एक बच्चे के प्रति ...
वह खड़ा था सेतु पर
किशोरावस्था की
बचपन से अछूता नहीं था
बस बढ़ रहा था धीरे-धीरे
माँ-बाप से अलग
छात्रावास में रहते हुए
अध्यापक ही थे उसके अभिवावक
उसको ऐसा ही बताया गया था
यह भाव मजबूत भी हो गया था उसके अंदर
पिता के सपनों का पुंज
लेकिन माँ के अहसास से दूर
उसका हृदय तड़प उठता था
माँ की धड़कन के साथ धड़कने को ।
. . .
छुट्टी के बाद
वापस लौटा था वह छात्रावास में
अपने पिता के साथ
पिता लाए थे अपने साथ
अपने सपनों का टूटा हुआ कांच
बच्चे का घर पहुँचा रिपोर्टकार्ड ।
बच्चे की योग्यता नहीं समा पाई थी
कागज के टुकड़ों में छपे उन अच्छरों में
पिता के सपनों का ‘दरका-सा’ महल हिल उठा था
दरके हुए सपनों के सामने कुछ तर्क
सान्त्वना में मुसकुराए –
‘कक्षा में नहीं आता था’
‘अच्छे बच्चों से दोस्ती नहीं की इसने’
‘अदर एक्टीविटी में लगा रहता है अक्सर’
और भी न जाने कितनी सान्त्वनाएं
बच्चे की कोमल संवेदना
और पिता के दरकते अरमानों के समक्ष
मुँह फैलाए तन खड़ी हुईं ।
भर आईं पिता की आँखें
एक सैलाब उमड़ आया
उनके टूटते हुए सपने
छलछलाने लगे उनकी आँखों मे