बालसाहित्य पर बतकही

आज के दौर में भी जब हम बालसाहित्य की बात करते हैं तो हमारे मनोमस्तिष्क में वह बाल छवि अनायास ही कौतूहल मचाने लगती है, जिससे हम निकलकर आए हैं अथवा जिसके संग - साथ हम रोज ही अपने बचपन को महसूस करते हैं । बच्चों की मासूमियत, उनकी संवेदना, उनके मनोभाव, उनके सहज से तर्क और प्रश्न हमें कभी-कभी निरुत्तर से कर देते हैं । 

आज के बालसहित्य में कोरी उपदेशात्मकता के स्थान पर संवेदनात्मकता, मार्मिकता के साथ विषय-वस्तु की चित्रात्मकता भी होनी चाहिए । किसी बात को निराधार अथवा महज शैलीगत  रूप में प्रस्तुत करने के बजाय विषय-वस्तु की मज़बूती के साथ प्रस्तुत करना चाहिए । आज का बच्चा तर्कशील हो गया है । वह बात क यूँ ही नहीं मानने को तैयार होगा ! उसके सामने प्रमाण प्रस्तुत करना पड़ेगा !

आज का दौर बाज़ारवाद का दौर है । हमारे जीवन के समस्त पहलुओं को बाजार अपनी चपेट में लेता जा रहा है । हमारे जीवन की प्रत्येक आवश्यकता का निर्धारण बाजार ही कर रहा है । यहाँ तक कि बच्चों की सुकुमार संवेदना को भी ग्रहण लग रहा है । बच्चों के खेल-खिलौनों की दुनिया से कब गुड्डे-गुड़िया, बाजे-नगाड़े आदि निकलते चले गए और कब उनकी जगह ‘बंदूक’ जैसे खिलौनों ने ले ली पता ही नहीं चला । बाजारीकरण ने हमारे संस्कारों में कब विष उतार दिया, हमें आभाष ही न हुआ । 

आज के समय में कम्प्यूटर बच्चों के आकर्षण का मुख्य नायक है । कम्प्यूटर ही बच्चों के खेल, शिक्षा और गुरु का स्थान लेता जा रहा है । बाल - कथाओं की पुस्तकों से बच्चे करीब - करीब अलग हो गये हैं । संयुक्त परिवार टूटकर एकल बनते जा रहे हैं । रिस्ते संकुचित हो रहे हैं । माँ - बाप ‘नौकरी’ करने के चक्कर में बच्चे से दूर हो रहे हैं । बच्चों का लालन - पालन ‘आयाओं’ द्वारा किया जा रहा है । दादी - नानी की कहानियाँ तो अब बीते जमाने की बात हो गई हैं । ऐसे में बच्चे पूरी तरह से मीडिया, टी.वी. और कम्प्यूटर पर निर्भर होते जा रहे हैं । कम्प्यूटर ही आज बच्चों का साथी और गुरु बनता जा रहा है । ‘हैरी पॉर्टर’ की अतिकाल्पनिक दुनिया और ‘स्टंटमैंन’ के सपनों से होड़ लगाती बच्चों की कल्पना अपनी जमीन से पृथक होती जा रही है । आधुनिक सुख-सुविधाओं से युक्त ‘मॉर्डन’ विद्यालयों में बच्चों को शिक्षा के स्थान पर बड़ा – से - बड़ा ‘नौकर’ बनाने की होड़ लगी है । 

कहने का तात्पर्य यह कि आज समय के साथ बच्चा आधुनिक होने लगा है । उसके तर्क बदल गए हैं, उसके खेल बदल गए हैं । पहले जहाँ बालक के नायक परियों की कथाओं के अतिकाल्पनिक दूसरी दुनियाँ के जीव होते थे, वहीं आज शक्तिमान, हैरी पॉर्टर, कृष आदि बच्चों के हीरो हो गए हैं । यह हीरों भले ही अति आधुनिक और अतिकाल्पनिक हों, लेकिन हैं तो उनकी ही दुनियाँ के, जिनको वह देख सकते हैं और महसूस कर सकते हैं । उन्हें यह नहीं लगता कि जिनके बारे में वह सुन रहा है वह दूसरी दुनिया के हैं, वह भले ही स्क्रीन पर दिखते हैं, पर दिखते तो हैं ही । बच्चों को वह अपने आस-पास के लगते हैं ।
भारतीय समाज की बालकथाओं / कविताओं आदि में मिथिकीय चरित्रों की भरमार मिलती है । यह बच्चों के मनोरंजन व आत्मविकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाया करते थे । 

