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Showing posts from April, 2023

कथा एक कंस की

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बहुत दिनों बाद एक शानदार रंगमंच प्रस्तुति देखने को मिली । स्थान था – ऋद्धिमा ऑडीटोरियम और प्रस्तुति थी – एकलव्य देहरादून की ‘कथा एक कंस की’ ।   शाहजहांपुर से निकलने के बाद बंगाल में कुछ प्रस्तुतियां देखीं । उसके बाद दिल्ली एन एस डी में । बरेली में इतने दिनों से होने के बावजूद भी रंगमंच की यह मेरी पहली प्रस्तुति थी, जो मैंने आज देखी । देहरादून की एकलव्य संस्था, जिसके निर्देशक अखिलेश अलकाज़ी को ‘शाहजहांपुर रंग महोत्सव’ के बाद यहां पर देखना बेहद सुखद अनुभव रहा । उनकी अदाकारी ने नाटक के कथ्य के साथ जो तालमेल बनाया है, वह अद्भुत था । नाटक ने पूरे समय बांधे रखा । यह अच्छे कलाकारों की काबिलियत होती है ।  ‘कथा एक कंस की’ नाटक मनोवैज्ञानिक ढंग का है । पौराणिक मिथकीय पात्रों को आधुनिक मनोविज्ञान की चासनी में साना गया है । एक विशेष प्रकार का मिथ बन चुके पात्र कंस को आधुनिक परिप्रेक्ष्य में बेहद सुंदरता के साथ व्याख्यायित किया गया है । कहानी कंस के बाल रूप की है जहां पर उसके पिता उसको मजबूत पुरुष बनाना चाहते हैं । कंस के पिता में पुरुषोचित अहंकार है और बालक कंस में स्त्रियोचित करुणा । पिता अपने पुत

आजादी मेरा ब्रांड : अनुराधा बेनीवाल

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कुछ किताबें गहराई तक उतरती चली जाती हैं । पढ़े गए को आपकी अनुभूति में उतारती चली जाती हैं । अनुराधा की किताब ‘आजादी मेरा ब्रांड’ ऐसे ही अहसास को मजबूत बनाने वाली किताब है ।  यह एक ‘ट्रैवलॉग’ है । बोलें तो यायावरी को सिनेमा की रील की तरह हमारे सामने बिंबित करने वाला यात्रा वृत्तान्त । भले ही हिन्दी आलोचना के पितामह नामवर जी ने यात्रावृत्तांत लिखने वालों के क्रम में लेखिका अनुराधा बेनीवाल को राहुल सांकृत्यायन, अज्ञेय और निर्मल वर्मा के बाद चौथा स्थान दिया हो लेकिन एक स्त्री लेखन के रूप में यह अपनी तरह का अनूठा ‘ट्रैवलॉग’ है ।  यहाँ स्त्री-विमर्श का बौद्धिक वाग्विलास या कहें कि दिखावटी जुगाली मात्र नहीं है । यहाँ स्त्री की आजादी का सहज, सरल और जीवंत सा जिया और भोगा हुआ जीवन है ।  लेखिका अकेली निकलती है और यूरोप के एक के बाद एक शहर को घूमती चली जाती है । यूं कहें कि पूरी दुनिया खुद ब खुद चली आती है उसके बेचैन पैरों के तले । उसकी निर्भीक और स्वच्छंद उड़ान को और अधिक गति देने के लिए । वह अपनी हिम्मत के बल पर दुनिया को अपने पैरों तले ले आती है । इस पूरी यात्रा के दौरान ल

मुस्कुराते रहो, गम भुलाते रहो ।

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मुसकुराते रहो, गम भुलाते रहो मुझे फूलों का मुस्कुराना, लहराते हुए फूलों की मदहोशी में खो जाना हमेशा से अच्छा लगता रहा है । बावजूद इसके मुझे गुलाब जैसे फूल कभी नहीं भाए । हालांकि गुलाब की अलग-अलग अवस्थाओं के मैंने बहुत सारे फोटो खींचे । एक ही गुलाब के कली निकलने से लेकर मुरझा कर गिर जाने तक की अनेकानेक अवस्थाओं के फ़ोटो मैंने लिए, लेकिन पता नहीं ऐसा क्या रहा कि सामंत वर्ग के सिर का ताज रहा यह गुलाब, धार्मिक आस्था का सिरमौर रहा यह गुलाब मेरे मन को कभी नहीं भाया । हो सकता है कि मैं अपने साहित्यिक पुरखे ‘निराला’ से प्रभावित रहा होऊँ, लेकिन वैसी ताकत खुद में न भर पाया कि गर्व से सीना फुलाकर कह सकूँ – ‘अबे ! सुन बी गुलाब ।’ ... और ऐसी स्थित में तो बिलकुल ही नहीं जबकि देश की राजनीति अपने सीने पर इस फूल को सजाए हुए हो । ये निराला जी की ‘बिल पावर’ थी । मेरी ऐसी औकात नहीं है । और यदि यदा-कदा मन में ऐसा विचार आ भी जाए कि राजनीति के सिरमौर की सामंती मोहब्बत पर कुछ कहने की सोचूँ भी तो भए से मन कांप उठता है ।  इसलिए भी मेरी मोहब्बत ज़मीन के फूलों के साथ अधिक है । मेरे मन में हमेशा जमीन से जुड़े फूलों