Posts

Showing posts from 2018

'एक था मोहन' को पढते हुए - सुनील

Image
वर्तमान में गाँधी को महशूस करना बड़ा जोखिम भरा काम है । बावजूद इसके मुझे वर्ष 2017 की कुछ बेहतरीन किताबों में ‘एक था मोहन’ लगी । प्रासंगिक और मनोवैज्ञानिक किताब, क्योंकि यह किताब उस जड़ को मज़बूती प्रदान करती है जिस पर विचारों का एक बड़ा दरख्त खड़ा होना है ।  आज समाज में हर ओर अलगाव और घृणा अपने चरम की ओर तेजी से बढ़ रही है लेकिन यदि अलगाव और घृणा का विरोध अगर इन्हीं हथियारों से करेंगे तो यह चुनौतियाँ और भी गंभीर रूप धारण करेंगी । इनका विरोध इनकी विपरीत हथियारों से किया जा सकता है । लोगों के अंदर जो नफरत, घृणा, द्वेष है वह प्रेम, सत्य, अहिंसा के द्वारा ही मिट सकता है । नफरत की आग को नफरत से नहीं बुझाया जा सकता । वो बुझेगी सत्य, प्रेम, सद्भाव से । एक दूसरे के पास आने से । दूर होने से अलगाव बढ़ेगा । जब दोनों पास आएंगे तब मानवता का आधार सबल होगा । आशांत मन को शांति मिलेगी । सत्य को शक्ति और हिंसा को मिलेगी हार, अधर्म को शिकस्त और फिरकापरस्ती को करारा झटका । इस पूरे भाव को ‘एक था मोहन’ पुस्तक इतनी सहजता से कह जाती है कि किशोरवय, जिसके लिए यह पुस्तक लिखी गई है, स्वयं से तर्क करने को मज़बूर

पुस्तक परिचय - 40 पुस्तक : लोकवादी तुलसीदास लेखक : विश्वनाथ त्रिपाठी विधा : आलोचना प्रकाशक : राधाकृष्ण, नई दिल्ली संस्करण : 2007 मूल्य : रु. 195 (हार्डबाउंड)

Image
हिन्दी में विविधता के विचार से तुलसी जैसा दूसरा कवि संभवत: नहीं ही है । आपने भारतीय जनता का वास्तविक अर्थों में प्रतिनिधित्त्व किया । तुलसी पर कई पुस्तकों में यह पुस्तक मुझे अत्यंत प्रिय लगी । भाषा और भाव दोनों स्तरों पर । लेखक ने तुलसी के राम को धर्म संस्थापक के स्थान पर भारत की विविधता के रूप में देखा । अपने समय के वातावरण को राम के चरित्र का आधार बनाया । कलियुग और रामराज्य के मिथकी नवीन परिभाषा स्थापित की और तुलसी की कविताई को नई पहचान दी । इस पुस्तक की सबसे बड़ी उपलब्धि आलोचक राजेन्द्र यादव द्वारा इसकी सराहना है । राजेन्द्र यादव का उक्त पत्र जो पुस्तक में संकलित है, प्रस्तुत करता हूँ, जिससे पुस्तक की गंभीरता आपके समक्ष अधिक स्पष्ट होगी । राजेन्द्र यादव लिखते हैं – “हिन्दी के पुराने कवियों में जो कवि मेरे मन में तीव्र विरक्ति और गहरी अरुचि जगाते हैं, उनमें तुलसीदास का नाम सबसे ऊपर है । सच ही, रामचन्द्र शुक्ल से लेकर रामविलास शर्मा तक की विह्वल, गद्गदीयता मेरी ‘समझ’ में नहीं आती । सारे दार्शनिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक आतंक के बावजूद मुझे वे अन्धविश्वास, रूढ़िवादिता, भदेसपन और अपरिवर

पुस्तक : मैं बोरिशाइल्ला लेखक : महुआ माजी विधा : उपन्यास प्रकाशक : राजकमल पेपरबैक्स, नई दिल्ली संस्करण : 2007 मूल्य : रु. 195 (पेपरबैक)

