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मरिहइं नाइं इत्ती जल्दी...

मरिहइं नाइं इत्ती जल्दी... Ø सुनील मानव त म्बाकू पी जा चुकी थी , चिलम में अब केवल राख थी। बावजूद इसके हरिहर स्मृतियों में खोये हुए एक लम्बा सुट्टा लगाते तो एक-आध चिनगी मुस्कुरा ही पड़ती थी। अपने बरोठे में एकचित हुए बैठे अधेड़ हरिहर की निगाहें सामने नहर के बाजू में पसरी सड़क से मानों किसी बात पर जिरह सी करती प्रतीत हो रही थीं। सड़क थी कि अपने गड्डों से आने-जाने वालों को बचाती या बचने का मूक इशारा करती हुई हरिहर से मुंह चिढ़ा रही थी। अभी दो साल पहले ही एम.एल.ए. के चुनाव से ठीक महीने भर पहले ही इस सड़क पर रमेसुर ठेकेदार ने पत्त्थर डलबाकर कोलतार पुतवाया था, सो चुनाव होते ही प्रत्याशियों के साथ सिमटा चला गया और सड़क थी कि वहीं अपने पुराने आवरण में बिछी रह गई थी। समझ ही नहीं आ रहा था कि इस बहस में हरिहर के चेहरे पर विजयचिन्ह थे या इस सड़क पर। यह रोज का ही काम बन गया था कि जब भी हरिहर थोड़ी-बहुत फुरसत में होते तो बरोठे में चुपचाप बैठकर सामने पसरी पड़ी सड़क को निहारते रहते थे। जब से थर्मल पावर के लिए उनकी जमीन चली गई तब से उनकी दिनचर्या बदल गई थी। नहीं तो पहले हरिहर को खेत-खलिहान से