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Showing posts from May, 2020

राजिंदर चच्चा

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#जानिए मेरे गाँव जगतियापुर को : 46 #अम्मा_हो_बउ_आओ_हइ_पंडितकु_लउड़ा रजिन्दरा उर्फ़ राजेन्द्र प्रसाद वाल्मीकि । बोलें तो ‘गंठी दादी’ का बड़ा लड़का । वही ‘गंठी दादी’ जो मेरी किताब ‘गंठी भंगिनियां’ की नायक हैं । दादी की बात हो और उसमें ‘राजिन्दर चच्चा’ का जिक्र न आए तो बात पूरी न होगी । जिस दर्द को दादी ने जीवन भर झेला, ‘राजिन्दर चच्चा’ ने भी उससे छुटकारा पाने का कोई खास प्रयास न किया । उन्होंने अपनी माँ और पिता की परंपरा को बनाए रखा । कुछ उच्चकुलीन दबंगों के सामाजिक दबाव से और कुछ सदियों से चली आ रही गुलामी के वशीभूत होकर । अच्छी बात यह कि ‘राजिन्दर चच्चा’ का लड़क नई राह पर चलने का प्रयास कर रहा है । देखकर प्रसन्नता होती है । ... तो बात होती ‘राजिन्दर चच्चा’ पर ।  ‘राजिन्दर चच्चा’ की उम्र इस समय यही कोई पैंतालिस से पचास के बीच हो रही होगी । इसके साथ ही जातीय असमानता के चलते भी हमारे बीच कोई खास प्रकार का मैत्री संबंध न रहा । हाँ ! दादी के साथ कई बार इन्हें देखा करता था । दादी जब गाँव के घरो में ‘जूठन’ माँगने आती थीं तो उनके तीनों लड़के उनके साथ आते थे कभी-कभी । बाद में एक लड़के की मृत्यु हो गई,

भारतीय समाज के पहले प्रतिशील नेता कृष्ण

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मुझे लगता है कृष्ण भारत के पहले प्रगतिशील नेता थे ,  जिन्होंने प्रगतिशीलता को महज बौद्धिक वाग्विलास तक सीमित न रखकर उसे जीवन में उतारा । कृष्ण ने बचपन से ही पूंजीवादी सत्ता का विरोध किया और तत्कालीन शक्तिशाली राजाओं ,  सामंतो से लोहा लिया तथा जनता को इसके लिए तैयार किया । गोकुल में रहते हुए कृष्ण ने जनमानस अथवा जिन्हें हम आम आदमी कहते हैं ,  उनको नेतृत्त्व प्रदान किया । पूंजीवादी शक्तियों से लोहा लेते हुए तत्कालीन समाज में व्याप्य बाह्याडंबरों का डटकर विरोध किया । उन्होंने जाति ,  धर्म ,  रीति ,  परंपरा, ऊंच ,  नीच आदि सबको एकसूत्रता में बांधा था । वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने पुरुष सत्ता के समकक्ष स्त्रियों को उनके मौलिक अधिकारों से रूबरू करवाया था । आर्य सिद्धान्त ,  जिन्होंने समाज को वर्गों में बांटने का प्रयास किया ,  उनका खण्डन किया । पशुधन के साथ-साथ ग्रामीण लघु उद्योगों को बढावा दिया । आयात-निर्यात के नवीन मानक स्थापित किए । कृष्ण ने सामाजिक अंधविश्वासों को तोडा था ,  उन्होंने खोखले आदर्शवाद को सिरे से खारिज किया था ,  उन्होंने स्त्री को उसके वजूद व उसके अधिकारों से

शब्द और उसकी ‘नो एज’

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हमारे शब्द बाबू अभी तीन साल के होने वाले हैं । उनकी समझ तेजी से विकसित हो रही है । लगातार पूछे जाने वाले प्रश्न पहले की अपेक्षा कुछ गंभीर हो चले हैं । अपने प्रश्नों के उत्तर पाने के साथ ही अब वह प्रतिउत्तर भी करने लगे हैं । यानि कि एक प्रश्न से कई-कई प्रश्नों का सृजन सहजता से हो रहा है । उत्तर देने वाले के लिए यह थोड़ा मुस्किल भरा कार्य अवश्य है लेकिन बच्चे की सहज जिज्ञासा को शांत तो किया ही जाना चाहिए ।  आज शब्द या शब्द जैसे तमाम बच्चों की एक विशेष आदत के बारे में बात कर रहा हूँ । मैंने अनुभव किया कि एक साल से ऊपर, मान लीजिए कि डेढ़ साल से लेकर करीब-करीब तीन साल तक बच्चों की ‘नो एज’ आरम्भ हो जाती है । इस उम्र के दौरान सभी बच्चे ‘नो’ करना सीख जाते हैं और इस ‘नो’ का खूब प्रयोग करते हैं । इसका मुख्य कारण यह हो सकता है कि उनकी इस उम्र में उनकी जिज्ञासा अत्यधिक उर्धोन्मुखी होने लगती है । वह किसी भी बात को या किसी भी वस्तु को आपके अनुसार नहीं स्वीकारना चाहता है बल्कि स्वयं से उस वस्तु या बात को जानने-समझने का प्रयास करता है । यह सबसे कठिन उम्र होती है ऐसे बच्चों के अभिभावकों के लि

