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'एक था मोहन' को पढते हुए - सुनील

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वर्तमान में गाँधी को महशूस करना बड़ा जोखिम भरा काम है । बावजूद इसके मुझे वर्ष 2017 की कुछ बेहतरीन किताबों में ‘एक था मोहन’ लगी । प्रासंगिक और मनोवैज्ञानिक किताब, क्योंकि यह किताब उस जड़ को मज़बूती प्रदान करती है जिस पर विचारों का एक बड़ा दरख्त खड़ा होना है ।  आज समाज में हर ओर अलगाव और घृणा अपने चरम की ओर तेजी से बढ़ रही है लेकिन यदि अलगाव और घृणा का विरोध अगर इन्हीं हथियारों से करेंगे तो यह चुनौतियाँ और भी गंभीर रूप धारण करेंगी । इनका विरोध इनकी विपरीत हथियारों से किया जा सकता है । लोगों के अंदर जो नफरत, घृणा, द्वेष है वह प्रेम, सत्य, अहिंसा के द्वारा ही मिट सकता है । नफरत की आग को नफरत से नहीं बुझाया जा सकता । वो बुझेगी सत्य, प्रेम, सद्भाव से । एक दूसरे के पास आने से । दूर होने से अलगाव बढ़ेगा । जब दोनों पास आएंगे तब मानवता का आधार सबल होगा । आशांत मन को शांति मिलेगी । सत्य को शक्ति और हिंसा को मिलेगी हार, अधर्म को शिकस्त और फिरकापरस्ती को करारा झटका । इस पूरे भाव को ‘एक था मोहन’ पुस्तक इतनी सहजता से कह जाती है कि किशोरवय, जिसके लिए यह पुस्तक लिखी गई है, स्वयं से तर्क करने को मज़बूर

पुस्तक परिचय - 40 पुस्तक : लोकवादी तुलसीदास लेखक : विश्वनाथ त्रिपाठी विधा : आलोचना प्रकाशक : राधाकृष्ण, नई दिल्ली संस्करण : 2007 मूल्य : रु. 195 (हार्डबाउंड)

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हिन्दी में विविधता के विचार से तुलसी जैसा दूसरा कवि संभवत: नहीं ही है । आपने भारतीय जनता का वास्तविक अर्थों में प्रतिनिधित्त्व किया । तुलसी पर कई पुस्तकों में यह पुस्तक मुझे अत्यंत प्रिय लगी । भाषा और भाव दोनों स्तरों पर । लेखक ने तुलसी के राम को धर्म संस्थापक के स्थान पर भारत की विविधता के रूप में देखा । अपने समय के वातावरण को राम के चरित्र का आधार बनाया । कलियुग और रामराज्य के मिथकी नवीन परिभाषा स्थापित की और तुलसी की कविताई को नई पहचान दी । इस पुस्तक की सबसे बड़ी उपलब्धि आलोचक राजेन्द्र यादव द्वारा इसकी सराहना है । राजेन्द्र यादव का उक्त पत्र जो पुस्तक में संकलित है, प्रस्तुत करता हूँ, जिससे पुस्तक की गंभीरता आपके समक्ष अधिक स्पष्ट होगी । राजेन्द्र यादव लिखते हैं – “हिन्दी के पुराने कवियों में जो कवि मेरे मन में तीव्र विरक्ति और गहरी अरुचि जगाते हैं, उनमें तुलसीदास का नाम सबसे ऊपर है । सच ही, रामचन्द्र शुक्ल से लेकर रामविलास शर्मा तक की विह्वल, गद्गदीयता मेरी ‘समझ’ में नहीं आती । सारे दार्शनिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक आतंक के बावजूद मुझे वे अन्धविश्वास, रूढ़िवादिता, भदेसपन और अपरिवर