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बंधूलाल ढोलकिया

. . . और देखते-देखते ही वह स्मृति-शेष बनकर हमारे अंतस्तल में समा गये। इनकी कहानी बहुत करीब से आरम्भ होती है। एकदम मेरी आँखों के सामने से। . . . और वहाँ तक पहुँच जाती है जहाँ उनकी कला की तूती बोलती थी। उनका वह उफनाता हुआ जीवन दादा-दादी की कहानियों का अद्‍भुत स्वरूप धारण कर मेरे सामने आया था। . . . तब जब मैंने बहुत करीब से उनको और उनकी कला को बिखरते देखा था। तार-तार होती संवेदनाओं को पिघलते देखा था। मेरे हृदय में उनकी छवि का विकास अभी. . . यही इक्कीसवीं सदी से ही बनना आरम्भ हुआ था। पर वहाँ तक पहुँचा था जहाँ मैं नहीं, मेरी संवेदनायें नहीं थीं। महज कुछ बातें थीं जो दादा-दादी और उनके हमउम्रों से सुनी थीं। साथ ही उनके अंत में उनके आस-पास के वातावरण से समेटी थीं। . . . तो बंधूलाल ढोलकिया की कहानी, जो आज से शुरू होकर अपने पीछे वहाँ तक जाती है, जहाँ से उनकी कला का आरम्भ हुआ था। . . . और पहुँचा था उस जगह तक जहाँ उनकी कला का अंतिम संस्कारा हुआ। चारो ओर का वातावरण होली के रंग से रंगीन था। शराब की मस्ती गाँव के सिर पर चढ़कर बोल रही थी। अश्लील गीतों की कानफोडू ध्वनि से पूरा गाँव कंपायमान