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Showing posts from 2019

वर्तमान में गांधी की प्रासंगिकता का प्रमाण : परिंदे का गांधी विशेषांक

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वर्तमान में जितना अधिक गांधी को दबाने का प्रयास किया जा रहा है, गांधी उतनी ही प्रबल आत्मशक्ति से इन विरोधी ताकतों के सम्मुख डटकर खड़े हो रहे हैं । बदलती हुई राजनैतिक परिस्थितियों ने सबसे बड़ा हमला भारत के समन्वयात्मक प्रतीकों पर किया है । ऐसे में जहाँ कई प्रतीक धराशाही हुए हैं तो कई ने अपनी पकड़ को और अधिक मजबूत किया है । इन मज़बूत प्रतीकों में गांधी सर्वाधिक गहराई और मजबूती के साथ इन विघटनकारी ताकतों के सामने खड़े होते हैं । आज जबकि अलगाववादी ताकतें 'भारत की आत्मा' को खत्म करने पर तुली हैं, गांधी हमें इन ताकतों के साथ मज़बूती से लड़ने की आत्मशक्ति प्रदान कर रहे हैं ...  ... आत्मशक्ति के संचयन के इस दौर में हिंदी के वर्तमान साहित्य में नवीन से नवीन आख्याएँ प्रस्तुत की जा रही हैं । इन आख्याओं  और विचारों की मज़बूत होती जा रही शृंखला में ‘परिंदे’ का 'राष्ट्रपिता, कल, आज और कल' संयुक्तांक एक नवीन दृष्टि, एक नवीन ऊर्जा, एक नवीन प्रेरणा और एक नवीन राह के द्वार खोलता है ।  वास्तव में 'परिंदे' का गांधी मूल्यों पर आधारित यह संयुक्तांक पढ़ना गांधी दर्शन की एक सहज किन्

साहित्य के बने बनाए ढ़ाँचे को अस्वीकारती ‘गंठी भंगिनियाँ’ 

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पुस्तक : गंठी भंगिनिया लेखक : सुनील मानव विधा : कथा-पटकथा प्रकाशक : अनुज्ञा बुक्स, नई दिल्ली संस्करण : 2019 (प्रथम) मूल्य : रु. 200 (हार्ड बाउंड) ‘गंठी भंगिनियाँ’ सुनील मानव नई कृति है जो साहित्य रूप के बने-बनाए ढ़ाँचे को अस्वीकारती है । अस्वीकार का कारण केवल नवीनता-प्रकाशन की आकाँक्षा नहीं है, बल्कि अपनी अनुभूतियों को प्रमाणिक रूप में व्यक्त करने की चेष्टा भी है ।कई बार साहित्य-रूप के आग्रह के कारण अनुभूतियों को अपने वास्तविक रूप से हमें लेखन के दौरान अलग करना पड़ता है । लेखक का ध्यान मुख्य रूप से इसी बिन्दु पर केन्द्रित था । अत: पूर्व निर्धारित ढ़ाँचे से इसमें अन्तर आना स्वाभाविक भी था और आवश्यक भी । यह कहना लाज़मी है कि यदि यह पुस्तक केवल पटकथा, कथा, संस्मरण और रिपोर्ताज के रूप में होती तो निश्चय ही अपनी प्रभावान्विति का बहुलांश खो देती और एक विशेष प्रकार की कृत्रिमता इस पर हावी हो जाती । लेखक ने रचना को उससे बचाया है जिसे चाहे तो लेखक की एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि कह सकते हैं । लेखक, लेखक होने की अह्मन्यता से मुक्त है । उसे अपनी सीमाओं का ध्यान भी है । स्वयं उसी के शब्दों में

