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वाम का चरित्र बनाम चरित्र का वाम

यह आलेख मेरे बाबा का है जो कथा प्रतिमान पत्रिका में छद्म नाम से छपा था..............                                                                 वाम का चरित्र बनाम चरित्र का वाम आचार्य भिक्खुमोग्गलायन शी तल प्रसाद इस छोटी सी बात को मोटी तौर पर मान कर चलता है कि लेखन और प्रतिबद्ध, ये दोनों ही शब्द हिन्दी के लेखक और पाठक(!) के परिचित शब्द हैं। यह बात दूसरी है कि लेखक अपने ‘लेखक’ की गरिमा को बनाए रखने के लिए पाठक से एक समानान्तर दूरी बनाए रखता है। उसे उसकी समझ पर भी बराबर सन्देह बना रहता है और समानान्तर रेखाओं के बाल सुलभ उदाहरण ‘रेल की पटरी’ की तरह लेखक और पाठक सुदूर लक्ष्य तक कभी और कभी नहीं मिल पाते। अपनी समझ पर कुछ गंभीर टाइप का विश्वास करके वह कभी-कभी तो ऐसी सूक्तियां उछाल देता है कि पाठक दोनों हाथ ऊपर उठाये आकाश को ताकता रह जाता है और सूक्ति है कि शून्य में झूलती रहती है। उदाहरण के लिए एक वाम पक्षधर लेखक ने एक सूक्ति उछाली-अच्छी कहानी वाम होने के लिए बाध्य है।             अब बात साफ है कि लेखक ने कहानी का चरित्र, एक कैरेक्टर तय कर दिया-वाम। वाम है तो वह एक अच्छी कहानी

पूर्वोत्तर भारत का एक राज्य ‘त्रिपुरा’

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      सुनील ‘मानव’ पू र्वोत्तर प्रदेश का जिक्र आते ही हमारे मनोमस्तिष्क में वहाँ की ऊँची-नीची पहाड़ी भूमि जो सघन जंगलों से आक्षादित है तैरने लगती है। साथ ही मन में उठने लगती हैं ब्रह्मपुत्र और उसकी सहायक नदियों की मन को मोह लेने वाली उत्ताल तरंगें। इस प्रदेश में जहाँ एक ओर सिक्किम की बर्फ से ढकी और सैलानियों के साथ हँसती-खिलखिलाती सूर्य की लालिमा से चमकती हुई पहाड़ियां हैं तो दूसरी ओर असम का कामाख्या मंदिर और रिमझिम बारिश से मन को मोहने वाले प्रदेश। ऐसा ही मन को मोहने वाला एक छोटा राज्य है त्रिपुरा, जहाँ का इतिहास और भौगोलिक वातावरण उसे कई मायनों में महत्त्वपूर्ण बनाता है। प्रथमत: बात की जाए इस राज्य के नाम ‘त्रिपुरा’ की, जिसकी जड़े तलाशते हुए विद्वान तमाम अटकलें लगाते रहे हैं। तमाम जनश्रुतियां प्रचलित हैं इस नाम को लेकर। कोई इस नाम को बर्बर राजा ‘त्रिपुर’ से जोड़ता है तो कोई इसे ‘शिव/त्रिपुरारी’ से संबद्ध करके देखता है। आगे तो विद्वानों ने शिव-पत्नी ‘त्रिपुर-सुंदरी’ अथवा ‘त्रिपुरेश्वरी’ से इस नाम का संबंध दिखाया। कुछ विद्वानों ने इसको तिब्बती-बर्मी और चीनी-तिब्बती भाषा परिवार स

समकालीन साहित्य-सृजन

Ø सुनील ‘मानव’ आ ज साहित्य और उसके पाठकों की कमी का रोना भले ही रोया जाता हो और पठन-पाठन की संस्कृति के लोप का स्यापा दिया जाता हो, किंतु पूरे परिदृश्य पर व्यापक दृष्टि दौड़ाई जाए तो ना केवल एक उम्मीद बंधती है, बल्कि उपर्युक्त मान्यताएं भी निराधार साबित हो जाती हैं । बीते कुछ दिनों के प्रकाशित साहित्य पर नज़र दौड़ाई जाए तो पता चलता है कि न केवल बहुत सी पुस्तकों के नए संस्करण प्रकाशित हुए हैं, बल्कि नई विधाओं की पुस्तकें भी प्रभूत परिणाम में  सामने आ रही हैं  ।      वर्तमान कविता, जिस पर दुर्बोधता, कठिनता और पाठकीय समझ से बाहर होने के आरोप लगाए जाते हैं, तमाम मिथकों को तोड़ती हुई लोकप्रियता के नए आयाम स्थापित कर रही है। पिछले दिनों के प्रकाशित साहित्य में सबसे अधिक संख्या काव्य-संग्रहों की ही दिखती है । इन संग्रहों में नए व पुरानी पीढ़ी के तमाम रचनाकार कन्धे से कन्धा मिलाकर यथार्थ  को समझने और उससे मुठभेड़ के लिए युक्तियां तलाशने में संलग्न हैं । और कहना न होगा कि उनकी यह तलाश कहीं न कहीं यथार्थ से त्रस्त जन-सामान्य को न केवल सम्वेदनात्मक धरातल पर सहारा देती है, बल्कि उनमें वैचारिक उर

नागार्जुन के निराला

हि न्दी साहिय में ‘छायावाद’ एक ऐसा कालखंड था, जिसमें भारतीय जनमानस स्वतंत्रता के लिए अकुला रहा था । हर क्षेत्र से ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ़ हुंकार भरी जा रही थी । इस कालखंड में जहां एक ओर भारतीय संस्कृति की विवेक परम्परा का तेज व्याप्त था तो वहीं दूसरी ओर विश्वचेतना से संपंन्न ज्ञान-विज्ञान को पाने और पचाने की असीम ललक विद्यमान थी । वास्तव में छायावाद अपने में एक नए प्रकार का काव्य था जो नवीन चित्त-वृत्तियों का संचय था । निराला इन्हीं नवीन चित्त्वृत्तियों के संचयन के मूर्तिमान हस्ताक्षर थे । निराला ने अपने समय-समाज का पर्यवेक्षण बड़ी ही सूक्ष्मता और गहराई से किया था । उन्होंने उस समय के उन मुखौटों को चेहरे से अलग किया था जो तत्कालीन रंगमंच पर कब्जा किए हुए थे । निराला ने और गहरे जाकर उस वास्तविक सच्चाई को छानने का प्रयत्न किया था जो तत्कालीन साहित्य की नज़रों से ‘बचती-सी’ जा रही थी; परन्तु ऐसे सूक्ष्मदर्शी कवि का वास्तविक मूल्यांकन साहित्य में जिस प्रकार से होना चाहिए था नहीं हो पाया । ऐसे में बाबा नागार्जुन द्वारा उनका मूल्यांकन अवश्य ही उन तमाम अनछुए बिन्दुओं पर प्रकाश डालता