Posts

Showing posts from 2020

जो बीत गईं वह बातें, संबल भरतीं जीवन में …

Image
क्या बला का खूबसूरत था स्नातक से लेकर शोध तक का समय । एक अलग ही जुनून हुआ करता था पढ़ने का । नहाना, खाना, जीवन की दिनचर्या जैसे शब्दों का कोई महत्त्व ही न हुआ करता था । जितना पढ़ता जाता, अज्ञानता का दायरा उतना ही बढ़ता जाता । लेकिन क्या ही गज़ब का जुनून हुआ करता था । अध्यापकों और साथी लड़कियों के मन में बसने का लालच । विद्वान बनने की अति महत्त्वाकांक्षा । साथियों के बीच श्रेष्ठता का दंभ । बहुत कुछ दिखावटी सा हुआ होगा, आज दिखता है । बावजूद इसके पढ़ने लिखने की ललक मज़बूत से मज़बूत होती गई । स्नातक से लेकर आगे तक, सिलेबस तो कभी पढ़ा ही नहीं । बस उससे जुड़ी सैकडों किताबें चाटता रहता । बाबा कहते "असल पढ़ाई तो सिलेबस के बाहर की ही होती है ।" … और जब पढ़ने में मन न लगता या कुछ समझ में न आता तो बापू समझाते "किताब को आँखों के सामने से हटने न दो, कितनी देर समझ में न आएगी । पढ़ते जाओ, बस पढ़ते ही जाओ ।" साथी ही अलग-अलग प्रकार की किताबें सुझाते । … आगे चलकर अरशद और साजिद सर ने तो जैसे भूचाल ही ला दिया जीवन में । वो मेरे जीवन के आदर्श बनकर आए । लेखन के साथ जीने वाले इन दोनों आदर्शों ने किताबो

चोरी और पिटाई बनाम कुंडल चोरी का आरोप …

Image
मैं अपनी पीढ़ी का पहला जीवित बच्चा था अपने परिवार का । ऊपर से लड़का । घर के लोगों का कहना था कि मुझसे पहले एक-दो बच्चे मर चुके थे, और मैं बड़ी मिन्नतों बाद बचा था । कर्मकाण्डी ब्राह्मण परिवार द्वारा जितने जतन हो सकते थे बचाने के, सब किए गए थे । तुलादान से लेकर जन्मते ही दलित दादी के हाथों बिक्री तक । जन्मदिन भी नहीं मनाया गया कभी । घर के लोगों का मानना था कि मुझसे पहले के लड़के का मनाया गया था, वह न रहा । इसलिए मेरा जन्मदिन नहीं मनाया गया । बावजूद इसके मुझे अत्यधिक लाड़, प्यार, स्नेह, अधिकार और छूटें मिलीं जो पुरुष प्रधान परिवारों में ‘लड़कों’ को आज भी मिलती हैं ।  जिया-बाबा से लेकर अम्मा-बापू, चाचा-चाची, बुआ और अन्य सभी । कारण एकमात्र मेरा लड़का होना था, क्योंकि बाद में घर में जो लड़की पैदा हुई वह उन अधिकारों और छूटों से, लाड़, प्यार और स्नेह से वंचित रही । यदि मेरी पीढ़ी में मुझे छोड़ दिया जाए तो मेरे तथाकथित ब्राह्मण परिवार में यह स्थिति अब तक बनी ही हुई है । आज चौथी पीढ़ी के लड़का और लड़की में ‘दूरी’ को स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है । खैर ! यह तो बड़ी रामकथा है । कभी न खत्म होने वाली । वास्तविक म

