकती है आपके पूरे परिवार के लिए ...  जरूर पढ़ें ...  इस किताब पर विस्तृत जानकारी के लिए कमेंट बॉक्स के लिंक पर जा सकते हैं ...  #आओकरेंकिताबोंकीबातें  #किताबें_कुछ_कहना_चाहती_हैं  #बच्चों_को_किताबों_का_उपहार_दें

मगरमच्छों का बसेरा

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जसबीर भुल्लर के शब्दों और अतनु राय के चित्रों से सजी किताब ‘मगरमच्छों का बसेरा’ दो मगरमच्छों की दोस्ती से शुरू होकर, उनके बिछड़ने, एक लंबे संघर्ष और जीवन के उतार चढ़ावों से गुजरते हुए दोनों के वापस मिलने की एक खूबसूरत कथा है ।  56 पेज की किताब को छोटी–छोटी घटनाओं में बांटा गया है । ये घटनाएं कथा को विस्तार देती हुई किताब को उपन्यासिक बना देती हैं ।  मजेदार है । पढ़ी जानी चाहिए ।  #आओकरेंकिताबोंकीबातें  #किताबें_कुछ_कहना_चाहती_हैं  #बच्चों_को_किताबों_का_उपहार_दें

औरत, लेखन और शराब

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पुस्तक हाथ में आते ही पढ़ ली जानी चाहिए, अन्यथा रैक में आपकी रहनुमाई का इंतज़ार करती रहती है । मेरा प्रयास रहता है कि पुस्तक हाथ में आते ही पढ़ ली जाए, बावजूद इसके कई महत्त्वपूर्ण पुस्तकें बिना पढ़े रह जाती हैं और अपनी बारी का वर्षों इंतज़ार करती रहती हैं । एक ऐसी ही पुस्तक है 'औरत, लेखन और शराब' ।  भाई शराफत अली खान की यह पुस्तक वर्ष 2018 में मेरे पास आई । दो-तीन शीर्षक पढ़ भी डाले थे पर पूरी न पढ़ पाई । आज रैक की सफाई करते हुए सामने कूद पड़ी तो सभी काम किनारे कर पढ़ भी डाली ।  शराफत अली खान की यह पुस्तक लेखकों / रचनाकारों की कुछ विशेष आदतों का विश्लेषण करती है, जिससे उक्त लेखकों / रचनाकारों की एक विशेष पहचान बनी । फ्रायड ने कहीं लिखा था कि 'कला दमित वासनाओं से ही अपना स्वरूप विकसित करती है ।' कष्ट, निर्धनता और परेशानी से ही भाव बाहर आते हैं । पैसे के प्रति आकर्षण साहित्य की आत्मा को खोखला कर देता है । प्रेमचंद ने कहा भी है कि 'जिन लोगो को धन-संपत्ति के प्रति आकर्षण है उनके लिए साहित्य में कोई स्थान नहीं है ।' भुवनेश्वर, निराला, प्रेमचंद, मंटो आदि कभी कालजयी लेखन न कर

तुम्हारी औकात क्या है पियूष मिश्रा

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तुम्हारी औकात क्या है पीयूष मिश्रा : पीयूष मिश्रा इस किताब को केवल ‘आरंभ है प्रचंड’ गीत की पृष्ठभूमि को समझने के लिए पढ़ना आरंभ किया था, कुछ फिल्मों में उन्हें एक अभिनेता के रूप में देखने से अधिक कोई परिचय नहीं था । किताब क्या उठाई, पागलपन के चरम पर पहुंचता चला गया ।  बहुत कम आत्मकथाएं पूरी ईमानदारी, पूरी सपाटबयानी के साथ लिखी जा रही हैं । इस किताब ने अंदर तक झकझोर दिया । बने-बनाए उत्स तोड़ डाले । ग्वालियर से लेकर मुंबई तक के सफर का संघर्ष किसी भी व्यक्ति को तोड़ के रख सकता है, इस बंदे ने खुद को बचाया । महज बचाया ही नहीं बल्कि खुद को बुना और सँजोया भी ।  आत्मकथाओं में सबसे अधिक फरेब होता है । हमेशा पढ़ने के बाद मुझे लगता रहा । कुछ-एक को छोड़ दिया जाए तो । इस किताब ने उस धारणा को ठेंगा दिखाया । पीयूष मिश्रा ने अपने जीवन के संघर्ष को, अपनी कमियों को, अपनी बत्तमीजियों को, अपने प्रेम को, शराब-सिगरेट की लत को बड़ी ही स्पष्टता के साथ प्रस्तुत किया है ।  मुंबई में स्टारडम पाले हुए स्ट्रगलर्स को अथवा थियेटर कर रहे नौजवानों को अथवा जीवन के किसी भी प्रकार के संघर्ष से जूझ रहे व्यक्ति को यह किताब अवश्य

