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Showing posts from May, 2023

औरत, लेखन और शराब

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पुस्तक हाथ में आते ही पढ़ ली जानी चाहिए, अन्यथा रैक में आपकी रहनुमाई का इंतज़ार करती रहती है । मेरा प्रयास रहता है कि पुस्तक हाथ में आते ही पढ़ ली जाए, बावजूद इसके कई महत्त्वपूर्ण पुस्तकें बिना पढ़े रह जाती हैं और अपनी बारी का वर्षों इंतज़ार करती रहती हैं । एक ऐसी ही पुस्तक है 'औरत, लेखन और शराब' ।  भाई शराफत अली खान की यह पुस्तक वर्ष 2018 में मेरे पास आई । दो-तीन शीर्षक पढ़ भी डाले थे पर पूरी न पढ़ पाई । आज रैक की सफाई करते हुए सामने कूद पड़ी तो सभी काम किनारे कर पढ़ भी डाली ।  शराफत अली खान की यह पुस्तक लेखकों / रचनाकारों की कुछ विशेष आदतों का विश्लेषण करती है, जिससे उक्त लेखकों / रचनाकारों की एक विशेष पहचान बनी । फ्रायड ने कहीं लिखा था कि 'कला दमित वासनाओं से ही अपना स्वरूप विकसित करती है ।' कष्ट, निर्धनता और परेशानी से ही भाव बाहर आते हैं । पैसे के प्रति आकर्षण साहित्य की आत्मा को खोखला कर देता है । प्रेमचंद ने कहा भी है कि 'जिन लोगो को धन-संपत्ति के प्रति आकर्षण है उनके लिए साहित्य में कोई स्थान नहीं है ।' भुवनेश्वर, निराला, प्रेमचंद, मंटो आदि कभी कालजयी लेखन न कर

तुम्हारी औकात क्या है पियूष मिश्रा

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तुम्हारी औकात क्या है पीयूष मिश्रा : पीयूष मिश्रा इस किताब को केवल ‘आरंभ है प्रचंड’ गीत की पृष्ठभूमि को समझने के लिए पढ़ना आरंभ किया था, कुछ फिल्मों में उन्हें एक अभिनेता के रूप में देखने से अधिक कोई परिचय नहीं था । किताब क्या उठाई, पागलपन के चरम पर पहुंचता चला गया ।  बहुत कम आत्मकथाएं पूरी ईमानदारी, पूरी सपाटबयानी के साथ लिखी जा रही हैं । इस किताब ने अंदर तक झकझोर दिया । बने-बनाए उत्स तोड़ डाले । ग्वालियर से लेकर मुंबई तक के सफर का संघर्ष किसी भी व्यक्ति को तोड़ के रख सकता है, इस बंदे ने खुद को बचाया । महज बचाया ही नहीं बल्कि खुद को बुना और सँजोया भी ।  आत्मकथाओं में सबसे अधिक फरेब होता है । हमेशा पढ़ने के बाद मुझे लगता रहा । कुछ-एक को छोड़ दिया जाए तो । इस किताब ने उस धारणा को ठेंगा दिखाया । पीयूष मिश्रा ने अपने जीवन के संघर्ष को, अपनी कमियों को, अपनी बत्तमीजियों को, अपने प्रेम को, शराब-सिगरेट की लत को बड़ी ही स्पष्टता के साथ प्रस्तुत किया है ।  मुंबई में स्टारडम पाले हुए स्ट्रगलर्स को अथवा थियेटर कर रहे नौजवानों को अथवा जीवन के किसी भी प्रकार के संघर्ष से जूझ रहे व्यक्ति को यह किताब अवश्य

हस्ती नहीं मिटती

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सिनेमा के पिचहत्तर वर्ष पूरे होने पर शरद दत्त द्वारा इससे पूर्व में समय-समय पर लिखे गए लेखों का यह संकलन ‘सिने-इतिहास’ के वह सुनहले पन्ने हैं, जिनमें सिनेमा का स्वर्णिम इतिहास उसकी उठा-पटक के साथ पाठकों से रूबरू होता है । सिनेमा के पिचहत्तर वर्षों का सर्वेक्षण करती हुई यह लेखमाला इस पुस्तक में आने से पूर्व सन् 1988 में ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ के दो अंकों में प्रकाशित हो चुकी थी । बकौल फ्लैप ‘स्फुट लेखों का संकलन होते हुए भी पुस्तक एक सुनियोजित इतिहास जैसी बन गई है, जिसमें हिंदी सिनेमा के महत्त्वपूर्ण स्तंभों-निर्देशकों, संगीतकारों, गीतकारों, कलाकारों तथा पार्श्वगायकों के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है । हिन्दी सिनेमा के स्वर्णयुग में दिलचस्पी रखने वाले पाठकों के लिए यह एक उपयोगी तथा ज्ञानवर्धक पुस्तक सिद्ध होगी, ऐसा मेरा विश्वास है ।’ शरद दत्त सिनेमा पर गंभीरता से लिखने वाले अपने समय के, मेरी समझ के एकमात्र लेखक ठहरते हैं । आपने सिनेमा को गहराई से परखा और उसकी संगतियों / असंगतियों को बड़े ही संतुलन के साथ अपने शब्दों में प्रस्तुत किया । सिनेमा पर आपके लेखन को पढ़ना सिनेमा की एक