Image
बंगलादेश के अभ्युदय पर लिखा गया एक बेहतरीन उपन्यास है यह । ‘बोरिशाल के एक पात्र से शुरू हुई यह कथा पूर्वी पाकिस्तान के मुक्ति संग्राम और बांग्लादेश के रूप में एक नए राष्ट्र के अभ्युदय तक ही सीमित नहीं रहती बल्कि उन परिस्थितियों की भी पड़ताल करती है, जिनमें साम्प्रदायिक आधार पर भारत का विभाजन हुआ और फिर भाषायी तथा भौगोलिक आधार पर पाकिस्तान टूटकर बांग्लादेश बना । समय तथा समाज की तमाम विसंगतियों को अपने भीतर समेटे यह एक ऐसा बहुआयामी उपन्यास है जिसमें प्रेम की अंत:सलिला भी बहती है तथा एक देश का टूटना और बनना भी शामिल है । यह उपन्यास लेखिका के गम्भीर शोध पर आधारित है और इसमें बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के दौरान पाकिस्तानी सैनिकों तथा उर्दूभाषी नागरिकों द्वारा बांग्लाभाषियों पर किए गए अत्याचारों तथा उसके जबर्दस्त प्रतिरोध का बहुत प्रामाणिक चित्रण हुआ है ।’ बकौल कृष्णा सोबती ‘इसने हिन्दी में तथ्य आधारित रचनाशीलता को नया श्वरूप और विस्तार दिया है ।’ राजेन्द्र यादव का कहना है कि ‘महुआ माजी का यह उपन्यास बांग्लादेश के मुक्ति-संग्राम और एक नए राष्ट्र क अस्तित्त्व में आने की कहानी है । इसे कहने

नदी : मेरी आत्मा हो तुम

Image
#सेव गोमती# अभियान, मोहम्मदी के साथियों को समर्पित जो तन मन और धन से गोमती के अस्त्तिव रक्षा में लगे हुए हैं : सुनील मानव । मेरे सपनों में, पिछली कई रातों से एक नदी आती है । ह्ंसती मुस्कुराती मचलती खिलखिलाती और स्वप्न के अंत को रसहीन बनाती हुई-सी पानी की छलछलाहट में तैरता कूदता फांदता और गोते लगाता हुआ-सा मैं खोने लगता हूँ नदी की जलविहीन धारा में (पागलों की भांति मचलता हुआ) एकाएक सूख चुका-सा जल मेरे अंदर भर देता है रेत-सा खुरदुरापन और नदी की सजीवता का मृत हो चुका-सा एक चित्र । मेरे बचपन की वह नदिया जिसमें तैरा करती थी मेरी कल्लो भैंस और भैंस की पीठ पर औंधे मुंह लेटा हुआ-सा मेरा वजूद पानी की वह छलछलाती बूंदें और कीचड के सूख चुके दाग मेरी आत्मा की अनंत गहराइयों पर चिपक गए हैं । जैसे चिपका करती थीं कल्लो भैंस की गर्दन के नीचे छोटी और सफेद-सी मटमैली और घृणास्पद एक किलनी । मेरे बचपन की वह नदी जो मेरी दादी की अनगिनत कहानियों का सजीव रूप हुआ करती थी अब मेरे गले और आत्मा में चिपकी हुई है । मेरी आत्मा में बहने वाली नदी की कलकलाहट सूख चुकी है जैसे सूख

वॉइट टाइगर की तलाश

Image
‘वॉइट टाइगर’ की तलाश तो महज उस रोमांचक सफर का प्रेरणा बिन्दु बना, असल किस्सा तो पिछले सात-आठ सालों से पक रहा था । अचानक प्रोग्राम बना और हम निकल पड़े । बात उन दिनों की है जब मैं शाहजहाँपुर में रहता था । पोस्टग्रेजुएट के समय जब शाहजहाँपुर के रंगमंच पर किताब लिखने का कार्य आरम्भ किया तो सामग्री और बिखरे पड़े इतिहास की खोज के दौरान मेरी मुलाकात डॉ. प्रशांत अग्निहोत्री से हुई । वह शाहजहाँपुर के ही दूसरे महाविद्यालय ‘स्वामी सुकदेवानंद महाविद्यालय’ में असिस्टेंट प्रोफेसर थे । पढ़ने-लिखने में गहरी रुचि वाले डॉ. प्रशांत से ज्यों-ज्यों मुलाकातें बढ़ती गईं, हमारे बीच एक रिस्ता बनता गया । उनकी रुचि गीत लेखन के साथ-साथ क्षेत्रीय इतिहास में खूब थी, जो मेरे रिस्ते की मज़बूत कड़ी बनी । हम कई बार क्षेत्र के सुदृढ़ इतिहास पर खूब देर तक बातें करते थे । इसी सिलसिले में एक बार मेरा उनसे जिक्र हुआ कि ‘मेरे घर के पास में एक स्थान है ‘माती’, जो ऐतिहासिक राजा बेन के नाम पर विख्यात है ।’ उनको पहले से इस स्थान की कुछ-कुछ जानकारी थी । जब उन्होंने मुझे उस क्षेत्र के पास का रहने वाला समझा तो उनकी वहाँ जाने की उत्सुकता