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Showing posts from April, 2020

मुन्ने सिंह

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#जानिए_मेरे_गाँव_जगतियापुर_को : 30 #मेरी_देखि_अरबरी_देह ... अभी, यही कोई पन्द्रह-बीस दिन पहले, जी हाँ लॉकडाउन के ही दौरान, हम बगिया में जा बैठे थे । इतिहास रच रहे अपने ‘डल्लप’ पर । भरी दुपहरिया । कोई था भी नहीं आस-पास । हमने कहा ‘दादा वो वाला सुनाओ...’ मैं बात पूरी भी नहीं कर पाया था । दादा के चेहरे पर शृंगारिक लालिमा पुत आई । उन्होंने उत्सुकता से मेरी ओर निहारा । मैंने अपनी बात पूरी की ‘... वही गुपली जो आफ अक्सर गाया करते थे ... ।’ दादा के अंदर कुछ घुमड़ने लगा । संभवत: कई गुपलियाँ उनके अंदर कुलबुलाने लगीं । मैंने स्पष्ट ही कर दिया ‘मेरी देखि अरबरी देह ...’ और दादा की मुस्कुराहट ने उनको धमार गायन के शृंगारिक परिवेष में पहुँचा दिया । वह पूरे तरन्नुम से गाने लगे । गर्व उनके चेहरे से टपकने लगा । मैं अंदर के उत्साह को दबाए सुनता गया । एक के बाद एक । कई एक । ... और यह बेहतरीन दुपहरिया बीत गई ।  मुन्ने सिंह दादा गाँव की धमार टोली की तीसरी पीढ़ी के सबसे होनहार कलाकारों में गिने जाते रहे हैं । धमार आदि के प्रबन्धन में राजबहादुर सिंह के सबसे सशक्त साथी भी । विभिन्न प्रकार के गायन से लेकर धमार आद

राजबहादुर सिंह

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#जानिए_मेरे_गाँव_जगतियापुर_को : 29 #जोबनु_मेरे_बस_मइं_नाहीं_पिया ... कार्य चाहें किसी भी प्रकार का क्यों न हो, बिना प्रबन्धक के हो ही नहीं सकता है । यह बात हमारे गाँव के #राजबहादुर_सिंह पर बखूबी लागू होती है ।  जब से मैंने अपने गाँव की धमार को देखा है तब से मैं राजबहादुर सिंह को ही उसके प्रबन्धक के रूप में देखता चला आ रहा हूँ । ... और सही मायनों में कहूँ तो बिना इनके मेरे गाँव की धमार की कल्पना तक नहीं की जा सकती है । हाँ ! इनसे पहले की मेरे पास बहुत कम ही स्मृतियाँ हैं । बड़े-बूढ़ों से कहते सुना हैं कि ‘‘पहले बन्धूसिंह आदि लोग धमार तथा भजन मण्डली आदि बाँधा करते थे लेकिन जबसे राजबहादुर समझने वाले हुए, धमार का सारा प्रबन्ध इन्होंने ही सम्हाल लिया ।’ गाँव-गिराँव के रिश्ते से राजबहादुर सिंह मेरे चाचाओं में लगते हैं लेकिन मैं उन्हें ‘राजबादुर दादा’ के नाम से ही पुकारता रहा हूँ । इस कारण उनसे अन्यों की अपेक्षा कुछ हँसी-मज़ाक भी अक्सर हो जाया करती थी ।  #अमिलिया_तीर’ हमारे गाँव का एक ऐसा स्थान है जो पूरे गाँव की ‘जमघट’ का केन्द्र न जाने कब से बना हुआ है । पहले यहाँ इमली का एक बड़ा पेड़ हुआ करता

रामकिसुन

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#जानिए_मेरे_गाँव_जगतियापुर_को : 27 #नचकहिया_कहीं_का ...  आज मैं गाँव में नहीं हूँ । किसी विशेष कार्य से ‘कर्मस्थली’ आना हुआ । कल अनिल से कहा था कि #रामकिसुन का फ़ोटो चाहिए । अनिल ने सुबह फ़ोटो भेजा । साथ ही गरीबी और लाचारी की एक दारुण कथा भी ।   #रामकिसुन की उमर अभी कोई खास नहीं हुई है लेकिन गरीबी, लाचारी और सामाजिक परिस्थियों ने उसे असहाय बना दिया । शरीर ने साथ देना कम कर दिया है और लड़का साथ नहीं रहता है अब । दोनों पति-पत्नी किसी प्रकार जीवन को ढोने का प्रयास कर रहे हैं । मैं अनिल से कुछ कहता इससे पहले उसने विकास के साथ मिलकर #रामकिसुन के लिए दस-पाँच दिन के राशन पानी की व्यवस्था कर दी, पर क्या इनका जीवन महज पाँच-दस दिन का ही है ? कैसे कटेगा आगे ! #रामकिसुन का फ़ोटो देखते ही हृदय फ़टने-फ़टने को करने लगा । साथ ही पुरानी स्मृतियों ने भी कोलाहल उत्पन्न कर दिया, जब मैंने इन्हें अपनी आँखों के सामने ही उत्साह से लबरेज़ देखा था ।  हमारे गाँव में जो धमार बजती थी उसमें ढ़ोलक बजाने वालों में रामकिसुन का प्रमुख नाम हुआ करता था । इसका कारण उसकी ढोल बजाने की विशेष शैली थी । धमार मण्डली के बीच में पैतरे बद