जाति, जाति में जाति है

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जाति जाति में जाति है : सुनील मानव यहाँ बात तो मैं ‘जाति’ की करने जा रहा हूँ लेकिन उससे पहले अपने जिस गाँव ‘जगतियापुर’ के संदर्भ में यह प्रसंग छेड़ रहा हूँ उसकी साक्षरता और सामाजिक बुनावट पर पर भी संक्षिप्त रूप में प्रकाश डालना चाहता हूँ ।  मेरा गाँव जगतपुर । अपने अपभ्रंष ‘जगतियापुर’ के नाम से कहीं अधिक पहचाना जाता है जो कि उसके पिछड़ेपन का भी सूचक रहा है । पिछड़ापन पद, प्रतिष्ठा और संपत्ति का । किसी व्यक्ति पर यह नियम जितनी मज़बूती से लागू होता है, व्यक्तियों के समूह अर्थात ‘गाँव’ पर भी उतनी ही मज़बूती से लागू हो जाता है । तो इस बात को समझने के लिए सबसे पहले इस ‘जगतियापुर’ की आर्थिक, सामाजिक और शैक्षिक स्थिति पर एक दृष्टि डालनी होगी ।  सबसे पहले मैं पूरे गाँव को तीन प्रमुख भागो में बाँट रहा हूँ और यह तीन वर्ग हैं – ‘ब्राह्मण परिवार’, ‘दलित परिवार’ और ‘अन्य सभी परिवार’ । पाँच वर्ष तक के बच्चों को छोड़कर पूरे गाँव की जनसंख्या होती है करीब 1100 से 1200 के आस-पास । इसको अब इन वर्गों के आधार पर देखते हैं ।  01. ब्राह्मण वर्ग – इसमें मात्र दो परिवार हैं, जिनकी कुल जनसंख्या है 45 व्यक्

बंधा

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#जानिए_मेरे_गाँव_जगतियापुर_को : 45 #तुमइं_का_पता_तुम_ता_कल्लिकि_लरिका... संभवत: यह पहली दफ़ा था कि हमारे #गाँव_की_प्रधानी सवर्णों से निकलकर पूर्ण रूपेण किसी #अवर्ण के पास आई थी । नाम था #बंधा’ । लोग जाति का नाम जोड़कर कहते थे #बंधा_धोबी’ जो प्रधानी आने के बाद #बंधा_परधान’ कहलाने लगे थे । बावजूद इसके गाँव-गिराँव के लोग उनसे #बंधा_बाबा’, #बंधा_चच्चा’, #बंधा_दउवा’, #बंधा_परधान’ या #बंधा’ आदि संबोधनों से पुकारते थे । उनके कुछ हम उम्र व्यंग्य भरे लहजे में उनसे खड़ी बोली में #प्रधान_जी’ कह कर पुकारते । पहले कुछ दिन वह अचकचाए लेकिन धीरे-धीरे ‘प्रधान जी’ संबोधन पर वह गर्व भी करने लगे थे । उनके मस्तिष्क पर गर्व की रेखाएँ खिच आती थीं । सीना थोड़ा फ़ूल जाता था और चेहरे पर सालीन प्रसन्नता का भाव दीप्त हो उठता था । मैं उन्हें #दउवा’ कहा करता था ।  #बंधा_दउवा ‘धोबी जाति से थे और पहली बार प्रधान बने थे । हमारे गाँव के लिए यह किसी विशेष घटना से कम नहीं था । अभी तक सवर्ण ही गाँव के प्रधान बनते चले आ रहे थे । संविधान ने सवर्णों से इतर जातियों को भी नेतृत्त्व का अवसर प्रदान किया । फ़िलह

