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प्लूटो की नन्हीं दुनिया में समाया सारा आकाश

उपदेशों से गिचपिचा रही बालसाहित्य की दुनिया में ‘प्लूटो’ ने उपदेशात्मक आक्रोश से इतर सारे आकाश को अपने खिलंदड़ेपन में समाहित कर हमारे सामने प्रस्तुत किया है । ‘प्लूटो’ एक छोटा तारा, जिसने लगातार चमक खो रहे बड़े-बड़े तारों के सामने अपने उजाले का सौंदर्यबोध स्थापित किया है । बालमन की उन तरंगों में हलचल मचाई है जो खिलखिलाना भूलती जा रही थीं ।  प्लूटो से मेरा परिचय करीब एक साल पुराना है । एक रात साजिद सर के घर रुका और वहाँ मुझे ‘प्लूटो’ दिख गई । ‘प्लूटो’ यानि कि रंगों और शब्दों की एक नवीन दुनिया । जिसमें शब्द खिलखिलाते तथा बच्चे तालियाँ बजा-बजाकर हँसते-मुस्कुराते मिले । इसके बाद दिल्ली का पुस्तक मेला । मेले में इकतारा प्रकाशन का स्टाल और वहाँ सुशील जी, शशि सबलोक जी आदि के साथ ‘प्लूटो’ के पूरे परिवार से आत्मीयता भरी मुलाकात । दीवारों पर टंगे रंग और शब्दों में गुनगुनाते पोस्टर । मन पगला गया । वर्षों से सोता हुआ बच्चा (मानो अपने जन्मदिन वाले दिन जैसे ही सोकर उठा हो सामने पापा उसकी पहली साइकिल लिए खड़े हो) जागते ही चहक उठा हो । एक . . . दो . . . तीन . . . चार . . . गिनती नहीं सभी चाहिए । बच्चा ज