हस्ती नहीं मिटती

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सिनेमा के पिचहत्तर वर्ष पूरे होने पर शरद दत्त द्वारा इससे पूर्व में समय-समय पर लिखे गए लेखों का यह संकलन ‘सिने-इतिहास’ के वह सुनहले पन्ने हैं, जिनमें सिनेमा का स्वर्णिम इतिहास उसकी उठा-पटक के साथ पाठकों से रूबरू होता है । सिनेमा के पिचहत्तर वर्षों का सर्वेक्षण करती हुई यह लेखमाला इस पुस्तक में आने से पूर्व सन् 1988 में ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ के दो अंकों में प्रकाशित हो चुकी थी । बकौल फ्लैप ‘स्फुट लेखों का संकलन होते हुए भी पुस्तक एक सुनियोजित इतिहास जैसी बन गई है, जिसमें हिंदी सिनेमा के महत्त्वपूर्ण स्तंभों-निर्देशकों, संगीतकारों, गीतकारों, कलाकारों तथा पार्श्वगायकों के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है । हिन्दी सिनेमा के स्वर्णयुग में दिलचस्पी रखने वाले पाठकों के लिए यह एक उपयोगी तथा ज्ञानवर्धक पुस्तक सिद्ध होगी, ऐसा मेरा विश्वास है ।’ शरद दत्त सिनेमा पर गंभीरता से लिखने वाले अपने समय के, मेरी समझ के एकमात्र लेखक ठहरते हैं । आपने सिनेमा को गहराई से परखा और उसकी संगतियों / असंगतियों को बड़े ही संतुलन के साथ अपने शब्दों में प्रस्तुत किया । सिनेमा पर आपके लेखन को पढ़ना सिनेमा की एक

थियेटर के सरताज पृथ्वीराज

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पृथ्वीराज कपूर का नाम लेते ही एक ऐसी रोबीली तस्वीर मनोमस्तिष्क में उभरती है और विस्तृत होकर शहंशाह अकबर का एक ऐसा व्यक्तित्त्व गढ़ती है कि पूरा भारतीय परिवेश उसमें समाहित हो जाता है । यह पुस्तक इन्हें पृथ्वीराज के अंतरंग योगराज के संस्मरण के रूप में लिखी गई है । लेखक ने पृथ्वीराज के साथ बिताए पलों और संबंधों को बड़ी ही सूक्ष्मता के साथ इस पुस्तक में प्रस्तुत किया है ।  पृथ्वीराज कपूर लेखक योगराज के पिता के बड़े घनिष्ट मित्र थे । लेखक के अनुसार ‘इस बहुरंगी और आकर्षक व्यक्त्तित्व की चर्चा हमारे घर में बड़े सम्मान से हुआ करती थी ।’  यह अंतरंगता ही इस पुस्तक की आधार्शिला बनी, जहाँ से लेखक योगराज ने पृथ्वीराज को करीब से देखने, समझने का प्रयास आरम्भ किया ।  बकौल फ्लैप ‘यह पुस्तक कलाकार पृथ्वीराज कपूर तथा उनके ताजमहल ‘पृथ्वी थियेटर’ के अंतरंग एवं बहिरंग की दिलचस्प और सच्ची दास्तान है । पारसी और यथार्थवादी थियेटर के सार्थक समन्वय से एक नई एवं प्रासंगिक रंग-दृष्टि की सृष्टि करने वाले उस रंग-पुरुष और उसके नाट्‍य-दल की ज़बर्दस्त जद्दोजहद, हार-जीत, उपलब्धियों और त्रासदियों का आँखों देखा जिन्दा इतिहास इ