#आ_जा_रे_कन्हैया_तोहे_राधा_बना_दूँ

Image
रामानन्द सागर के धारावाहिक ‘श्री कृष्णा’ में एक दृश्य देखा था कभी । दृश्य था कि कृष्ण और राधा यमुना किनारे बैठे हुए प्रेमालाप कर रहे हैं । उनमें बातचीत हो रही है ।  कृष्ण : राधा उस दिन होली पर तुम वहाँ से चली क्यों गई थीं ...  राधा : तुम इतना बरजोरी जो कर रहे थे ...  कृष्ण : बरजोरी ! ... मैं ... मैं तो केवल रंग लगा रहा था तुम्हें ... राधा : तुम सभी मर्यादा भूल जाते हो कान्हा ... कितने लोग थे वहाँ ...  कृष्ण : तो क्या हुआ ... प्रेम में काहे की मर्यादा ... मेरा मन किया तो मैं रंग लगाने लगा ... इसमें मर्यादा हीनता की कौन सी बात है ...  राधा : काश ! तुम राधा होते ...  कृष्ण : अच्छा ! तो क्या होता ...  राधा : तो तुम समझ पाते कि ‘राधा होना’ कितना मुश्किल होता है ...  कृष्ण : मुझे तो इसमें कोई मुश्किल नहीं लगती राधा ... राधा : क्योंकि तुम राधा नहीं हो ना  कृष्ण : तो बन जाता हूँ मैं राधा ...  राधा : (राधा हँसती है) ... तुम राधा बनोगे !  कृष्ण : तो ... इसमें हंसने की क्या बात है ... मैं राधा बन जाता हूँ और तुम कृष्ण बन जाओ ... राधा : कैसे ...  कृष्ण : ... कैसे क्या ... तुम्हारा लहंगा, चोली, ओढ़

सवर्णेतर जातियों का ‘ब्राह्मणवाद’ : सुनील मानव

Image
आज बुद्धिजीवियों द्वारा सबसे अधिक चर्चा ‘जातियों’ को तोड़ने, उनसे मुक्ति पाने को लेकर की जाती है बावजूद इसके उन्हीं द्वारा इन ‘जातियों’ का सबसे अधिक पोषण भी किया जा रहा है । सवर्ण से लेकर दलित तक सब अपने-अपने ढंग से दूसरे की ‘जाति’ को गालियाँ देते हुए अपनी-अपनी ‘जातियों’ के इतिहास को खंगाल रहे हैं, लिख रहे हैं और प्रत्येक स्तर पर उसको मज़बूत बनाने के लिए कार्य कर रहे हैं । तब यह झूठा वितंडावाद किस लिए कि जाति नहीं होनी चाहिए !  अभी पिछले दिनों हमारे एक मित्र का एक लिखित संदेश आया और उस पर मेरी राय मांगी । तो पहले उनका यह संदेश देख लेना चाहिए । यह संदेश एक संवाद के रूप में है जो हमारे एक मित्र और दलित चिंतक के मध्य हुआ । बाद में मैं भी उसमें सम्मिलित हुआ । “मेरे मित्र : सर नमस्कार ! आज फेसबुक पर आपका भी ‘जय भीम’ का अभिवादन पढ़ा । मैं इस अभिवादन या नारे के मनोविज्ञान को बहुत नहीं जानता । कब, किसने और क्यों शुरू किया ? लेकिन जानना चाहता हूँ । क्या यह ‘जय श्री राम’ के विरोध में शुरू किया गया है या कोई और कारण है ? दूसरे मैंने सामान्यत: किसी बड़े बुद्धिजीवी या साहित्यकार के मुँह

जी लूं वह जो रहा उधार

Image
#जी_लूं_वह_जो_रहा_उधार मन करता है इस बचपन को पा लूं फिर से उड़ जाऊं बिन पंखों के ही पंक्षी का अहसास साथ ले खेलूं गाऊं कूद-कूद जाऊं मैं  इस बचपन की बनूँ इबादत छोटे-छोटे बिंबो पर  लिखूं अमिट शब्दावलियाँ मैं मन करता है इस बचपन को पाकर फिर से  जी लूं वह जो रहा उधार . . .  सुनील मानव 15.08.2016

