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Showing posts from June, 2020

जी लूं वह जो रहा उधार

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#जी_लूं_वह_जो_रहा_उधार मन करता है इस बचपन को पा लूं फिर से उड़ जाऊं बिन पंखों के ही पंक्षी का अहसास साथ ले खेलूं गाऊं कूद-कूद जाऊं मैं  इस बचपन की बनूँ इबादत छोटे-छोटे बिंबो पर  लिखूं अमिट शब्दावलियाँ मैं मन करता है इस बचपन को पाकर फिर से  जी लूं वह जो रहा उधार . . .  सुनील मानव 15.08.2016

गाँव की बड़ी पूजा

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#जानिए_मेरे_गाँव_जगतियापुर_को : 55 #रच्छा_करिअउ_देवी_मइया . . .  गाँव में हजारों वर्षों की परम्परा थी #बड़ी_पूजा’ की और तभी से सुअर के दो बच्चों की बलि भी होती चली आई थी । पुजारी के सामने ही #मेठ’ दोनों बच्चों को #हसिए’ से काटता चला आ रहा था । सभी प्रसन्न । सभी उत्सव मनाते थे । वही हजारों वर्षों से । ... और हजारों वर्षों बाद मैं इस बलि में #अड़ंगा’ बन कर कूद गया था ।      मुझे गाँव की इस पूजा में यदि कोई दिलचस्पी नहीं थी तो उससे कोई गुरेज भी नहीं था । बल्कि मैं इस पूजा को गाँव के लिए कुछ अर्थों में सकारात्मक रूप में ही देखता था । कम से कम यह गाँव का एक ऐसा बड़ा अवसर था जब सभी एक साथ होते थे । एक साथ काम करते थे । काम की तैयारी करते थे । आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक रूप से एक प्लेटफ़ार्म पर खड़े होते थे । पर इस पूजा में #सुअर’ के दो बच्चों की हसिए से धीरे-धीरे काटकर जो नृसंस हत्या होती थी, उसने मुझे इस हत्या के विरुद्ध खड़ा होने के लिए मज़बूर कर दिया । मैं खड़ा हुआ और इस हत्या को रुकवा भी लिया । कुछ विरोध हुआ तो कई नौजवानों ने मेरा प्रत्यक्ष / अप्रत्यक्ष साथ भी दिया ।   हजारों सालों से चली आ रही

भगवतशरण अवस्थी

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#जानिए_मेरे_गाँव_जगतियापुर_को : 53 #बाबा_की_पुण्यतिथि_पर_स्मरण_करते_हुए बाबा को दुनिया से गए आज #पाँच_साल हो गए । गए क्या पूरा परिवार ही बिखरता चला गया । सबके स्वार्थ और परिस्थितियों ने ‘खुशियों के पूर’ रूपी परिवार को खंड-खंड कर दिया । इस खंडत्त्व में अधिकांश प्रसन्न भी हैं लेकिन मैं टूट गया और अपनी टूटन में घुटने लगा । खैर ! इसे कहीं अलग विस्तार दूंगा । यहाँ कुछ और संवेदनाएँ हैं, जिन्हें सहेजने का प्रयास है । आप चले गए । पाँच साल हो गए लेकिन ऐसा लग रहा है कि कहीं तीर्थयात्रा पर गए हैं । आते ही होंगे । बगिया में आपकी समाधि को गाँव में होने के दौरान दिन में एक-आध बार देखा आता हूँ दूर से, जिसमें मैंने अपने हाथों आपको बिठाया था । सन्यासियों की पूरी क्रियाविध से । यह आपका ही आदेश था । मैं और छोटे चाचा । साथ में उनके एक शिष्य । लग ही नहीं रहा था कि आप अब हमेशा के लिए समाधिस्ट हो रहे हैं । गहरे गढ्ढ़े में आपको बिठाकर । सभी कर्मकांड करने के बाद जब आपके शरीर को गलाने के लिए नमक भरा जा रहा था, बिलकुल ऊपर तक, सिर के ढकने तक भर जाने से एक पल पहिले तक यही लगता रहा कि आप उठेंगे । थोड़ा हिले-डुलेंगे औ