थियेटर के सरताज पृथ्वीराज

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पृथ्वीराज कपूर का नाम लेते ही एक ऐसी रोबीली तस्वीर मनोमस्तिष्क में उभरती है और विस्तृत होकर शहंशाह अकबर का एक ऐसा व्यक्तित्त्व गढ़ती है कि पूरा भारतीय परिवेश उसमें समाहित हो जाता है । यह पुस्तक इन्हें पृथ्वीराज के अंतरंग योगराज के संस्मरण के रूप में लिखी गई है । लेखक ने पृथ्वीराज के साथ बिताए पलों और संबंधों को बड़ी ही सूक्ष्मता के साथ इस पुस्तक में प्रस्तुत किया है ।  पृथ्वीराज कपूर लेखक योगराज के पिता के बड़े घनिष्ट मित्र थे । लेखक के अनुसार ‘इस बहुरंगी और आकर्षक व्यक्त्तित्व की चर्चा हमारे घर में बड़े सम्मान से हुआ करती थी ।’  यह अंतरंगता ही इस पुस्तक की आधार्शिला बनी, जहाँ से लेखक योगराज ने पृथ्वीराज को करीब से देखने, समझने का प्रयास आरम्भ किया ।  बकौल फ्लैप ‘यह पुस्तक कलाकार पृथ्वीराज कपूर तथा उनके ताजमहल ‘पृथ्वी थियेटर’ के अंतरंग एवं बहिरंग की दिलचस्प और सच्ची दास्तान है । पारसी और यथार्थवादी थियेटर के सार्थक समन्वय से एक नई एवं प्रासंगिक रंग-दृष्टि की सृष्टि करने वाले उस रंग-पुरुष और उसके नाट्‍य-दल की ज़बर्दस्त जद्दोजहद, हार-जीत, उपलब्धियों और त्रासदियों का आँखों देखा जिन्दा इतिहास इ

ऋतु आए ऋतु जाए

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यह पुस्तक हिन्दी फिल्म जगत में फिल्मी संगीत के जन्मदाता कहे जाने वाले व्यक्तित्व अनिल विश्वास की शरद दत्त की जीवन यात्रा है । बकौल फ्लैप ‘उस समय के सुप्रसिद्ध फिल्म-समीक्षक तथा ‘फिल्म इंडिया’ पत्रिका के संस्थापक-संपादक बाबूराव पटेल के शब्दों में, अनिल विश्वास हिंदी फिल्म-संगीत को स्वतंत्र व्यक्तित्व सौंपने वाले पहले संगीत-निर्देशक हैं । उन्होंने फिल्म-संगीत को मराठी नाट्‍य एवं भक्ति-संगीत के सर्वग्रासी प्रभाव से मुक्त किया और शास्त्रीय तथा लोक-संगीत की सहायता से फिल्म-संगीत की एक ऐसी परंपरा को जन्म दिया, जो उनके समकालीन तथा परवर्ती संगीतकारों के लिए प्रेरणा का स्रोत बन गई ।’ सर्वोत्तम लेखन के लिए वर्ष 2002 के राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित यह पुस्तक संगीत जगत के पुरोधा और संगीत के भीष्म पितामह कहे जाने वाले एक ऐसे व्यक्ति की जीवन यात्रा है, जिसमें संगीत के साथ-साथ बदलता हुआ ‘दौर’ जीवंत-सा लगने लगता है । शरद दत्त के उत्कृष्ट लेखन ने पुस्तक को ऊँचाई प्रदान की है, वह अत्यंत सराहनीय है ।  साढ़े तीस सौ पृष्ठ की इस पुस्तक को तीन प्रमुख खण्डों में बाँटा गया है । जीवन-यात्रा, संगीत-चिंतक

