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Showing posts from January, 2019

यह विद्रोह कहाँ से आया ?

बात यही कोई बीस बरस पहले की है । गाँव में प्रधानी का चुनाव जोरों पर था । यह चुनाव अपना विशेष रुतबा लेकर आया था । इस बार पिछले दस सालों से लगातार रह चुके प्रधान महेश सिंह के बरख्श दो और कंडीडेट मैदान में थे । एक तो मेरे पिता जी और एक वर्तमान प्रधान महेश सिंह के सगे बहनोई रामपाल सिंह । तीनों प्रत्याशियों को यह विश्वास था कि जगतियापुर के अगला प्रधान वही होंगे । महेश सिंह चूँकि दस सालों से प्रधान थे और उनकी सबसे मज़बूत बात यह थी कि वह गाँव के लगभग सभी घरों में बैठकर चिलम और शराब पी लिया करते थे, इसलिए वह अपने आप को जनता के अधिक निकट मानते थे । रामपाल सिंह जगतियापुर ग्राम पंचायत से संबद्ध गाँव ककरौवा के रहने वाले पैसे वाले व्यक्ति थे और उन्हें लगता था कि वह अपने पैसे और राजनीतिक पकड़ के चलते चुनाव जीत लेंगे । तीसरे मेरे पिता जी, जिन्हें यह विश्वास था कि वह गाँव में सबसे अधिक इज्जतदार व्यक्ति हैं, उन्होंने कई बार गाँव के चुनाव का निर्धारण किया है तो वह तो चुनाव जीत ही जायेंगे । खैर ! सभी प्रत्यासी अपने-अपने विश्वास और तरकीबों से चुनाव का परिणाम अपने पक्ष में करने की पुरजोर कोशिश कर रहे थे ।

कोई है खरीददार ! 'यह गाँव बिकाऊ है'

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यह गाँव बिकाऊ है लेखक : एम.एस.चन्द्रा विधा : उपन्यास प्रकाशक : डायमंड बुक्स, नई दिल्ली संस्करण : 2019 उपन्यास की संरचना और विषय-वस्तु पर प्रकाश डालते हुए राल्फ फाक्स ने लिखा है कि ‘उपन्यास का विषय है व्यक्ति, वह समाज के विरुद्ध, प्रकृति के विरुद्ध व्यक्ति संघर्ष का महाकाव्य है और यह केवल उसी समाज में विकसित हो सकता है, जिसमें व्यक्ति और समाज के बीच सन्तुलन नष्ट हो चुका हो और मानव का अपने सहजीवी साथियों अथवा प्रकृति से युद्ध ठना हो ।’ राल्फ फाक्स का उक्त कथन एम.एस.चन्द्रा के उपन्यास ‘यह गाँव बिकाऊ है’ पर बखूबी लागू होता है । अपनी अतिशय वैचारिक पृष्ठभूमि पर रचा गया यह उपन्यास समय के साथ कुछ इस अंदाज में संवाद करता है कि एक बारगी दिमाग को झकझोर के रख देता है । इस उपन्यास ने व्यक्ति के संघर्ष को स्वर प्रदान किया है, जो दो स्तर पर इस उपन्यास में दिखाई देता है - बाह्य और आंतरिक । अघोघ इन दोनों स्तरों पर संघर्ष करता है । अघोघ पूँजीवादी सभ्यता के विकास से उत्पन्न चरित्र है जो पूँजीवाद द्वारा उत्पन्न सामंती समाज के भावुकतापूर्ण संबंधों को ध्वस्त करके नए मेहनतकश समाज की स्थापना के ल

मलिखान मास्टर

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मलिखान सिंह मास्टर साब बोलें तो मेरे पहले अकादमिक गुरू । साथ ही गाँव-गिराँव के रिश्ते से मेरे बाबा भी लगते थे । मेरे पिता जी के साथ खूब उठना-बैठना होता था उनका । घर से बाहर जब पहली बार गाँव की पाठशाला में कदम रखा तो उन्होंने ही पाटी पर खड़िया से ‘अ आ इ ई’ लिखना सिखाया था । ककरौआ हमारे ही गाँव की पंचायत का एक गाँव है जहाँ मलिखान बाबा का घर था । कुछ पढ़ने-लिखने के बाद जब वह प्राथमिक पाठशाला में मास्टर बन गए तो कुछ दिनों बाद उनका तबादिला हमारे ही गाँव के स्कूल में हो गया, जहाँ वह अपनी ‘बिना मेडीगाट की साइकिल’ से आया करते थे । यह साइकिल वर्षो बरष उनके पास देखी जाती रही थी । उनके संगी-साथी मजाक उड़ाते हुए अक्सर कहते थे कि ‘इनके मरने के बाद इस वाहन को संग्रहालय में रखकर सरकारी संपत्ति घोषित कर दिया जायेगा ।’ सो यह मास्टर मलिखान सिंह हमारे पहले अकादमिक गुरू बने । मलिखान सिंह मास्टर साब के साथ मेरी जो यादें जुड़ी हैं, वह उनकी जीवनी नहीं बल्कि मेरे बालमन पर खिची कुछ धुँधली रेखाएँ ही हैं । कुछ मीठी तो कुछ नटखटपन लिए हुई सी । चूँकि मलिखान सिंह मास्टर साब गाँव-गिराँव के रिश्ते से मेरे बाबा