टेंढ़े बाबा

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# जानिए मेरे गाँव जगतियापुर को : 52 # सिब_भोलानाथ_देबन_मइं_महदेबा... हमारे बाबा के चचेरे भाई थे पं. रघुनंदन प्रसाद अवस्थी, जिन्हें कुछ झुककर चलने के कारण घर-परि वार से लेकर गाँव-गिराँव के उनके हमउम्र या उनके प्रति कुछ विद्वैष का भाव रखने वाले कुछेक लोग ‘टेढ़ें’ कहा करते थे । बावजूद इसके मेरे लिए वह निश्छल रूप से स्नेह देने वाले बाबा ही थे । बाबा के साथ मेरे परिवार का पारिवारिक द्वेष चलते रहने के बावजूद भी मेरे प्रति उनका प्रेम कभी कम न हुआ था । उनके स्वरूप का बिंब आज मेरे मस्तिष्क में भले ही अस्पष्ट हो गया हो लेकिन बाबा से जुड़ी कुछेक स्मृतियाँ उन्हें आज भी हमारे हृदय में बसाए हुए हैं । ‘धमार गीतों’ के संग्रह के दौरान जब-जब ‘सिब भोलानाथ, देबन मइं महादेबा’ गीत सामने आया तो हरिपाल बाबा पूरे उत्साह से बताने लगे थे कि ‘यह गीत तुम्हारे बाबा रघुनंदन प्रसाद जी के अतिरिक्त कोई और पूरे गाँव में नहीं गा पाता था, क्योंकि यह गीत धमार का सबसे बड़ा गीत था । उनके मरने के साथ ही इस गीत की गबंत भी समाप्त हो गई ।’ बाबा शिव भक्त थे । उनकी पूजा-आराधना से मैंने यह देखा ही था । इससे जुड़ी एक स

मटिकढ़ा

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# जानिए मेरे गाँव जगतियापुर को : 51 # हुअन_गियारह_मूड़_गड़े_हइं... ‘मटिकढ़ा बाले बरमबाबा’ से जुड़ी मेरी यादों पर बात करने से पहले इसके अर्थ को समझ लेना कुछ आवश्यक है । ‘मटि’ यानि की ‘माटी’ ‘कढ़ा’ यानि की ‘काढ़ना’ अर्थात् ‘निकालना’ बोलें तो वह स्थान जहाँ से मिट्टी निकाली जाती है । मेरे गाँव की सीमा का वह तालाब जहाँ से ग्रामीण अपने घरों को लीपने के लिए ‘पड़ोर’ निकाला करते थे । ‘पड़ोर’ मिट्टी अत्यधिक चिकनी होती है और अमूमन तालाबों में ही पाई जाती है । तालाबों में इसलिए क्योंकि बरसात आदि का जो पानी तालाबों में आता है, उसमें पाए जाने वाले मिट्टी के कुछ बड़े कण पानी के बहाव में बह जाते हैं जबकि अत्यधिक छोटे-छोटे जो कण होते हैं वह तालाब की तलहटी में बैठ जाते हैं । ग्रामीण इन्हीं एकत्रित कणों को ‘पड़ोर’ कहते हैं और तालाब में जब पानी कम होता है तभी उसे निकालकर अपने-अपने घरो में इकट्ठा कर लेते हैं । बाद में ‘चौकों’ यानि कि रसोईघरों की रोज-रोज की पुताई और कच्ची दीवारों की पुताई तथा आँगन आदि की लिपाई के लिए इसका प्रयोग किया जाता है । आँगन की लिपाई के समय इसमे

भूत

#जानिए_मेरे_गाँव_जगतियापुर_को : 50 #हाइ_दइया_माड्डारो ... आप मानें या न मानें आज से बीस-पच्चीस साल पहिले तक ‘भूत’ कभी न कभी हर किसी को मिलता ही रहा है । गाँव-गिराँव की लड़कियों-औरतों पर वह आज अभी आ जाता है लेकिन उस समय तो ये ‘भूत’ महराज हमारी रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा हुआ करते थे । बाद में जब गाँव-गाँव आइसर ट्रेक्टर आने लगे तो लोग उसकी आवाज से हँसी-ठिठोली करते हुए कहते ‘जबसे जहु सारो आइसरु आओ... जहने सब भूत भजाइ दे...’ एक बार मुझे भी ‘साक्षात भूत’ मिला । बड़ा मज़ेदार किस्सा है और ऐसे किस्से हम सभी के पास किसी न किसी रूप में हो सकते हैं ।  ...तो #भूत_का_किस्सा । उस समय मैं यही कोई छठी-सातवीं में पढ़ता रहा हूँगा । घर पर ट्रेक्टर था नहीं उस समय । दो बैल थे – भूरा और सफिदा । भूरा सीधा-साधा था तो सफिदा उसका विलोम । खूब खुराफ़ाती । प्रेमचन्द के हीरा-मोती जैसे । हूबहू । पूरी खेती-किसानी का भार इन पर ही था । बड़े चाचा बाहर नौकरी करते थे और छोटे चाचा बाहर पढ़ते थे । घर पर परमोद चाचा और बापू थे । बाबू वैद्य हैं । इसलिए किसानी का भार परमोद चाचा पर ही था । हाँ बापू मरीज़ों से फ़ुर्सत पाकर खेती-किसानी मे

