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बालसाहित्य पर बतकही

आज के दौर में भी जब हम बालसाहित्य की बात करते हैं तो हमारे मनोमस्तिष्क में वह बाल छवि अनायास ही कौतूहल मचाने लगती है, जिससे हम निकलकर आए हैं अथवा जिसके संग - साथ हम रोज ही अपने बचपन को महसूस करते हैं । बच्चों की मासूमियत, उनकी संवेदना, उनके मनोभाव, उनके सहज से तर्क और प्रश्न हमें कभी-कभी निरुत्तर से कर देते हैं ।  आज के बालसहित्य में कोरी उपदेशात्मकता के स्थान पर संवेदनात्मकता, मार्मिकता के साथ विषय-वस्तु की चित्रात्मकता भी होनी चाहिए । किसी बात को निराधार अथवा महज शैलीगत  रूप में प्रस्तुत करने के बजाय विषय-वस्तु की मज़बूती के साथ प्रस्तुत करना चाहिए । आज का बच्चा तर्कशील हो गया है । वह बात क यूँ ही नहीं मानने को तैयार होगा ! उसके सामने प्रमाण प्रस्तुत करना पड़ेगा ! आज का दौर बाज़ारवाद का दौर है । हमारे जीवन के समस्त पहलुओं को बाजार अपनी चपेट में लेता जा रहा है । हमारे जीवन की प्रत्येक आवश्यकता का निर्धारण बाजार ही कर रहा है । यहाँ तक कि बच्चों की सुकुमार संवेदना को भी ग्रहण लग रहा है । बच्चों के खेल-खिलौनों की दुनिया से कब गुड्डे-गुड़िया, बाजे-नगाड़े आदि निकलते चले गए और कब उनकी जगह ‘बंदूक