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वाम का चरित्र बनाम चरित्र का वाम

यह आलेख मेरे बाबा का है जो कथा प्रतिमान पत्रिका में छद्म नाम से छपा था..............                                                                 वाम का चरित्र बनाम चरित्र का वाम आचार्य भिक्खुमोग्गलायन शी तल प्रसाद इस छोटी सी बात को मोटी तौर पर मान कर चलता है कि लेखन और प्रतिबद्ध, ये दोनों ही शब्द हिन्दी के लेखक और पाठक(!) के परिचित शब्द हैं। यह बात दूसरी है कि लेखक अपने ‘लेखक’ की गरिमा को बनाए रखने के लिए पाठक से एक समानान्तर दूरी बनाए रखता है। उसे उसकी समझ पर भी बराबर सन्देह बना रहता है और समानान्तर रेखाओं के बाल सुलभ उदाहरण ‘रेल की पटरी’ की तरह लेखक और पाठक सुदूर लक्ष्य तक कभी और कभी नहीं मिल पाते। अपनी समझ पर कुछ गंभीर टाइप का विश्वास करके वह कभी-कभी तो ऐसी सूक्तियां उछाल देता है कि पाठक दोनों हाथ ऊपर उठाये आकाश को ताकता रह जाता है और सूक्ति है कि शून्य में झूलती रहती है। उदाहरण के लिए एक वाम पक्षधर लेखक ने एक सूक्ति उछाली-अच्छी कहानी वाम होने के लिए बाध्य है।             अब बात साफ है कि लेखक ने कहानी का चरित्र, एक कैरेक्टर तय कर दिया-वाम। वाम है तो वह एक अच्छी कहानी