समाज की मानसिक विकृति का चित्रण है ‘गंठी भंगिनियाँ’ : संतोष कुमार 

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‘गंठी भंगिनियाँ’ कृति में वर्णित कथा का एक छोर यदि ग्रामीण भारत के उस सामन्ती सोच वाले समाज की मानसिक विकृति का चित्रण करता है जो दलित समुदाय को पीढ़ी दर पीढ़ी अपना गुलाम बनाए रखता है तो उन दलितों में भी दलित परिवार की मनोदशा का चित्रण करता है जो भूख के लिए दूसरों के घरों की जूठन खाने को भी अति संघर्ष करता है । अति दलित समुदाय की सामाजिक उपेक्षा को स्वर देना ही इस कथा-पटकथा का उद्देश्य है । सामाजिक उपेक्षा का शिकार यह दलित समुदाय न तो उपेक्षा के दलदल से निकलने का प्रयास करता है और न ही अपने मानवीय अस्तित्व की पहचान के लिए कटिबद्ध होता है । प्रतिदिन सवर्णों की गालियाँ खाना जैसे उनकी नियति ही बन गई है ।  धार्मिक अंधविश्वास वाले इस समाज में हर अवसर पर दादी (गंठी) और बाबू की जरूरत पड़ती है – चाहें शादी हो, जन्मोत्सव हो या फ़िर गाँव की पूजा हो । लेकिन पारिश्रमिक के रूप में उन्हें कुछ अनाज, कुछ पैसे, बताशों का भुरकुन ही मिलता है, क्योंकि यह उनकी गुलामी का प्रतीक है न कि उनके श्रम से जुड़ा हुआ व्यवसाय । इसीलिए उन्हें तरह-तरह की उपाधियाँ मिलती रहती हैं । “तुम नीच जाति के लोगों की नीयत ठीक न

मेरी पुस्तक 'गंठी भंगिनिया' की समीक्षा

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कल की एक पोस्ट में रश्मि प्रकाशन ने बेहतरीन बात कही 'अब नए लेखकों की रचनाओं को बड़े लेखकों की ओर समीक्षार्थ देखने की आवश्यकता नहीं है । फेसबुक पर सामान्य से सामान्य और बड़े से बड़ा विद्वान रचना पर अपनी सहज और तटस्थ टिप्पणी कर सकता है । आज मेरी पुस्तक 'गंठी भंगिनिया' पर आदरणीय अंजू शर्मा जी ने बेहतरीन समीक्षा प्रस्तुत की है । अंजु जी धर्म परायण महिला हैं । वामपंथी मित्रों के शब्दों में कहें तो वह 'प्रगतिशील विचारधारा' में नहीं गिनी जाएंगी । (मैंने उनको हमेशा से प्रगतिशील विचारों के साथ खड़ा पाया है) मेरी इस पुस्तक पर उनकी यह समीक्षा मुझे बहुत बल प्रदान कर रही है । आपका बहुत बहुत आभार अंजू मैम । संस्कारित प्रतिष्ठा के चकनाचूर होने की कथा है ‘गंठी भंगिनिया’ पुस्तक : गंठी भंगिनिया लेखक : सुनील मानव विधा : कथा-पटकथा प्रकाशक : अनुज्ञा बुक्स संस्करण : 2019 (प्रथम) मूल्य : रु. 200 (हार्ड बाउंड) प्रगतिशील लेखक, कथाकार व नाटककार श्री सुनील मानव की नई पुस्तक ‘गंठी भंगिनिया’ एक प्रभावशाली संस्मरण-कथा है, जिसकी मुख्यपात्र आज भी गाँव में इसी नाम से जानी है और लेखक ने अपनी

यह विद्रोह कहाँ से आया ?

बात यही कोई बीस बरस पहले की है । गाँव में प्रधानी का चुनाव जोरों पर था । यह चुनाव अपना विशेष रुतबा लेकर आया था । इस बार पिछले दस सालों से लगातार रह चुके प्रधान महेश सिंह के बरख्श दो और कंडीडेट मैदान में थे । एक तो मेरे पिता जी और एक वर्तमान प्रधान महेश सिंह के सगे बहनोई रामपाल सिंह । तीनों प्रत्याशियों को यह विश्वास था कि जगतियापुर के अगला प्रधान वही होंगे । महेश सिंह चूँकि दस सालों से प्रधान थे और उनकी सबसे मज़बूत बात यह थी कि वह गाँव के लगभग सभी घरों में बैठकर चिलम और शराब पी लिया करते थे, इसलिए वह अपने आप को जनता के अधिक निकट मानते थे । रामपाल सिंह जगतियापुर ग्राम पंचायत से संबद्ध गाँव ककरौवा के रहने वाले पैसे वाले व्यक्ति थे और उन्हें लगता था कि वह अपने पैसे और राजनीतिक पकड़ के चलते चुनाव जीत लेंगे । तीसरे मेरे पिता जी, जिन्हें यह विश्वास था कि वह गाँव में सबसे अधिक इज्जतदार व्यक्ति हैं, उन्होंने कई बार गाँव के चुनाव का निर्धारण किया है तो वह तो चुनाव जीत ही जायेंगे । खैर ! सभी प्रत्यासी अपने-अपने विश्वास और तरकीबों से चुनाव का परिणाम अपने पक्ष में करने की पुरजोर कोशिश कर रहे थे ।