आज समय बदल गया है । समय के साथ, सामाजिक परिवर्तनों के साथ बच्चों में भी बड़ा परिवर्तन आया है । विज्ञान की रंगीन चमक ने बच्चों को अपनी ओर आकर्षित किया है । बच्चों के लिए तय किए गए पुराने मिथिकीय आलंबन अब कमजोर पड़ने लगे हैं । नए आलंबनों, नए नायकों का तीव्रता से विकास हुआ है ।

पुराने मिथिकीय चरित्र भी नवीन रूपों में बच्चों के समक्ष आए हैं । बाल गणेशा, कृष्णा, छोटा भीम, बालवीर, आदि अब पहले वाले चरित्र नहीं रह गए हैं । अब वह  भी विज्ञान के घोड़े पर बैठकर आधुनिक बच्चों के नायक बन रहे हैं । 

मिथिकीय चरित्रों का विज्ञान से ओत-प्रोत होना, आज के बच्चों की विचारधारा के परिवर्तन के प्रतीक के रूप में देखा जा सकता है । आज के पुस्तकीय बालसाहित्य को भी इस बात का संज्ञान लेना चाहिए, अन्यथा बालसाहित्य पुस्तकों में ही उम्रकैद काटेगा ! साथ ही साहित्यकार ‘रचने’ का दंभ पाले हुए उम्र भर नशे में पड़ा रहेगा और आज का बच्चा आधुनिक आलंबनों के पंख लगाकर बहुत आगे निकल जाएगा । 

आज टी.वी. पर बच्चों के लिए डोरेमोन, सिनचिन, बाल गणेशा, छोटा भीम, बाल कृष्णा, पिंजा हथौड़ी, मि. बीन, नौडी, स्पाइडर मैन, शक्तिमान, कृष, मिकी माउस, मोगली आदि न जाने कितने आधुनिक नायकों का ‘अवतार’ हो चुका है, जो तर्कशीलता, मनोरंजन, संवेदना, मार्मिकता आदि तमाम स्तरों पर पुरातन नायकों से कहीं आगे निकलते जा रहे हैं । 

आज का बालक सिनेमा और साइंस की दुनिया में जी रहा है । उसके हाथ में नया फोन है, जिस पर उसकी कोमल अंगुलियाँ बिजली की गति से दौड़-भाग करती हैं । कभी - कभी तो ऐसा लगता है कि विज्ञान उसकी सहचरी बन गई हो, तो ऐसे बालक की कल्पना भी तो उसी कोटि की ही होगी ना । ऐसे बच्चे के लिए साहित्य की रचना करना महज मजाक थोड़े ही ना है । बड़ा ही दुस्साध्य कार्य है । बच्चे के संपूर्ण मनोविज्ञान को समझना पड़ेगा भाई ।
बालसाहित्य के सामने आज तमाम प्रश्न चीख - चीखकर उत्तर की माँग के नारे लगा रहे हैं । 

आज कितने बच्चे हैं जो प्राचीन लोरियाँ सुनते हैं ?

आज कितने बच्चे हैं जो प्राचीन अर्थात् हमारे बचपन के ही खेल खेलते हैं ?

कितने बच्चे हैं जो पुराने तरीकों से लिखते-पढ़ते और सीखते हैं ?

ऐसे में एक प्रश्न यह उठता है कि जब आज बच्चों के रहन-सहन से लेकर उनके खेलने - खाने, लिखने - पढ़ने और सोचने - समझने तक के तरीके बदल गए हैं तो फिर आज का बालसाहित्यकार किसके लिए और क्यों लिख रहा है ? 

क्या केवल प्रशंसा एवं प्रसिद्धि के लिए ? 

आज कोई पत्रिका में किसी लेखक का परिचय हो अथवा सोशल मीडिया पर स्वयं लेखक द्वारा अपनी प्रशंसा में दिया गया परिचय हो; सबमें दिखता है कि उक्त विद्वान ने इतना साहित्य लिखा, जिसकी इतनी समीक्षाएँ छपीं, इतने पुरस्कार मिले और इनसे भी बढ़कर कि उनकी रचनाधर्मिता पर इतने शोध हो गए हैं । कभी-कभी तो यह सब देखकर इतनी हँसी आती है कि मन कह उठता है - ‘कबिरा देखो जग बौराना ।’

एक प्रश्न और जो अक्सर वह लोग पूछ बैठते हैं, जो लेखन से नहीं जुड़े हैं और न ही उन्हें लेखन का सौक है । वह कहते हैं – 

भाई एक बात बताओ कि यह जो बालसाहित्य की बात हो रही है किसके लिए लिख रहे हैं ?

अगर आप कहेंगे कि जाहिर सी बात है बच्चों के लिए लिख रहा हूँ तो वह कहेंगे कि ‘किन बच्चों के लिए ?
 
