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Showing posts from September, 2019

साहित्य के बने बनाए ढ़ाँचे को अस्वीकारती ‘गंठी भंगिनियाँ’ 

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पुस्तक : गंठी भंगिनिया लेखक : सुनील मानव विधा : कथा-पटकथा प्रकाशक : अनुज्ञा बुक्स, नई दिल्ली संस्करण : 2019 (प्रथम) मूल्य : रु. 200 (हार्ड बाउंड) ‘गंठी भंगिनियाँ’ सुनील मानव नई कृति है जो साहित्य रूप के बने-बनाए ढ़ाँचे को अस्वीकारती है । अस्वीकार का कारण केवल नवीनता-प्रकाशन की आकाँक्षा नहीं है, बल्कि अपनी अनुभूतियों को प्रमाणिक रूप में व्यक्त करने की चेष्टा भी है ।कई बार साहित्य-रूप के आग्रह के कारण अनुभूतियों को अपने वास्तविक रूप से हमें लेखन के दौरान अलग करना पड़ता है । लेखक का ध्यान मुख्य रूप से इसी बिन्दु पर केन्द्रित था । अत: पूर्व निर्धारित ढ़ाँचे से इसमें अन्तर आना स्वाभाविक भी था और आवश्यक भी । यह कहना लाज़मी है कि यदि यह पुस्तक केवल पटकथा, कथा, संस्मरण और रिपोर्ताज के रूप में होती तो निश्चय ही अपनी प्रभावान्विति का बहुलांश खो देती और एक विशेष प्रकार की कृत्रिमता इस पर हावी हो जाती । लेखक ने रचना को उससे बचाया है जिसे चाहे तो लेखक की एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि कह सकते हैं । लेखक, लेखक होने की अह्मन्यता से मुक्त है । उसे अपनी सीमाओं का ध्यान भी है । स्वयं उसी के शब्दों में

समाज की मानसिक विकृति का चित्रण है ‘गंठी भंगिनियाँ’ : संतोष कुमार 

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‘गंठी भंगिनियाँ’ कृति में वर्णित कथा का एक छोर यदि ग्रामीण भारत के उस सामन्ती सोच वाले समाज की मानसिक विकृति का चित्रण करता है जो दलित समुदाय को पीढ़ी दर पीढ़ी अपना गुलाम बनाए रखता है तो उन दलितों में भी दलित परिवार की मनोदशा का चित्रण करता है जो भूख के लिए दूसरों के घरों की जूठन खाने को भी अति संघर्ष करता है । अति दलित समुदाय की सामाजिक उपेक्षा को स्वर देना ही इस कथा-पटकथा का उद्देश्य है । सामाजिक उपेक्षा का शिकार यह दलित समुदाय न तो उपेक्षा के दलदल से निकलने का प्रयास करता है और न ही अपने मानवीय अस्तित्व की पहचान के लिए कटिबद्ध होता है । प्रतिदिन सवर्णों की गालियाँ खाना जैसे उनकी नियति ही बन गई है ।  धार्मिक अंधविश्वास वाले इस समाज में हर अवसर पर दादी (गंठी) और बाबू की जरूरत पड़ती है – चाहें शादी हो, जन्मोत्सव हो या फ़िर गाँव की पूजा हो । लेकिन पारिश्रमिक के रूप में उन्हें कुछ अनाज, कुछ पैसे, बताशों का भुरकुन ही मिलता है, क्योंकि यह उनकी गुलामी का प्रतीक है न कि उनके श्रम से जुड़ा हुआ व्यवसाय । इसीलिए उन्हें तरह-तरह की उपाधियाँ मिलती रहती हैं । “तुम नीच जाति के लोगों की नीयत ठीक न