नत्थू लोहार

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#जानिए_मेरे_गाँव_जगतियापुर_को : 26 #देखउ_हो_नत्थूकि_भइया_आइ_गे  #नत्थू_लोहार, इनकी जो पहली छवि हमारे मस्तिष्क में अंकित है वह 'अमिलिया तीर' होने वाली भजन मंडली की है । भजन मंडली जमी हुई है । पचासों लोग बैठे हुए हैं । नत्थू लोहार एक पैर ढ़ोलक पर रखे हुए मज़बूत थापों से ढ़ोलक बजा रहे हैं । मज़ीरा श्रीपाल के हाथों में थिरक रहा है। साथ ही कुछेक तो गीतों की धुन पर गमछा डालकर मंडली के बीच खड़े होकर नाचने तक लगता है । कुल मिलाकर भजन मंडली अपने पूरे यौवन में है । आस-पास के सभी चेहरे चित्रलिखित से गदगद हुए जा रहे हैं । उत्साह अपने पूरे चरम पर है । नत्थू की ढ़ोलक सबके आकर्षण का केंद्र है ।  इस भजन मंडली के मुख्य कलाकार और साथ के गाने-बजाने वालों की उमर पचास से ऊपर ही हुआ करती थी । बालक और नौजवान इन्हीं से प्रेरणा लेते थे ।  नत्थू लोहार की यह छवि मैं कभी भूल न सका ।  नत्थू लोहार से जुड़ी एक बड़ी मजेदार बात आज भी गाँव में गाहे-बगाहे याद की जाती है । जब भी कभी ये हमारे सामने पड़ते हैं, वह किस्सा कुछ देर के लिए चर्चा का विषय बन जाता है ।  नत्थू लोहार का शारीरिक रंग गांव में अन्य लोगों की

राम सागर

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#जानिए_मेरे_गाँव_जगतियापुर_को : 25 #इच्छाशक्ति_की_मिशाल_रामसागर ये हैं हमारे गाँव के भाई रामसागर जी । जन्मान्ध हैं । उम्र करीब चालिस सें पैंतालिस के आस पास । इनके लिए जीवन एक काली रात है, लेकिन इन्होंने जीवन में अपने तरीके से उजाला भरा है । जीवंतता की एक बेहतरीन मिशाल पेश की है ।  घर से लेकर खेत-खलिहान तक के सभी काम यह स्वयं करते हैं । गन्ने की छिलाई हो या धान की रोपाई, खेत-खलिहान के सभी कामों से लेकर जानवरों के लिए चारा एकत्र करना, उन्हें चराने जाना आदि सब कुछ एक सामान्य मनुष्य की ही भाँति करते हैं । वह सारे काम जो एक आंख वाला व्यक्ति कर सकता है, ये अपनी इच्छा शक्ति एवं अभ्यास के बल पर करते हैं । यहाँ तक कि बाज़ार जाना, रिश्तेदारी में जाना, गाँव-गिरांव में घूमना आदि सब कुछ इनके लिए एक सामान्य क्रिया है । इनके पैरों को ज़मीन की गहराई तक पहचान है । बस जाते पैदल ही हैं । वह भी बिना चप्पल-जूते पहने । ऐसा लगता है कि सही राह स्वयं इनके चलते हुए पैरों के पास आ जाती है । जैसे 'घूमती हुई पृथ्वी आती है पतंग उड़ाने वाले बच्चों के बेचैन पैरों के नीचे ।' एक बार मैंने पूछा 'रामसागर दद्दा

