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नागार्जुन के निराला

हि न्दी साहिय में ‘छायावाद’ एक ऐसा कालखंड था, जिसमें भारतीय जनमानस स्वतंत्रता के लिए अकुला रहा था । हर क्षेत्र से ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ़ हुंकार भरी जा रही थी । इस कालखंड में जहां एक ओर भारतीय संस्कृति की विवेक परम्परा का तेज व्याप्त था तो वहीं दूसरी ओर विश्वचेतना से संपंन्न ज्ञान-विज्ञान को पाने और पचाने की असीम ललक विद्यमान थी । वास्तव में छायावाद अपने में एक नए प्रकार का काव्य था जो नवीन चित्त-वृत्तियों का संचय था । निराला इन्हीं नवीन चित्त्वृत्तियों के संचयन के मूर्तिमान हस्ताक्षर थे । निराला ने अपने समय-समाज का पर्यवेक्षण बड़ी ही सूक्ष्मता और गहराई से किया था । उन्होंने उस समय के उन मुखौटों को चेहरे से अलग किया था जो तत्कालीन रंगमंच पर कब्जा किए हुए थे । निराला ने और गहरे जाकर उस वास्तविक सच्चाई को छानने का प्रयत्न किया था जो तत्कालीन साहित्य की नज़रों से ‘बचती-सी’ जा रही थी; परन्तु ऐसे सूक्ष्मदर्शी कवि का वास्तविक मूल्यांकन साहित्य में जिस प्रकार से होना चाहिए था नहीं हो पाया । ऐसे में बाबा नागार्जुन द्वारा उनका मूल्यांकन अवश्य ही उन तमाम अनछुए बिन्दुओं पर प्रकाश डालता