'एक था मोहन' को पढते हुए - सुनील
वर्तमान में गाँधी को महशूस करना बड़ा जोखिम भरा काम है । बावजूद इसके मुझे वर्ष 2017 की कुछ बेहतरीन किताबों में ‘एक था मोहन’ लगी । प्रासंगिक और मनोवैज्ञानिक किताब, क्योंकि यह किताब उस जड़ को मज़बूती प्रदान करती है जिस पर विचारों का एक बड़ा दरख्त खड़ा होना है ।
आज समाज में हर ओर अलगाव और घृणा अपने चरम की ओर तेजी से बढ़ रही है लेकिन यदि अलगाव और घृणा का विरोध अगर इन्हीं हथियारों से करेंगे तो यह चुनौतियाँ और भी गंभीर रूप धारण करेंगी । इनका विरोध इनकी विपरीत हथियारों से किया जा सकता है । लोगों के अंदर जो नफरत, घृणा, द्वेष है वह प्रेम, सत्य, अहिंसा के द्वारा ही मिट सकता है । नफरत की आग को नफरत से नहीं बुझाया जा सकता । वो बुझेगी सत्य, प्रेम, सद्भाव से । एक दूसरे के पास आने से । दूर होने से अलगाव बढ़ेगा । जब दोनों पास आएंगे तब मानवता का आधार सबल होगा । आशांत मन को शांति मिलेगी । सत्य को शक्ति और हिंसा को मिलेगी हार, अधर्म को शिकस्त और फिरकापरस्ती को करारा झटका । इस पूरे भाव को ‘एक था मोहन’ पुस्तक इतनी सहजता से कह जाती है कि किशोरवय, जिसके लिए यह पुस्तक लिखी गई है, स्वयं से तर्क करने को मज़बूर