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Showing posts from June, 2018

पुस्तक : मैं बोरिशाइल्ला लेखक : महुआ माजी विधा : उपन्यास प्रकाशक : राजकमल पेपरबैक्स, नई दिल्ली संस्करण : 2007 मूल्य : रु. 195 (पेपरबैक)

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बंगलादेश के अभ्युदय पर लिखा गया एक बेहतरीन उपन्यास है यह । ‘बोरिशाल के एक पात्र से शुरू हुई यह कथा पूर्वी पाकिस्तान के मुक्ति संग्राम और बांग्लादेश के रूप में एक नए राष्ट्र के अभ्युदय तक ही सीमित नहीं रहती बल्कि उन परिस्थितियों की भी पड़ताल करती है, जिनमें साम्प्रदायिक आधार पर भारत का विभाजन हुआ और फिर भाषायी तथा भौगोलिक आधार पर पाकिस्तान टूटकर बांग्लादेश बना । समय तथा समाज की तमाम विसंगतियों को अपने भीतर समेटे यह एक ऐसा बहुआयामी उपन्यास है जिसमें प्रेम की अंत:सलिला भी बहती है तथा एक देश का टूटना और बनना भी शामिल है । यह उपन्यास लेखिका के गम्भीर शोध पर आधारित है और इसमें बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के दौरान पाकिस्तानी सैनिकों तथा उर्दूभाषी नागरिकों द्वारा बांग्लाभाषियों पर किए गए अत्याचारों तथा उसके जबर्दस्त प्रतिरोध का बहुत प्रामाणिक चित्रण हुआ है ।’ बकौल कृष्णा सोबती ‘इसने हिन्दी में तथ्य आधारित रचनाशीलता को नया श्वरूप और विस्तार दिया है ।’ राजेन्द्र यादव का कहना है कि ‘महुआ माजी का यह उपन्यास बांग्लादेश के मुक्ति-संग्राम और एक नए राष्ट्र क अस्तित्त्व में आने की कहानी है । इसे कहने

नदी : मेरी आत्मा हो तुम

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#सेव गोमती# अभियान, मोहम्मदी के साथियों को समर्पित जो तन मन और धन से गोमती के अस्त्तिव रक्षा में लगे हुए हैं : सुनील मानव । मेरे सपनों में, पिछली कई रातों से एक नदी आती है । ह्ंसती मुस्कुराती मचलती खिलखिलाती और स्वप्न के अंत को रसहीन बनाती हुई-सी पानी की छलछलाहट में तैरता कूदता फांदता और गोते लगाता हुआ-सा मैं खोने लगता हूँ नदी की जलविहीन धारा में (पागलों की भांति मचलता हुआ) एकाएक सूख चुका-सा जल मेरे अंदर भर देता है रेत-सा खुरदुरापन और नदी की सजीवता का मृत हो चुका-सा एक चित्र । मेरे बचपन की वह नदिया जिसमें तैरा करती थी मेरी कल्लो भैंस और भैंस की पीठ पर औंधे मुंह लेटा हुआ-सा मेरा वजूद पानी की वह छलछलाती बूंदें और कीचड के सूख चुके दाग मेरी आत्मा की अनंत गहराइयों पर चिपक गए हैं । जैसे चिपका करती थीं कल्लो भैंस की गर्दन के नीचे छोटी और सफेद-सी मटमैली और घृणास्पद एक किलनी । मेरे बचपन की वह नदी जो मेरी दादी की अनगिनत कहानियों का सजीव रूप हुआ करती थी अब मेरे गले और आत्मा में चिपकी हुई है । मेरी आत्मा में बहने वाली नदी की कलकलाहट सूख चुकी है जैसे सूख

वॉइट टाइगर की तलाश

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‘वॉइट टाइगर’ की तलाश तो महज उस रोमांचक सफर का प्रेरणा बिन्दु बना, असल किस्सा तो पिछले सात-आठ सालों से पक रहा था । अचानक प्रोग्राम बना और हम निकल पड़े । बात उन दिनों की है जब मैं शाहजहाँपुर में रहता था । पोस्टग्रेजुएट के समय जब शाहजहाँपुर के रंगमंच पर किताब लिखने का कार्य आरम्भ किया तो सामग्री और बिखरे पड़े इतिहास की खोज के दौरान मेरी मुलाकात डॉ. प्रशांत अग्निहोत्री से हुई । वह शाहजहाँपुर के ही दूसरे महाविद्यालय ‘स्वामी सुकदेवानंद महाविद्यालय’ में असिस्टेंट प्रोफेसर थे । पढ़ने-लिखने में गहरी रुचि वाले डॉ. प्रशांत से ज्यों-ज्यों मुलाकातें बढ़ती गईं, हमारे बीच एक रिस्ता बनता गया । उनकी रुचि गीत लेखन के साथ-साथ क्षेत्रीय इतिहास में खूब थी, जो मेरे रिस्ते की मज़बूत कड़ी बनी । हम कई बार क्षेत्र के सुदृढ़ इतिहास पर खूब देर तक बातें करते थे । इसी सिलसिले में एक बार मेरा उनसे जिक्र हुआ कि ‘मेरे घर के पास में एक स्थान है ‘माती’, जो ऐतिहासिक राजा बेन के नाम पर विख्यात है ।’ उनको पहले से इस स्थान की कुछ-कुछ जानकारी थी । जब उन्होंने मुझे उस क्षेत्र के पास का रहने वाला समझा तो उनकी वहाँ जाने की उत्सुकता

॥ जल, जंगल और ज़मीन को बचाने की जद्दोजहद : सुनील मानव ॥

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॥ नदी ॥ आज हमारे सामने सबसे बड़ा संकट जल, जंगल और ज़मीन को बचाने का है । मज़े की बात यह कि बावजूद इसके भी हमारे समाज का बड़ा वर्ग इसके प्रति चिंतित नहीं है । उच्च्य मध्य वर्ग इसको सबसे अधिक नुकशान पहुँचा रहा है, ऐसा कहने में मुझे कोई गुरेज नहीं है । जबकि निम्न वर्ग एवं निम्न मध्य वर्ग इसको लेकर अन्यों की अपेक्षा कहीं अधिक चिंतित हो रहा है, इसको भी स्वीकारना पड़ेगा । मेरी ननिहाल शाहजहाँपुर से पुवायाँ रोड पर सिंधौली के पास एक गाँव ‘कठपुरा’ में है । बड़ा मज़ा आता था जब लोग कहते थे कि मेरी ननिहाल नदिया के पार है । जी हैं यह सच है । मुझे अपनी ननिहाल जाने के लिए ‘खन्नौत नदी’ पुल न होने की बजह से घुसकर पार करनी होती थी । यह बड़ा रोमांचक अनुभव होता था मेरे लिए । बचपन में नाना के यहाँ जाने पर उनके साथ जानवरों को लेकर नदिया नहलाने जाना, आज भी मन को प्रफुल्लित कर जाता है । घण्टों नदी की धार में हमउम्र मित्रों के साथ खेलना आज भी याद है । आज यह नदी भी अपना वह स्वरूप खो चुकी है । मेरे गाँव के पास दो प्रसिद्ध मेले लगा करते थे । एक माती का मेला और एक शारदा का मेला । माती में मेला प्रत्येक अमावस्या अथवा पू

लहक में प्रकाशित समीक्षा

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