#पर्यावरण_की_चिंता_का_बालसाहित्य

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ग्रामीण संवेदना और पर्यावरण एक-दूसरे के पूरक हैं । इसको लेकर साहित्य में खूब चिंता व्यक्त की गई है । बालसाहित्य में भी यह चिंता खूब दिखाई देती है । बालसाहित्यकार बंधु डॉ. (मो.) #अरशद_खान एवं डॉ. (मो.) #साजिद_खान की यह कविताएँ इस क्षेत्र में एक नवीन चित्र हमारे समक्ष प्रस्तुत करती हैं । आफ भी पढ़िए इन कविताओं और इनकी कविताई को ............. सुनील मानव । #सूना_सूना_सा_लगता_है_अब_नानी_का_गांव : डॉ.मो.अरशद खान ॥ आज भूमण्डलीकरण के दौर में गांव अपनी मूल संवेदना से अनायास ही कटते जा रहे हैं। गावों की प्रकृति के साथ ही वहाँ का मेल-मिलाप भी अब बदला-बदला लगने लगा है। वर्तमान की विषाक्त राजनीतिपूर्ण वातावरण ने गाँवों तक से उनकी उस संवेदना को उखाड़ फेंका है, जिससे गाँव के सब छोटे-बड़े एक डोर में बंधे रहते थे।   बाल साहित्यकार ने ग्रामीण संवेदना को बड़ी गहराई तक महसूस किया है। पिछले दस सालों से जब आज के गांव को देखता हूं तो बस यही दिखता है........   दूर-दूर तक हरा-भरा जो फैला था मैदान। लालाजी ने बनवा ली हैं, वहां कई दूकान। बनकर ठूंठ खड़ा है पीपल, जो देता था छांव। माली बाबा की फुलबारी सूख गई

वीडियो

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#जानिए_मेरे_गाँव_जगतियापुर_को : 49 #जह_वीडियोनि_गांवुंकि_एकताकु_नासु_कद्दो ... मैं बहुत छोटा ही था । इतना कि उस स्मृति को स्पष्ट रूप में याद नहीं कर पा रहा हूँ । बस कुछ धुंधलका-सा अंदर कहीं कुलबुला रहा है । गाँव में किसी के घर ‘लड़का’ जन्मा था । उस ‘लड़के’ के नामकरण यानि कि डस्ठौन पर पहली बार हमारे गाँव में ‘वीडियो’ आया था जिसमें चलते हुए चित्रों को देखकर कई लोग उत्साह और आश्चर्य से चीख पड़े थे ‘अरेउ अहिमा ता फ़ोटो चल्त हइं...’ बस फ़िर क्या था इस वीडियो ने गाँव के पुराने सभी मनोरंजन के साधनों को निगल लिया । एक ही बार में । एक ही झटके से । गाँव की संस्कृति रोई । थोड़ी गिड़गिड़ाई । वीडियो को तरस न आया । वह सीना ताने अपनी रंगीनी के आगोश में पूरे गाँव को लेता चला गया ।  स्थान था ‘अमिलिया तीर’, प्रबन्धक थे ‘बद्री दद्दा’ । मैलानी जाकर ‘लढ़िया’ से वे ही लाए थे इस वीडियो को । जिसने अपने लड़के के डस्ठौन पर वीडियो का यह आयोजन करवाया था, सीना फ़ुलाकर पूरे गाँव में अपनी ‘हिटलरी’ दिखा रहा था । लोग-बाग उसके नखरों को दुधारु जानवर-सा सहते हुए उसकी चापलूसी और मनुहार करने में लगे थे । बद्री दद्दा का अपना अलग ही जल