ऋतु आए ऋतु जाए

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यह पुस्तक हिन्दी फिल्म जगत में फिल्मी संगीत के जन्मदाता कहे जाने वाले व्यक्तित्व अनिल विश्वास की शरद दत्त की जीवन यात्रा है । बकौल फ्लैप ‘उस समय के सुप्रसिद्ध फिल्म-समीक्षक तथा ‘फिल्म इंडिया’ पत्रिका के संस्थापक-संपादक बाबूराव पटेल के शब्दों में, अनिल विश्वास हिंदी फिल्म-संगीत को स्वतंत्र व्यक्तित्व सौंपने वाले पहले संगीत-निर्देशक हैं । उन्होंने फिल्म-संगीत को मराठी नाट्‍य एवं भक्ति-संगीत के सर्वग्रासी प्रभाव से मुक्त किया और शास्त्रीय तथा लोक-संगीत की सहायता से फिल्म-संगीत की एक ऐसी परंपरा को जन्म दिया, जो उनके समकालीन तथा परवर्ती संगीतकारों के लिए प्रेरणा का स्रोत बन गई ।’ सर्वोत्तम लेखन के लिए वर्ष 2002 के राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित यह पुस्तक संगीत जगत के पुरोधा और संगीत के भीष्म पितामह कहे जाने वाले एक ऐसे व्यक्ति की जीवन यात्रा है, जिसमें संगीत के साथ-साथ बदलता हुआ ‘दौर’ जीवंत-सा लगने लगता है । शरद दत्त के उत्कृष्ट लेखन ने पुस्तक को ऊँचाई प्रदान की है, वह अत्यंत सराहनीय है ।  साढ़े तीस सौ पृष्ठ की इस पुस्तक को तीन प्रमुख खण्डों में बाँटा गया है । जीवन-यात्रा, संगीत-चिंतक

पटकथा लेखन की यांत्रिकता

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'पटकथा’ यानि कि ऐसी कथा जो ‘पट’ अर्थात् पर्दे पर दिखाई जाए । यह कथा ही सिनेमा की जान होती है । जब हम किसी कहानी को पढ़ते हैं तो हमारे दिमाग में बिंबात्मकता प्रकट होती है । पटकथा लेखक इसी बिंबात्मकता को पर्दे पर दिखाने के अनुसार लिखता है ।  आज फिल्म के विभिन्न क्षेत्रों की भाँति युवक पटकथा लेखन के क्षेत्र में भी हाथ आजमा रहे हैं । इस क्षेत्र में पटकथा लेखन की यांत्रिकी सीखने की सबसे बड़ी दिक्कत आती है । अधिकांश युवाओं के पास अपने आस-पास से लेकर अन्य प्रकार की कोई न कोई कहानी होती है । जिसे लेकर वह निर्देशकों ? फिल्मकारों के पीछे-पीछे दौड़ते रहते हैं । कई बार सबसे बड़ी दिक्कत यह आती है कि निर्देशक अथवा फिल्मकार के समक्ष अपनी कथा को सही से प्रस्तुत न कर पाने के कारण अच्छी-अच्छी कहानियों का भी कोई लेनदार नहीं होता है । फिल्मकार के पास इतना समय नहीं होता है कि बड़ी-बड़ी कहानियाँ पढ़ता फिरे । उसे चाहिए कम समय में एक अच्छा ‘थॉट’ । इसके लिए लेखक के पास पटकथा की यांत्रिकता का ज्ञान होना अत्यंत आवश्यक है ।  यूँ तो कई सारे ऐसे संस्थान हैं जो पटकथा लेखन सिखाते हैं, लेकिन सबका वहाँ जा पाना भी संभव नही

साहित्य का धूमकेतु भुवनेश्वर

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यूँ तो भुवनेश्वर ‘हँस’ के माध्यम से चर्चा में आए थे । उनकी कहानी ‘भेडिये’ ने साहित्य में उनकी पहचान धूमकेतु के समान कराई थी । तब हँस के संपादक प्रेमचन्द हुआ करते थे । इसके बाद राजेंद्र यादव ने हँस की कमान सँभाली और भुवनेश्वर को एक बार फिर स्वर मिला ।  प्रस्तुत पुस्तक ‘साहित्य का धूमकेतु भुवनेश्वर’ ने ‘हँस’ के स्वर को और भी गंभीरता से आगे बढ़ाया । संदर्श प्रकाशन, शाहजहाँपुर की इस पहल को चन्द्रमोहन दिनेश जैसे गंभीर संपादक का साथ मिला, जिसने भुवनेश्वर के भिन्न-भिन्न पहलुओं को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया । यह पहली ऐसी पुस्तक थी जिसने भुवनेश्वर को जन-जन तक पहुँचाया । उनकी दबी पड़ी हुई पहचान को प्रकाशित किया ।  इस पुस्तक में संपादक ने भुवनेश्वर के विविध पहलुओं को उनके समकालीनों के साथ-साथ उनको समझने वालों के माध्यम से प्रस्तुत किया ।  एक छोटे-से अभावग्रस्त शहर शाहजहाँपुर के अत्यंत सामान्य परिवार के भुवनेश्वर ने हिन्दी ही नहीं बल्कि विश्व साहित्य की मुख्य धारा में अपना नाम सुनिश्चित किया । प्रस्तुत पुस्तक की विषय-वस्तु ने इस बात को गहराई तक सिद्ध करने का प्रयास किया है ।  संस्मरण, आलोचना, प्र