कोई है खरीददार ! 'यह गाँव बिकाऊ है'

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यह गाँव बिकाऊ है लेखक : एम.एस.चन्द्रा विधा : उपन्यास प्रकाशक : डायमंड बुक्स, नई दिल्ली संस्करण : 2019 उपन्यास की संरचना और विषय-वस्तु पर प्रकाश डालते हुए राल्फ फाक्स ने लिखा है कि ‘उपन्यास का विषय है व्यक्ति, वह समाज के विरुद्ध, प्रकृति के विरुद्ध व्यक्ति संघर्ष का महाकाव्य है और यह केवल उसी समाज में विकसित हो सकता है, जिसमें व्यक्ति और समाज के बीच सन्तुलन नष्ट हो चुका हो और मानव का अपने सहजीवी साथियों अथवा प्रकृति से युद्ध ठना हो ।’ राल्फ फाक्स का उक्त कथन एम.एस.चन्द्रा के उपन्यास ‘यह गाँव बिकाऊ है’ पर बखूबी लागू होता है । अपनी अतिशय वैचारिक पृष्ठभूमि पर रचा गया यह उपन्यास समय के साथ कुछ इस अंदाज में संवाद करता है कि एक बारगी दिमाग को झकझोर के रख देता है । इस उपन्यास ने व्यक्ति के संघर्ष को स्वर प्रदान किया है, जो दो स्तर पर इस उपन्यास में दिखाई देता है - बाह्य और आंतरिक । अघोघ इन दोनों स्तरों पर संघर्ष करता है । अघोघ पूँजीवादी सभ्यता के विकास से उत्पन्न चरित्र है जो पूँजीवाद द्वारा उत्पन्न सामंती समाज के भावुकतापूर्ण संबंधों को ध्वस्त करके नए मेहनतकश समाज की स्थापना के ल

मलिखान मास्टर

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मलिखान सिंह मास्टर साब बोलें तो मेरे पहले अकादमिक गुरू । साथ ही गाँव-गिराँव के रिश्ते से मेरे बाबा भी लगते थे । मेरे पिता जी के साथ खूब उठना-बैठना होता था उनका । घर से बाहर जब पहली बार गाँव की पाठशाला में कदम रखा तो उन्होंने ही पाटी पर खड़िया से ‘अ आ इ ई’ लिखना सिखाया था । ककरौआ हमारे ही गाँव की पंचायत का एक गाँव है जहाँ मलिखान बाबा का घर था । कुछ पढ़ने-लिखने के बाद जब वह प्राथमिक पाठशाला में मास्टर बन गए तो कुछ दिनों बाद उनका तबादिला हमारे ही गाँव के स्कूल में हो गया, जहाँ वह अपनी ‘बिना मेडीगाट की साइकिल’ से आया करते थे । यह साइकिल वर्षो बरष उनके पास देखी जाती रही थी । उनके संगी-साथी मजाक उड़ाते हुए अक्सर कहते थे कि ‘इनके मरने के बाद इस वाहन को संग्रहालय में रखकर सरकारी संपत्ति घोषित कर दिया जायेगा ।’ सो यह मास्टर मलिखान सिंह हमारे पहले अकादमिक गुरू बने । मलिखान सिंह मास्टर साब के साथ मेरी जो यादें जुड़ी हैं, वह उनकी जीवनी नहीं बल्कि मेरे बालमन पर खिची कुछ धुँधली रेखाएँ ही हैं । कुछ मीठी तो कुछ नटखटपन लिए हुई सी । चूँकि मलिखान सिंह मास्टर साब गाँव-गिराँव के रिश्ते से मेरे बाबा