गाँव की बड़ी पूजा

Image
#जानिए_मेरे_गाँव_जगतियापुर_को : 55 #रच्छा_करिअउ_देवी_मइया . . .  गाँव में हजारों वर्षों की परम्परा थी #बड़ी_पूजा’ की और तभी से सुअर के दो बच्चों की बलि भी होती चली आई थी । पुजारी के सामने ही #मेठ’ दोनों बच्चों को #हसिए’ से काटता चला आ रहा था । सभी प्रसन्न । सभी उत्सव मनाते थे । वही हजारों वर्षों से । ... और हजारों वर्षों बाद मैं इस बलि में #अड़ंगा’ बन कर कूद गया था ।      मुझे गाँव की इस पूजा में यदि कोई दिलचस्पी नहीं थी तो उससे कोई गुरेज भी नहीं था । बल्कि मैं इस पूजा को गाँव के लिए कुछ अर्थों में सकारात्मक रूप में ही देखता था । कम से कम यह गाँव का एक ऐसा बड़ा अवसर था जब सभी एक साथ होते थे । एक साथ काम करते थे । काम की तैयारी करते थे । आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक रूप से एक प्लेटफ़ार्म पर खड़े होते थे । पर इस पूजा में #सुअर’ के दो बच्चों की हसिए से धीरे-धीरे काटकर जो नृसंस हत्या होती थी, उसने मुझे इस हत्या के विरुद्ध खड़ा होने के लिए मज़बूर कर दिया । मैं खड़ा हुआ और इस हत्या को रुकवा भी लिया । कुछ विरोध हुआ तो कई नौजवानों ने मेरा प्रत्यक्ष / अप्रत्यक्ष साथ भी दिया ।   हजारों सालों से चली आ रही

भगवतशरण अवस्थी

Image
#जानिए_मेरे_गाँव_जगतियापुर_को : 53 #बाबा_की_पुण्यतिथि_पर_स्मरण_करते_हुए बाबा को दुनिया से गए आज #पाँच_साल हो गए । गए क्या पूरा परिवार ही बिखरता चला गया । सबके स्वार्थ और परिस्थितियों ने ‘खुशियों के पूर’ रूपी परिवार को खंड-खंड कर दिया । इस खंडत्त्व में अधिकांश प्रसन्न भी हैं लेकिन मैं टूट गया और अपनी टूटन में घुटने लगा । खैर ! इसे कहीं अलग विस्तार दूंगा । यहाँ कुछ और संवेदनाएँ हैं, जिन्हें सहेजने का प्रयास है । आप चले गए । पाँच साल हो गए लेकिन ऐसा लग रहा है कि कहीं तीर्थयात्रा पर गए हैं । आते ही होंगे । बगिया में आपकी समाधि को गाँव में होने के दौरान दिन में एक-आध बार देखा आता हूँ दूर से, जिसमें मैंने अपने हाथों आपको बिठाया था । सन्यासियों की पूरी क्रियाविध से । यह आपका ही आदेश था । मैं और छोटे चाचा । साथ में उनके एक शिष्य । लग ही नहीं रहा था कि आप अब हमेशा के लिए समाधिस्ट हो रहे हैं । गहरे गढ्ढ़े में आपको बिठाकर । सभी कर्मकांड करने के बाद जब आपके शरीर को गलाने के लिए नमक भरा जा रहा था, बिलकुल ऊपर तक, सिर के ढकने तक भर जाने से एक पल पहिले तक यही लगता रहा कि आप उठेंगे । थोड़ा हिले-डुलेंगे औ

टेंढ़े बाबा

Image
# जानिए मेरे गाँव जगतियापुर को : 52 # सिब_भोलानाथ_देबन_मइं_महदेबा... हमारे बाबा के चचेरे भाई थे पं. रघुनंदन प्रसाद अवस्थी, जिन्हें कुछ झुककर चलने के कारण घर-परि वार से लेकर गाँव-गिराँव के उनके हमउम्र या उनके प्रति कुछ विद्वैष का भाव रखने वाले कुछेक लोग ‘टेढ़ें’ कहा करते थे । बावजूद इसके मेरे लिए वह निश्छल रूप से स्नेह देने वाले बाबा ही थे । बाबा के साथ मेरे परिवार का पारिवारिक द्वेष चलते रहने के बावजूद भी मेरे प्रति उनका प्रेम कभी कम न हुआ था । उनके स्वरूप का बिंब आज मेरे मस्तिष्क में भले ही अस्पष्ट हो गया हो लेकिन बाबा से जुड़ी कुछेक स्मृतियाँ उन्हें आज भी हमारे हृदय में बसाए हुए हैं । ‘धमार गीतों’ के संग्रह के दौरान जब-जब ‘सिब भोलानाथ, देबन मइं महादेबा’ गीत सामने आया तो हरिपाल बाबा पूरे उत्साह से बताने लगे थे कि ‘यह गीत तुम्हारे बाबा रघुनंदन प्रसाद जी के अतिरिक्त कोई और पूरे गाँव में नहीं गा पाता था, क्योंकि यह गीत धमार का सबसे बड़ा गीत था । उनके मरने के साथ ही इस गीत की गबंत भी समाप्त हो गई ।’ बाबा शिव भक्त थे । उनकी पूजा-आराधना से मैंने यह देखा ही था । इससे जुड़ी एक स