पटकथा लेखन की यांत्रिकता

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'पटकथा’ यानि कि ऐसी कथा जो ‘पट’ अर्थात् पर्दे पर दिखाई जाए । यह कथा ही सिनेमा की जान होती है । जब हम किसी कहानी को पढ़ते हैं तो हमारे दिमाग में बिंबात्मकता प्रकट होती है । पटकथा लेखक इसी बिंबात्मकता को पर्दे पर दिखाने के अनुसार लिखता है ।  आज फिल्म के विभिन्न क्षेत्रों की भाँति युवक पटकथा लेखन के क्षेत्र में भी हाथ आजमा रहे हैं । इस क्षेत्र में पटकथा लेखन की यांत्रिकी सीखने की सबसे बड़ी दिक्कत आती है । अधिकांश युवाओं के पास अपने आस-पास से लेकर अन्य प्रकार की कोई न कोई कहानी होती है । जिसे लेकर वह निर्देशकों ? फिल्मकारों के पीछे-पीछे दौड़ते रहते हैं । कई बार सबसे बड़ी दिक्कत यह आती है कि निर्देशक अथवा फिल्मकार के समक्ष अपनी कथा को सही से प्रस्तुत न कर पाने के कारण अच्छी-अच्छी कहानियों का भी कोई लेनदार नहीं होता है । फिल्मकार के पास इतना समय नहीं होता है कि बड़ी-बड़ी कहानियाँ पढ़ता फिरे । उसे चाहिए कम समय में एक अच्छा ‘थॉट’ । इसके लिए लेखक के पास पटकथा की यांत्रिकता का ज्ञान होना अत्यंत आवश्यक है ।  यूँ तो कई सारे ऐसे संस्थान हैं जो पटकथा लेखन सिखाते हैं, लेकिन सबका वहाँ जा पाना भी संभव नही

साहित्य का धूमकेतु भुवनेश्वर

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यूँ तो भुवनेश्वर ‘हँस’ के माध्यम से चर्चा में आए थे । उनकी कहानी ‘भेडिये’ ने साहित्य में उनकी पहचान धूमकेतु के समान कराई थी । तब हँस के संपादक प्रेमचन्द हुआ करते थे । इसके बाद राजेंद्र यादव ने हँस की कमान सँभाली और भुवनेश्वर को एक बार फिर स्वर मिला ।  प्रस्तुत पुस्तक ‘साहित्य का धूमकेतु भुवनेश्वर’ ने ‘हँस’ के स्वर को और भी गंभीरता से आगे बढ़ाया । संदर्श प्रकाशन, शाहजहाँपुर की इस पहल को चन्द्रमोहन दिनेश जैसे गंभीर संपादक का साथ मिला, जिसने भुवनेश्वर के भिन्न-भिन्न पहलुओं को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया । यह पहली ऐसी पुस्तक थी जिसने भुवनेश्वर को जन-जन तक पहुँचाया । उनकी दबी पड़ी हुई पहचान को प्रकाशित किया ।  इस पुस्तक में संपादक ने भुवनेश्वर के विविध पहलुओं को उनके समकालीनों के साथ-साथ उनको समझने वालों के माध्यम से प्रस्तुत किया ।  एक छोटे-से अभावग्रस्त शहर शाहजहाँपुर के अत्यंत सामान्य परिवार के भुवनेश्वर ने हिन्दी ही नहीं बल्कि विश्व साहित्य की मुख्य धारा में अपना नाम सुनिश्चित किया । प्रस्तुत पुस्तक की विषय-वस्तु ने इस बात को गहराई तक सिद्ध करने का प्रयास किया है ।  संस्मरण, आलोचना, प्र

