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Showing posts from May, 2018

पुस्तक : भारतीय सिनेमा का सफरनामा संकलन एवं संपादन : जयसिंह विधा : समीक्षा प्रकाशक : प्रकाशन विभाग, नई दिल्ली संस्करण : 2013 मूल्य : रु. 280 (पेपरबैक)

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प्रकाशन विभाग से प्रकाशित और जयसिंह द्वारा संपादित यह पुस्तक भी सिने इतिहास की गहन पड़ताल करती हुई जान पड़ती है । ‘अपने सौ साल के सफर में भारतीय सिनेमा जन-जन की धड़कन का साक्षी रहा है । भाषा, क्षेत्र और धर्म-जाति के दायरों को पार करते भारतीय सिनेमा के विस्तार ने मानव मन के हर मनोभाव को समेटा है, अभिव्यक्ति दी है-हर सपने को रूप दिया है । सौ साल के इस दौर में विषय-वस्तु, पटकथा, गीत, संगीत, नृत्य से लेकर तकनीक तक अनेक और अद्भुत प्रयोग हुए हैं । सिनेमा आज कलात्मक अभिव्यक्ति का सबसे सशक्त और विश्व-व्यापी माध्यम बन गया है । सिनेमा के शताब्दी-विस्तार को समेटती इस पुस्तक में सिने-जगत के शिखर-व्यक्तियों और पत्रकारों की उम्मीदों, विचारों और चिंताओं को समेटा गया है ।’ (इसी पुस्तक से) इस पुस्तक की एक बड़ी विशेषता यह कि इसमें संकलित सामग्री को अधिकांशत: सिनेमाई जगत के लोगों द्वारा ही लिखा गया है । दूसरे यह पुस्तक क्षेत्रीय सिनेमा के विस्तार से अपने वजूद में समेटे हुए है । पुस्तक को मुख्य रूप से पाँच खण्डों में बाँटा गया है । पहले खण्ड में ‘निर्देशकों की नजर से’ सिनेमा को जाँचा-परखा गया है । इस संब

'एक था मोहन' को पढते हुए ...

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वर्तमान में गाँधी को महशूस करना बड़ा जोखिम भरा काम है । बावजूद इसके मुझे वर्ष 2017 की कुछ बेहतरीन किताबों में ‘एक था मोहन’ लगी । प्रासंगिक और मनोवैज्ञानिक किताब, क्योंकि यह किताब उस जड़ को मज़बूती प्रदान करती है जिस पर विचारों का एक बड़ा दरख्त खड़ा होना है ।  आज समाज में हर ओर अलगाव और घृणा अपने चरम की ओर तेजी से बढ़ रही है लेकिन यदि अलगाव और घृणा का विरोध अगर इन्हीं हथियारों से करेंगे तो यह चुनौतियाँ और भी गंभीर रूप धारण करेंगी । इनका विरोध इनकी विपरीत हथियारों से किया जा सकता है । लोगों के अंदर जो नफरत, घृणा, द्वेष है वह प्रेम, सत्य, अहिंसा के द्वारा ही मिट सकता है । नफरत की आग को नफरत से नहीं बुझाया जा सकता । वो बुझेगी सत्य, प्रेम, सद्भाव से । एक दूसरे के पास आने से । दूर होने से अलगाव बढ़ेगा । जब दोनों पास आएंगे तब मानवता का आधार सबल होगा । आशांत मन को शांति मिलेगी । सत्य को शक्ति और हिंसा को मिलेगी हार, अधर्म को शिकस्त और फिरकापरस्ती को करारा झटका । इस पूरे भाव को ‘एक था मोहन’ पुस्तक इतनी सहजता से कह जाती है कि किशोरवय, जिसके लिए यह पुस्तक लिखी गई है, स्वयं से तर्क करने को मज़बूर

पत्रिका ....... जो भरती है ताकत

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दलित अस्मिता का पच्चीसवाँ अंक मेरे सामने है । मैं सोच रहा हूँ उस अंक के बारे में, जिसमें गाँव के रिस्ते की मेहतर दादी पर मेरा शब्दचित्र ‘गंठी भंगिनियां’ प्रकाशित हुआ था । पहली बार मेरे बापू (पिता जी) ने ‘दलित अस्मिता’ को इस शर्त पर पढ़ा था कि ‘केवल तुम्हारा शब्दचित्र ही पढ़ूंगा . . . और कुछ पढ़ने को मत कहना . . .’ । लेकिन यह संभव न हो सका । उन्होंने पहले मेरा शब्दचित्र पढ़ा (मेरी हर रचना के पहले अथवा द्वितीय पाठक पिता जी ही होते हैं ) फिर अपनी शर्त को भूलते हुए पूरी पत्रिका । (संभवत: वह खुद को रोक न सके हों !) सवर्ण परिवार में जन्मने के बावजूद भी मेरा चिंतन जनपक्षधरता को लेकर रहा है, जिसे लेकर बापू व परिवार से कई बार टकराव भी हुआ । सनातन संस्कारों के पोषक बापू के बारे में कभी सोचा नहीं था कि उनके चिंतन का स्वरूप कभी बदलेगा भी, लेकिन ऐसा हुआ ! मेरे लिए यह एक बड़ी घटना थी कि दलित अस्मिता का संयुक्तांक (14-15) पढ़ने के बाद उनके अंदर इस विचारधारा को और गहराई से समझने की जिज्ञासा जागृत हुई । इसके बाद तो उनके सनातनी मन ने ऐसी गति पकड़ी कि उनके पढ़ने और चिंतन करने का स्वरूप ही बदल गया ।