मटिकढ़ा

Image
# जानिए मेरे गाँव जगतियापुर को : 51 # हुअन_गियारह_मूड़_गड़े_हइं... ‘मटिकढ़ा बाले बरमबाबा’ से जुड़ी मेरी यादों पर बात करने से पहले इसके अर्थ को समझ लेना कुछ आवश्यक है । ‘मटि’ यानि की ‘माटी’ ‘कढ़ा’ यानि की ‘काढ़ना’ अर्थात् ‘निकालना’ बोलें तो वह स्थान जहाँ से मिट्टी निकाली जाती है । मेरे गाँव की सीमा का वह तालाब जहाँ से ग्रामीण अपने घरों को लीपने के लिए ‘पड़ोर’ निकाला करते थे । ‘पड़ोर’ मिट्टी अत्यधिक चिकनी होती है और अमूमन तालाबों में ही पाई जाती है । तालाबों में इसलिए क्योंकि बरसात आदि का जो पानी तालाबों में आता है, उसमें पाए जाने वाले मिट्टी के कुछ बड़े कण पानी के बहाव में बह जाते हैं जबकि अत्यधिक छोटे-छोटे जो कण होते हैं वह तालाब की तलहटी में बैठ जाते हैं । ग्रामीण इन्हीं एकत्रित कणों को ‘पड़ोर’ कहते हैं और तालाब में जब पानी कम होता है तभी उसे निकालकर अपने-अपने घरो में इकट्ठा कर लेते हैं । बाद में ‘चौकों’ यानि कि रसोईघरों की रोज-रोज की पुताई और कच्ची दीवारों की पुताई तथा आँगन आदि की लिपाई के लिए इसका प्रयोग किया जाता है । आँगन की लिपाई के समय इसमे

भूत

#जानिए_मेरे_गाँव_जगतियापुर_को : 50 #हाइ_दइया_माड्डारो ... आप मानें या न मानें आज से बीस-पच्चीस साल पहिले तक ‘भूत’ कभी न कभी हर किसी को मिलता ही रहा है । गाँव-गिराँव की लड़कियों-औरतों पर वह आज अभी आ जाता है लेकिन उस समय तो ये ‘भूत’ महराज हमारी रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा हुआ करते थे । बाद में जब गाँव-गाँव आइसर ट्रेक्टर आने लगे तो लोग उसकी आवाज से हँसी-ठिठोली करते हुए कहते ‘जबसे जहु सारो आइसरु आओ... जहने सब भूत भजाइ दे...’ एक बार मुझे भी ‘साक्षात भूत’ मिला । बड़ा मज़ेदार किस्सा है और ऐसे किस्से हम सभी के पास किसी न किसी रूप में हो सकते हैं ।  ...तो #भूत_का_किस्सा । उस समय मैं यही कोई छठी-सातवीं में पढ़ता रहा हूँगा । घर पर ट्रेक्टर था नहीं उस समय । दो बैल थे – भूरा और सफिदा । भूरा सीधा-साधा था तो सफिदा उसका विलोम । खूब खुराफ़ाती । प्रेमचन्द के हीरा-मोती जैसे । हूबहू । पूरी खेती-किसानी का भार इन पर ही था । बड़े चाचा बाहर नौकरी करते थे और छोटे चाचा बाहर पढ़ते थे । घर पर परमोद चाचा और बापू थे । बाबू वैद्य हैं । इसलिए किसानी का भार परमोद चाचा पर ही था । हाँ बापू मरीज़ों से फ़ुर्सत पाकर खेती-किसानी मे