हरिपाल सिंह

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#जानिए_मेरे_गाँव_जगतियापुर_को : 24 #बरसि_अठारह_क्षत्रिय_जीवे  दोपहर बैठे-ठाले हरिपाल बाबा की ओर निकल गया । मन में आया कि एक फ़ोटो ही खीच लूँ । मैंने बाबा की ओर जैसे ही कैमरा घुमाया तो उन्होंने थोड़ा रुकने का इशारा किया । फ़िर थोड़ा सम्हलकर बैठे । पीठ सीधी की और दोनों हाथों से दोनों ओर की मूछें ऐंठते हुए उन पर ताव दिया । फ़िर हाथ का इशारा करते हुए हल्के से बोले ‘अब खींचउ’ । ... और मैंने एक-एक कर कई फ़ोटो खीच लिए ।  आज मैं बात कर रहा हूँ अपने गाँव के ठाकुर हरिपाल सिंह जी की, जिन्हें गाँव-गिराँव के रिश्ते से मैं बाबा कहता हूँ । हरिपाल बाबा से मेरे हमेशा से मधुर संबंध रहे हैं । अब तो बुढ़ा गए हैं । लड़के-बच्चों ने घर-गृहस्थी सम्हाल ही ली है तो चुपचाप घर-दुआरे बैठे-ठाले रहते हैं । अभी इसी लाकडाउन के दौरान मैंने बगिया में जब धमार की ढोल दो लोगों से बजवाई तो बाबा लकड़ी टेकते हुए वहाँ आ पहुँचे और पूरे दौरान बैठे रहे । हाँ ! अब गाना-बजाना उनका बस का न रहा । मैंने उनके वह दिन भी देखे हैं, जब वह पूरे उत्साह के साथ धमार, आल्हा और भजन मंडली के प्रमुख नायक बना करते थे । चैत-बैसाख का महीना है और

पस्सादी

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#बउरा_बउरा_ओ_बउरा ये हैं हमारे गाँव के रामप्रसाद प्रजापति उर्फ़ पस्सादी । गाँव-गिराँव के रिश्ते से हमारे बापू के भाइयों में लगते हैं । बापू से उम्र में बड़े हैं । तो इस गणित से ये हमारे ‘दउवा’ यानि कि ताऊ हुए । गाँव के लोगों के कहे अनुसार इस समय इनकी उम्र यही कोई सत्तर-पचहत्तर के बीच की होगी ।   जन्म से ही बोल और सुन नहीं पाते हैं । इसके अतिरिक्त ऐसा कोई काम नहीं है दैनिक जीवन का जो इनसे अछूता रहा हो । पिछले पच्चीस-तीस वर्षों से इनको देखता आ रहा हूँ इनको अपने घर का सारा काम करते हुए ।  अपने पिता बंधूलाल के छ:ह बेटों में ये सबसे बड़े हैं । तीन का विवाह हुआ और वे अलग रहने लगे । जो तीन अविवाहित बचे उनके लिए घर के सारे काम पस्सादी ही करते हैं । घर की साफ़-सफ़ाई से लेकर चूल्हा-चौका, हार-वार, पताई-पतवार सब कुछ एक कुशल गृहणी से कहीं अधिक निपुणता से ये करते हैं । इनका घर इतना साफ़ रहता है कि गाँव के कई सफ़ाई पसंद लोग चिढ़ जाएं ।  कई बार इन्हें चिढ़ते भी देखा है । हम लोग बचपन में या अब के कुछ बच्चों को इन्हें अक्सर चिढ़ाते देखा है । कोई बच्चा, जो इन्हें चिढ़ाने को होता हो, इनके सामने ज़मीन से थोड़ी से मिट्ट

दीना

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#दुइ_रुपिया_दइ_देउ #जैनेंद्र_कुमार का एक प्रसिद्ध निबंध है 'बाजार दर्शन' । उसका एक पात्र है #भगत_जी' जो चूरन बेचते हैं । वह अपनी आवश्यकतानुसार बाजार का इस्तेमाल करते हैं । उन्हें अपनी जरूरत का ज्ञान है । इसलिए वह रोज छः आने का चूरन बेचते हैं । इसके बाद बचा हुआ चूरन यूं ही बच्चों को बांट देते हैं ।  ऐसे ही, 'भगत जी' से मिलता-जुलता एक पात्र हमारे गांव में भी इस समय विचरण कर रहा है । गाँव के लोग इन्हें #दीना नाम से पुकारते हैं । हमारे गांव में इनकी बहन ब्याही है तो कभी-कभार महीना-दो-महीना गांव में रहने आ जाते हैं ।  लोग कहते हैं की #दीना की हटी है लेकिन मुझे इनमें एक विशेष प्रकार का संतोष और एकाग्रता का भाव सदा से दिखाई देता रहा है ।  #दीना बहुत कम ही बोलते हैं । बहुत कम ही कहीं बैठते हैं । अपने जीजा के घर से लेकर खेत-खलियान तक ही स्वयं को सीमित रखते हैं । खाना-पीना बहन के घर मिल ही जाता है । इसके अतिरिक्त इनकी केवल दो रुपयों की आवश्यकता रहती है । ना दो से कम और ना दो से अधिक । बावजूद इसके मैंने आज तक इन्हें इन दो रूपयों से कुछ लेते-खरीदते कभी नहीं देखा है । बस रुपए दो