ज़मीन

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#जल_जंगल_और_ज़मीन_को_बचाने_की_जद्दोजहद : सुनील मानव #जंगल  एक समय था जब जंगल की हरीतिमा हमारे घरों तक समाई हुई थी लेकिन आज वह हमसे बहुत दूर होता चला गया । साथ ही दूर होती चली गई जीवन की हरियाली भी । जी हाँ मैं बात कर रहा हूँ उस जंगल की जहाँ हमने प्रकृति के साथ सामंजस्य बिठाकर जीना सीखा था । हमारे गाँव और क्षेत्र के पाँच किलोमीटर के परिक्षेत्र में खूब घना जंगल हुआ करता था जो आज सिमटकर हमसे काफ़ी दूर हो गया है । जो बचा भी है वह भी बाहर से देखने पर ठीक-ठाक सा लेकिन अंदर ही अंदर एकदम खोखला-सा होता चला जा रहा है । इसे खोखला करने का जिम्मेवार वहाँ के अधिकारियों / कर्मचारियों से लेकर आस-पास के हम सब निवासी भी हैं । हम अपने थोड़े से स्वार्थ और कुछ पैसे बचाने के कारण जंगल को खाए जा रहे हैं यह सोचे बगैर कि यह जंगल है तो हम हैं । इसके बिना हमारा कोई वजूद नहीं । हम ‘पीलीभीत’ के जिस तराई परिक्षेत्र से आते हैं उसकी बड़ी पहचान ही यह ‘जंगल’ रहा है । आज बेहिसाब से जंगल का कटान हो रहा है । लकड़ी माफ़ियाओं ने उसका रस चूस कर उसे अंदर ही अंदर खोखला कर दिया है । माफ़ियायों का पूरा तंत्र है जो जंगल के द

दिल में क्या झरना है !

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दिल में क्या झरना है !    मैंने जिस एक पात्र पर सबसे अधिक लिखा वह हैं ‘गंठी दादी’ । बार-बार लिखता रहा फ़िर भी हर बार कुछ न कुछ छूट ही जाता रहा । न जाने कितनी ऐसी बातें हैं जो लिखकर उठने के तुरंत बाद अंदर से उछलकर बाहर आ जातीं । खून के मतलबी रिश्तों से अलग न जाने ये कौन-सा रिश्ता है जिसकी संवेदनाएँ झरने-सी बह रही हैं । जब-जब दादी के बारे में सोचता हूँ या गाँव-गिराँव में उनके बारे में सुनता हूँ या देखता हूँ, हर बार कुछ नया सामने आ जाता है । एक नए स्वरूप में भी । अक्सर मुक्तिबोध की एक कविता की कुछ पंक्तियाँ याद हो आती हैं – “जाने क्या रिश्ता हैं, जाने क्या नाता हैं जितना भी ऊँड़ेलता हूँ भर-भर फिर आता हैं दिल में क्या झरना है? मीठे पानी का सोता हैं भीतर वह, ऊपर तुम मुसकता चाँद ज्यों धरती पर रात-भर मुझ पर त्यों तुम्हारा ही खिलता वह चेहरा हैं !” दादी के साथ जुड़ी मेरी संवेदनाओं पर आधारित शब्दचित्र ‘गंठी भंगिनियां’ लिखे आज करीब दस-बारह साल हो गए हैं । ‘दलित अस्मिता’ में ज्यौं का त्यौं छपा भी । बावजूद इसके न जाने क्या छूट गया था जो उसी शीर्षक से एक स्वतंत्र किताब के रूप में सामने आया

रेशमा बुआ

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#जानिए मेरे गाँव जगतियापुर को : 47 #जेहेइ_गांउ_मइको_जेहेइ_गांउ_ससुरो ...  #रेशमा_बुआ का माइका और ससुराल एक ही गाँव यानि कि मेरे गाँव जगतियापुर में ही है । बचपन में खूब आना-जाना रहा इनके यहाँ ।  इनका लड़का #मुनीष हमसे कुछ बड़ा है । उस समय वह पूरनपुर में पढ़ते और काम करते थे । वह जब भी घर आते खूब कॉमिक्स लाते थे । #अंगारा, #चाचा_चौधरी, #नागराज, #ध्रुव, #बाँकेलाल ... न जाने कितने चरित्र इन #कॉमिक्सों के सहारे बचपन में ही मेरे दिमाग में बिंध गए थे ।  हम मुनीष दादा से एक साथ कई-कई कॉमिक्स ले आते और घर में, बाग में या नहर पर जाकर चोरी-चोरी पढ़ा करते थे । कहना मुस्किल ही है कि उस दौरान कितनी कॉमिक्स पढ़ डाली होंगी ।  छठे-सातवें में था उस समय और कॉमिक्स का इतना शौक कि लोग आश्चर्य करते । आज अनुभव करता हूँ कि आज जो साहित्य लेखन में #बिंबात्मकता / #चित्रात्मकता या #प्रभावात्मकता का कुछ अंश मेरे अंदर है वह उस दौरान पढ़ी गई कॉमिक्सों का ही है जो आगे मैलानी में कक्षा नौ के समय तक अनवरत जारी रहा । हजारों कॉमिक्स छप गई थीं दिमाग में ।  रेशमा बुआ बड़ी कर्मठ रहीं अपनी उम्र में । घर के सारे कामों से लेकर किसी क