भुवनेश्वर व्यक्तित्व और कृतित्व

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जब–जब भी नाटक, एकंकी अथवा रंगमंच की बात होगी तो उसमें भुवनेश्वर का जिक्र अवश्य ही होगा। जब-जब हिंदी एकांकियों का इतिहास लिखा जाएगा भुवनेश्वर के अवदान की चर्चा अनिवार्य रूप से होगी। भुवनेश्वर नाम उस व्यक्ति का है जिसने अपने छोटे से जीवन काल में लीक से अलग किस्म का साहित्य सृजन किया और आधुनिक एकांकियों के जनक होने का गौरव प्राप्त किया। एकांकी, कहानी, कविता, समीक्षा - कई विधाओं में भुवनेश्वर ने साहित्य को नए तेवर वाली रचनाएं दीं। इसी के साथ वे अपने क्रिया कलापों को लेकर जीवन काल में ही एक मिथ बन गए। भुवनेश्वर ‘समय से आगे के रचनाकार’ थे। शायद यही कारण था कि उन्हें जीवनकाल में वह महत्व नहीं मिल सका जिसके वह हकदार थे। और सच कहा जाए तो भुवनेश्वर का कृतित्व आज भी सच्चे मूल्यांकन की मांग कर रहा है। भुवनेश्वर ने जब लिखना आरम्भ किया वह सामाजिक संक्रमण का काल था। पुराने विश्वास, परंपराएँ, रूढ़ियां आदि टूट-बिखर रही थीं और नए मूल्य, तर्क और विवेक के सहारे अपने को स्थापित करने का प्रयास कर रहे थे। एक वर्ग रूढ़ियों के पुराने लबादे को जार-तार करने पर उतारू था तो दूसरा वर्ग उसमें आदर्श के पैब

लोग जो मुझमें रह गए : अनुराधा बेनीवाल

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हमारे बौद्धिक समाज में आए दिन कोई न कोई विमर्श होता रहता है । अत्यधिक बौद्धिक जुगाली के बाद वह निहायत खोखले ही मुझे अक्सर नज़र आए । अब चाहें वह दलित विमर्श हो, मुस्लिम विमर्श हो अथवा स्त्री विमर्श । सब एक तरफा विद्रोह की भावना से भरे हुए हैं । मानवीय समालोचना मुझे बहुत कम ही जगहों पर दिखी । ऐसे में अनुराधा की यह किताब स्त्री विमर्श को नए सिरे से व्याख्यायित करती नज़र आती है मुझे । स्पष्टता के साथ कहा जा सकता है कि यह किताब ‘स्त्री विमर्श’ को ध्यान में रखकर नहीं लिखी गई है । यहाँ लेखिका की यात्राओं के दौरान उसमें रह गए लोगों की अभिव्यक्ति मात्र है, लेकिन उसका अपना एक विशेष दर्शन है, एक विशेष शैली है और उस शैली का सहज प्रवाहित रूप है । यहाँ आप किसी विमर्श में नहीं फँसते हैं लेकिन जमाने से चले आ रहे विमर्श को सहज ही अपने अंदर समझा हुआ सा महसूस करने लगते हैं ।    ‘यायावरी आवारगी’ सीरीज की यह दूसरी किताब है अनुराधा की । यहाँ वह, बहुत कुछ है जो यात्रा विवरण की किताब ‘आजादी मेरा ब्रांड’ में कहने से रह गया था । वह लोग समाए हैं इसमें जो लेखिका की यात्रा में उसके अंदर रह गए ।  खुद लेखिका के अनुसार

चुप्पियों में खोते संवाद : माती की स्मृतियों से जूझता मन

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एक अजीब सी संवादहीनता बढ़ती जा रही है – घर में, परिवार में, गाँव में, समाज में ... और सबसे अधिक खुद में ... कहीं हुईं सामूहिक मौतों से उत्पन्न भयाक्रांत सन्नाटे–सी । यह शून्यता वर्षों पहले गांव में आई एक महामारी के समय महसूस हुई थी । आज हर एक जगह वही दिखती है । बेहद कोलाहल पूर्ण वातावरण में अवसाद-सी । कबीर पागल था । खाने और सोने वाली दुनिया को सुखिया कह गया । उसने रोने और जागने को खुद के लिए चुना । चुप्पियों ने यहीं से उभरना शुरू किया था ।    आज गोरू घर नहीं लौट रहे हैं । बचे ही नहीं । मुझे मेरे नाना याद आते हैं । सौ-एक जानवरों के पीछे, कंधे पर लाठी, शरीर पर उमंग मिश्रित श्रमबिन्दु और मुँह से झरता संवादों का सैलाब लेकर नदिया से शाम को वापस घर आ रहे हैं । मैं आज भी इस बिंब को दूर खड़ा निहार रहा हूँ ।  आसमान में एकाध पखेरू भर हैं वापस जाने भर को । वापस आने के लिए इंतजार का कोई आलंबन भी तो होना चाहिए । सब कुछ शांत है । सही कहा ‘लौटना मुश्किल होता है ।’ अंधेरा धीरे-धीरे घिर रहा है । वैसे तो बिलकुल नहीं जैसे निराला की ‘संध्या सुंदरी’ ‘परी सी उतरती थी धीरे धीरे धीरे ।’ यह एक भय है । मेरे अंदर