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Showing posts from March, 2017

रियलिज़्म को ज़मीन से जोड़ने वाली फ़िल्म है ‘चकल्लसपुर’

भारत को विश्व में सबसे अधिक फ़िल्म निर्माण करने वाले देशों में रखा जाता है । जितनी फ़िल्में भारत में बनती हैं, बहुत कम ही देशों में इतनी फ़िल्मों का निर्माण साल भर मे होता है । इधर पिछले दशक से भारतीय फ़िल्मों का ट्रेंड बदला है । फ़िल्ममेकरों के शब्दों में कहें तो वह ‘रियलिस्टिक’ अधिक हुई हैं । रियलिस्टिक बोलें तो ‘ज़मीन’ से जुड़ी हुई अर्थात् ज़मीन से जुड़े यथार्त् को कहने वाली फ़िल्में । न जाने कितनी ही फ़िल्में अलग-अलग रूपों में आईं और अपने-अपने तरीके से ज़मीन की हकीकत कहती हुई चली गईं, लेकिन शायद ही कोई फिल्म ऐसी आई हो जो ज़मीन के लोगों की जुबां पर अपनी उपस्थिति दर्ज कर पाने में सफल हो पाई हो ! सबमें फ़िल्मोनिया ही अधिक रही । गाँव का चित्रण हुआ, लेकिन गाँव करीब-करीब गायब ही रहा । यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि फ़िल्मों में ‘गाँव की छौंक’ ही अधिक देखने को मिली है । पहले की कुछ फिल्मों (नदिया के पार इत्यादि) को अपवाद श्वरूप छोड़ दिया जाए तो गाँव पर केन्द्रित ‘रियलिस्टिक’ फ़िल्मों से गाँव करीब-करीब गायब ही रहा है । इधर गाँव की मिट्टी में पले-बढ़े तमाम लड़के-लड़कियाँ थियेटर व सिनेमा की विधिवत पढ़ाई करक

जाति क्या होती है मिश्रा जी

जगमोहन साहब ने ऑफिस से आकर अभी खाना भी नहीं खा पाया था कि मिसेस श्रीवास्तव आ पहुँचीं । यूँ तो जगमोहन साहब को उनके आने का अंदाजा पहले से ही था, पर वो अभी आ पहुँचेंगी, इस बात का भान नहीं था । “. . . माफी चाहती हूँ सर मैं आपको डिस्टर्व करने आ पहुँची . . .” मिसेस श्रीवास्तव एक दिखावटी हँसी हँसीं तो जगमोहन साहब ने भी उसी प्रकार उनका साथ दिया । “. . . अरे सुनती हो . . . श्रीवास्तव मैम आई हैं . . .” अंदर को मुँह करके जगमोहन जी ने अपनी मोहतरमा को उनके आने की सूचना देने का अभिनय किया और मिसेस श्रीवास्तव जी को बैठने को कहकर अंदर चले गए । जगमोहन जी जब अंदर पहुँचे तो मिसेस ने बेढ़ंगा-सा मुँह बनाते हुए मिसेस श्रीवास्तव के बेटाइम आने पर आपत्ति दर्ज की तो जगमोहन जी ने भी कंधे उचकाते हुए अपनी दयनीयता व्यक्त कर दी । “. . . नमस्ते मैम . . .” मिसेस जगमोहन ने कमरे से ड्रॉइंगरूम में कदम रखते हुए मिसेस श्रीवास्तव का ध्यान अपनी ओर केन्द्रित किया । जगमोहन जी के कमरे में चले जाने के बाद मिसेस श्रीवास्तव बेटाइम आने की अपनी गलती को छुपाने के लिए जगमोहन जी के ड्रॉइंगरूम में अलमारियों में सजी किताब

बाल साहित्य क्या और क्यों

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साहित्य को लेकर ‘क्यों’ और ‘क्या’ का प्रश्न नया नहीं है; किन्तु बदले हुए परिवेश एवं संचार क्रांति के इस दौर में बच्चे की मानसिक स्थितियाँ बदल गई हैं । मनोरंजन के बदले साधन एवं मनोरंजन के इन उपकरणों के व्यापारिक रणनीतियों ने बालमस्तिष्क पर अपना अलग प्रभाव डाला है । बच्चों के पास आज मोबाइल, आईपैड, लैपटॉप जैसे साधन उपलब्ध हैं, जिनके माध्यम से वे मनोरंजन के साथ-साथ ज्ञान के विविध अनुशासनों से परिचित हो सकते हैं और अपनी जिज्ञासा का अधिकतम समाधान पा सकते हैं । समाधान की प्रामाणिकता को लेकर कुछ प्रश्न अवश्य खड़े होते हैं किंतु यह प्रश्न लिखित साहित्य में भी पीछा नहीं छोडता । थोड़ी-बहुत समस्याएँ वहाँ भी रहती ही हैं । इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता है । बालसाहित्य का विधिवत लेखन भले ही बीसवीं शताब्दी के दूसरे-तीसरे दशक से आरम्भ होता है और सातवें-आठवें दशक में जोर पकड़ता है । किंतु इसका इतिहास पुराना है । पंचतंत्र, हितोपदेश आदि की कहानियाँ बच्चों को प्रौढ़ ज्ञान कराने के उद्देश्य से लिखा गया साहित्य है । बालसाहित्य के औचित्य-अनौचित्य पर विचार करते समय परिवेश को भी दृष्टिपटल पर रखना होगा, क्य