माखन दउवा

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#ठगिनी,_क्यूं_नइना_मटकाबइ माखन दउवा की स्थिति अब वैसी नहीं रही । उमर हो चली है । अब वह अधिक कुछ कह-सुन नहीं पाते । चलने-फिरने में भी लकड़ी का सहारा लेना पड़ता है । अभी जल्दी ही हमने कुछ लोगों को धमार गाने को कहा तो वह भी आवाज सुनकर लकड़ी टेकते हुए बगिया तक आ पहुंचे ।  उन्हें देखते ही स्मृतियों की एक रील फ्लैशबैक में चल पड़ी । अपना कोई बाली-बच्चा ना होने के कारण परिवारिक जनों के ही भरोसे जीवन कट रहा है । मुझे खूब याद है । यही कोई चार-पांच-छः साल पहले दउवा ने कुछ गीत सुनाए थे हमें । उनके सुनाए गए गीतों में एक गीत मुझे बड़ा प्रिय लगा था । गीत था कबीर का पद "ठगिनी क्यों नैना मटकावे" ।  यह गीत वह अक्सर गाया करते थे । खूब तरन्नुम में गाया गया उनका यह गीत मुझे आज भी याद हो आता है । उनकी आवाज की रिकॉर्डिंग हमारे पास आज भी सुरक्षित है । आज जब माखन दउवा या इन जैसे अन्य चरित्रों को देखता हूं तो सोचता हूं कि केवल माखन दउआ ही नहीं इनके साथ-साथ एक पूरी संस्कृति आज अपने वजूद को बचाने की जद्दोजहद कर रही है । वह संस्कृति जो आज समाप्त प्राय हो रही है । माखन दउवा का समय अब बहुत पुराना लगाने लगा है

दूरि सासुरो होतो ...

दूरि सासुरो होतो सो मइया मोरी कारो बलमु न होतो . . .  धमार गायन के दौरान इस प्रकार के गीतों को ‘लाचारी गीत’ कहा गया है । इनको गाते समय गायकों में उत्साह की अति देखी जाती है । इनमें शृंगारिक भाव की प्रधानता रहती है । इन गीतों की बजंत में डंके का प्रयोग नहीं होता है । इन गीतों पर ढोलक सामान्य रूप से ‘मृदंग’ के रूप में बजती है । यह गीत भी गुपली की भाँति शृंगारिक होते हैं । यह गीत चलते हुए और एक स्थान पर खड़े होकर, दोनों रूपों में गाए जाते हैं । इन गीतों में गाते हुए मुख्य रूप से कलाकारों द्वारा नृत्य भी किया जाता है । यह गीत मस्ती और चुहलबाजी से भरे होते हैं । सो ढोलक और अन्य वाद्य भी उसी रूप में बजाए जाते हैं । इसमें भी होली गीतों की भाँति अंतरों कोचार बार और अन्य कथ्य को दो बार दोहराया जाता है । एक गीत है – ‘दूरि सासुरो होतो सो मइया मेरी कारो बलमु न होतो’ . . . दूरि सासुरो होतो सो मइया मेरी कारो बलमु न होतो . . . ४ अरे मेरे बलम के बहुतइ खेती . . . ४ चाहइ बहु भूमिहीन होतो, सो मइया मेरी कारो बलमु न होतो . . . २ दूरि सासुरो होतो कि मइया मेरी कारो बलमु न होतो . . . ४ अरे मेरे बलम के महला-द

गाँव की स्त्रियों को देखकर

आज भी  जब कि हम जी रहे हैं 21वीं सदी में आज भी  जब कि हमारे आगे  दी जाती है  स्त्रियों के स्वाधीनता की दुहाई   आज भी जब हम बात करते हैं  स्त्रियों की पुरुषों से बराबरी की  आज भी जब हम वकालत करते हैं  विमर्श करते हैं  बहस करते हैं स्त्रियों के वजूद पर  उस स्थिति में  आज भी  ना जाने कितनी स्त्रियां  कैद हैं पुरुष प्रधान घरो में सदियों से । आज भी ना जाने कितनी स्त्रियां  की गई हैं क्वारेनटाइन  ना जाने कितने स्वाधीन घरों में । न जाने कब खत्म होगा इनका यह लॉकडाउन ?  गांव में स्त्रियों को देखते हुए मुझे रोज ऐसा ही लगता है ।  सुनील मानव 01.04.2020