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एक बच्चे के प्रति ...

वह खड़ा था सेतु पर किशोरावस्था की बचपन से अछूता नहीं था बस बढ़ रहा था धीरे-धीरे माँ-बाप से अलग छात्रावास में रहते हुए अध्यापक ही थे उसके अभिवावक उसको ऐसा ही बताया गया था यह भाव मजबूत भी हो गया था उसके अंदर पिता के सपनों का पुंज लेकिन माँ के अहसास से दूर उसका हृदय तड़प उठता था माँ की धड़कन के साथ धड़कने को । . . . छुट्टी के बाद वापस लौटा था वह छात्रावास में अपने पिता के साथ पिता लाए थे अपने साथ अपने सपनों का टूटा हुआ कांच बच्चे का घर पहुँचा रिपोर्टकार्ड । बच्चे की योग्यता नहीं समा पाई थी कागज के टुकड़ों में छपे उन अच्छरों में पिता के सपनों का ‘दरका-सा’ महल हिल उठा था दरके हुए सपनों के सामने कुछ तर्क सान्त्वना में मुसकुराए – ‘कक्षा में नहीं आता था’ ‘अच्छे बच्चों से दोस्ती नहीं की इसने’ ‘अदर एक्टीविटी में लगा रहता है अक्सर’ और भी न जाने कितनी सान्त्वनाएं बच्चे की कोमल संवेदना और पिता के दरकते अरमानों के समक्ष मुँह फैलाए तन खड़ी हुईं । भर आईं पिता की आँखें एक सैलाब उमड़ आया उनके टूटते हुए सपने छलछलाने लगे उनकी आँखों मे

प्रसिद्ध कथाकार हृदयेश जी से कुछ गुप्तगू

सुनील ‘मानव’ : कहानी में राजनीति की कहाँ तक गुंजाइश है? क्या यह कहानी के लिए घातक है? हृदयेश : देखिये राजनीति में तो बहुत सी विचारधारायें हैं। जहाँ तक कि एक विचारतत्त्व की बात है वह कहानी के लिए आवश्यक है। और वह विचारतत्त्व जो है, उसमें सामाजिकता हो, मनुष्य को लेकर उसकी चिंता हो। अभी हमने जो एक नया उपन्यास(चार दरवेश), जिसकी हम-आप अभी चर्चा कर रहे थे, लिखा है। अब चाहें वो जिस भी विचारधारा का हो, उसके केन्द्र में यानि कि उसका मूल तत्त्व मनुष्यता, मानवता ही होगा। तो विचारधारायें जो हैं. . . और बहुत सी विचारधारायें जकड़बन्दी की शिकार हैं। समय के साथ वह चल नहीं पातीं। तो इसको भी ध्यान में रखना चाहिये। और जो राजनीति है, वह ‘राजनीति’ शब्द इसके लिए (साहित्य के लिए) बड़ा घातक है। पर विचारधारा उसके लिए आवश्यक है। क्योंकि विचारधारा मनुष्य की चिंता को लेकर, समाज की चिंता को लेकर चलती है। सुनील ‘मानव’ : सम्पन्न वर्ग के लेखकों की कहानियों का परिवेश साधारण पाठकों को कहाँ तक छू सकता है? हृदयेश : हाँ! बिलकुल सही सवाल किया आपने। इस तरह के लेखक केवल अपने लिए लिखते हैं या अपनी तरह की मानसिकता

नीलगाय पर तीन कविताएँ

नीलगाय बचपन में पहली बार सुना था उसके बारे में सुना था कि जंगली होती हैं वह गाय भी और जंगली भी एक साथ दोनों यह एक स्वप्न था सच्चाई उन्हें जंगली अधिक घोषित करती है यह मांसाहारे नहीं होती अर्थात् मलेच्छ नहीं कहलाती शाकाहारी होती है एकदम सनातनी शुद्ध आनाज ही इनका आहार है समय के साथ इन्होंने अपने को बदला भी है साहित्य में जैसे जैसे बदलते गए नायक ठीक वैसे वैसे ही बदलती गईं यह भी यह किसी व्यक्ति पर जानलेवा हमला नहीं करतीं लेकिन जान लेना इनकी फितरत है दिखती गाय जैसी हैं लेकिन काम हमेशा शेर का करती हैं शेर से भी दो हाथ आगे बढ़कर इनके जादू से ढेर हो जाते हैं कई कई जन एक साथ वास्तव में नीलगाय ठाकुर नहीं होती हैं वह राय साहब होती हैं नीलगाय-१ नीलगाय कभी भागती नहीं बस ओझल हो जाती हैं हमारी आंखों से पूस की ठण्डी रात में हल्कू को सोया जानकर निकल आती हैं अपनी दो गुनी शक्ति के साथ और रौंदने लगती हैं हल्कू की आत्मा को जो ठिठुर रही है पूस की रात में. . . जब जब आती है पूस की एक रात नीलगाय भी वापस आती हैं और ज्यादा भीड के साथ और भी ज्यादा सयानी होकर नीलगाय-२ नीलग

मकसूद मियां : सुनील मानव

ईशा की नमाज़ पढ़कर मकसूद मियां बाहर आए तो बाजपेई जी बरोठे में ही बैठे मिले। बोले – ‘चतुर्वेदी जी नमाज़ पढ़नी तो छोड़नी पड़ेगी . . . ’ मकसूद मियां के पोपले गालों पर चमक आ गई – ‘मियां बाजपेई . . . अब यह नमाज़ तो जनाजे तक साथ रहेगी . . . ’ एक ओर रखा हुक्का निकाल कर पास में ही बैठकर गुड़गुड़ाने लगे। दो मिनट तक कोई नहीं बोला। ‘. . . प्रचारक जी आए थे आज . . . कल फिर आएंगे . . . ’ बाजपेई जी ने चुप्पी तोड़ी। ‘. . . हाँ हाँ क्यों नहीं . . . हम पहुँच जाएंगे वक्त पर . . .’ बाजपेई जी उठकर जाने लगे । ‘राम राम पंडित जी . . .’ ‘राम राम मियां बाजपेई . . . . और मियाँ . . .  मिसरा जी, मनकू चौधरी, रामलाल यादव, सरपंच जी सबको बुला लेना . . . हमारी हिम्मत बनी रहेगी . . . सुना है रायपुर के मौलाना साहब फतवा सुनाने की सोच रहे हैं . . .’ ‘. . . उनकी तो . . . ’ बजपेई जी बहुत कुछ कहते-कहते रुक गए – ‘आप हम पर भरोसा रखिए। अब तो आप वापस अपने घर में शामिल होने जा रहे हैं . . .’ दोनों ने एक-दूसरे की ओर थरथराए से होंठों और मुस्कुराई सी आँखों से निहारा। मकसूद मियां पंचनमाजी मुसलमान थे। इस गाँव में अकेले भी। पुर