क्या उन तक आपकी रचनाएँ पहुँच भी रही हैं ?

आप उन्हें इस पर संतुष्ट कर देंगें तो वह आगे कहेंगे कि कितने ‘बच्चों’ ने आपकी रचनाएँ पढ़ीं ? 

प्रश्नों का यह सिलसिला बढ़ता ही जाता है और आप निरुत्तर हो जाते हैं ।

वास्तव में आज के तेज गति से बदल रहे बच्चों के लिए बालसाहित्य की रचना करना बड़ा ही दुसाध्य कार्य है और इससे भी बड़ा जटिल है उन तक अपनी रचनाओं को पहुँचा पाना । इसके लिए हमें सदियों से बने हुए मानकों को बदलना पड़ेगा । यदि आपने यह कार्य कर लिया तो ठीक, नहीं तो बाल साहित्यकार आप हैं ही । कुछ तुकबंदी करिए, किसी विद्वान से ‘चाटुकारिता’ करके उन पर कुछ टिप्पणी करवा लीजिए, छप जाइए और पुरस्कार का जुगाड़ कर लीजिए, लो भाई हो गए बाल साहित्यकार । आज यह चलन बहुत ही आम हो गया है । लेकिन यह बात अपने आप में पूर्ण सत्य नहीं है । हजारों की भीड़ में तमाम सारे ऐसे भी साहित्यकार हैं जो बालमन की सूक्ष्मता से रूबरू हो रहे हैं । उनकी बदलती हुई मनोवृत्ति को पहचान रहे हैं । बदले हुए वातावरण को महसूस कर रहे हैं । बच्चों के सूक्ष्म तर्कों को संतुष्ट करने का प्रयास कर रहे हैं । उपदेशात्मकता को चित्रण में प्रस्तुत कर रहे हैं । लगातार और बड़ी ही तेज़ी से आधुनिकता की चपेट में आ रहे बच्चों के नवीन नायकों का सृजन कर रहे हैं । साथ ही यदि परम्परा का सृजन कर रहे हैं तो भी उसको संवेदना और मार्मिकता से इतना सहज बना देते हैं कि बच्चा एक बार पढ़कर ही उसको महसूस कर सकता है ।

आज के दौर में भी कुछ ऐसे बाल साहित्यकार है, जिन्होंने आज के बदलते हुए दौर को बड़ी ही गहराई से महसूस किया और अपने अंतर में उतारा है । इनके बालसाहित्य की बुनावट ऐसी है कि बच्चा तो बच्चा बड़ा भी संवेदना से भर उठेगा । इतना ही नहीं इनकी रचनाओं को वैश्विक आयामों पर भी परखा जा सकता है । आपने अपनी रचनाओं में उन - उन प्रश्नों को उठाया है, जिनसे बड़े - बड़े विद्वान कतराते रहते हैं । आपने उन प्रश्नों को बड़ी ही निडरता के साथ इस प्रकार से चित्रित कर दिया है कि लोग दाँतों तले अंगुली दबा लेते हैं । 

असल बात यह कि बाल साहित्य लिखना ही बड़े बूते की बात है और उस पर भी अधिक बूते की बात है उसमें उन मानवीय संवेदनाओं को समेट पाना, जो सार्व भौमिक हों । वह व्यक्तिगत न होकर समष्टिगत हो जाए । उसके आयाम क्षेत्रव्यापी से विश्वव्यापी हो जाएं ।

कलेवर कैसा भी हो लेकिन उसका भाव गहन ही हो । साथ ही वह गहन भाव कोरी उपदेशात्मकता से लबरेज न होकर चित्रणप्रधान हो । मार्मिकता उसकी पूँजी हो और मनोरंजन उसके कलेवर का अहम हिस्सा हो । यह तमाम चीजें आज के मॉर्डन’ हो रहे बच्चों के तर्कों को संतुष्ट करने के लिए जरूरी हैं । यही वह शक्ति है, जो आपकी ‘बाल’ सी लगने वाली कविताओं में वैश्विक आयाम भर देती है । इसके साथ ही विज्ञान को कुछ इस प्रकार से प्रस्तुत किया जाए कि वह बालकों की सहचरी-सी दिखने लगे । एक और महत्त्वपूर्ण बात कि ऐसे साहित्य को आज के बच्चों के समक्ष उसी रूप में पहुँचाया भी जाए और उनके अंदर उस भाव की समझ भी उत्पन्न करने का प्रयास किया जाए ! तभी बाल साहित्य आधुनिक बालकों का बाल साहित्य कहलाएगा । अन्यथा लिखते रहिए । किसी को क्या पड़ी है ।

सुनील मानव

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