उमाशंकर

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#जानिए_मेरे_गाँव_जगतियापुर_को : 44 #बहने_हमारी_फ़ोरी_ता_हमहूनि_फ़ोरि_दइ... #उमाशंकर हमारे भाइयों में लगते हैं । गाँव में हमारे घर के सामने ही इनका घर है । गाँव की #अवर्ण_जातियो में यदि सबसे अधिक किसी के घर जाना होता था तो वह #उमाशंकर_कुम्हार का ही घर हुआ करता था । इनकी बड़ी लड़की ‘रनियाँ’ हमारी हमजोली थी सो पीपल तले से लेकर हमारे और उसके घर हमारी गुड्डे-गुड़िए की शादी का खेल चलता रहता था ।  उमाशंकर का जीवन मेहनत-मज़दूरी भरा रहा । खेत-पात न होने के कारण वह किसी न किसी के खेत से लेकर बाद में घरेलू नौकर के रूप में भी काम करते रहे । वह हमारे बापू-चाचाओं से #चच्चा’ कहा करते थे तो हम सब उनसे ‘#उमाशंकर_दद्दा’ कहते थे ।  गाँव-गिराँव के लोग अक्सर कहा करते थे कि पूरे गाँव में ऐसा कोई और मज़दूर नहीं है जो उमाशंकर के बराबर काम कर सके । वह गाँव के सभी मज़दूरों से दो गुना काम करते थे । ... और इसी कारण पूरे गाँव तो गाँव आनगाँव तक के लोग उमाशंकर से काम करवाने के लिए उतावले रहते थे । एक की मज़दूरी में दो गुना काम पाकर कौन खुश न होगा ।  उमाशंकर की मज़दूरी के वक्त करीब-करीब एक शर्त भी होती थी । गाँव में उस समय मज़द

शंकर जी

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#जानिए_मेरे_गाँव_जगतियापुर_को : 43 #अहिलेसि_पहिलेइ_कोई_लाओ_रहइ... हमारे दुआरे एक #पीपल का पेड़ है जिसके नीचे एक बड़ा-सा #पत्थर रखा रहता था । इसे हम सब #शंकर_जी’ कहा करते थे । घर से लेकर गाँव भर की #आस्था_के_प्रतीक इन शंकर जी पर रोज ही घर और गाँव के अधिकांश लोग #जल’ चढ़ाया करते थे लेकिन हमारी#मित्र_मंडली का इन ‘शंकर जी’ से जो रिश्ता था, वह आस्था का कम और मैत्री या #सख्य_भाव’ का अधिक हुआ करता था । बचपन में हम सब मित्रों की मण्डली जब इस पीपल, जिसे हम सब #बरमबाबा’ कहते थे, की जड़ के घेरे में मिट्टी का घर बनाकर #गुड्डे_गुड़िया का ब्याह रचाने का #स्वाँग’ खेला करते थे । तब इन्हीं ‘बरमबाबा’ की गोद में दूसरी ओर हमारे यह शंकर जी भी बच्चों के साथ बच्चे हो जाया करते थे ।  इन शंकर जी को इन्हें हमारे घर या गाँव का ही कोई व्यक्ति गाँव के दक्षिण से निकली #रेलवे_लाइन से उठा लाया था और बरमबाबा महराज की गोद में रख दिया था । उस समय रेलवे लाइन पर नए पत्थर पड़े थे । उन्हीं पत्थरों में यह एक खूबसूरत पत्थर था । सफेद रंग के इस पत्थर के बीच में एक काली रेखा पड़ी थी, जिसको लेकर सब कहते थे कि ‘देखो यह कितने सत्त्वधारी श

साहब

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हां साहब ! मैं मजदूर हूं।  जी सही सुना आपने मैं मजदूर ही हूँ ... जिस महल में तुम रहते हो ?  मेरे ही हाथों ने गढ़ा है उसे   महल के ईंट गारे पत्थर से लेकर उसकी साज-सज्जा तक पर मेरे ही पसीने की छींटे दिखते हैं  जिसे तुम नक्काशी कहकर कर उठते हो 'वाह-वाह' लेकिन उस 'वाह-वाह' के नीचे सिसकती  मेरी आह को देखकर भी  अनदेखा करते आए हो हमेशा से ...  साहब !  तुम्हें अपने महलों की नक्काशी की जड़ों से  जो मेरे चिपचिपाते हुए पसीने की बदबू से  घिन आती है  हां साहब ! मैं वही बदबू हूँ जिसे तुम खूबसूरत शहरों पर लगा  बदनुमा दाग समझ  छुड़ाने का प्रयास कर रहे हो ।  साहब !  आपको और आपके रहन-सहन तक को  मेरे ही श्रम ने गढ़ा है  तुम्हारे अय्याशी के सामानों तक पर भी  हमारे ही खून के छींटे हैं  मदमस्त होकर  नशे में धुत होकर  चल रही तुम्हारी गाड़ियों के नीचे  हमने ही अपने को बिछाया है  हां साहब !  मैं तुम्हारे खूबसूरत फुटपाथों पर सोया  वही मज़दूर हूँ जिसे तुम  खुरच-खुरचकर साफ कर रहे हो अपने शहरों से ।  हाँ साहब !  मैं मज़दूर हूँ  और इसीलिए मजबूर भी हूं  क्योंकि मैं अपने सपनों के फेर में  केवल

बेलामती

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#जानिए_मेरे_गाँव_जगतियापुर_को : 40 #हाइ_दइया_जइ_का_अइसे_रहइं... #दिसम्बर_दो_हजार_सत्रह की बात है । मेरा एक शब्दचित्र #बच्चूलाल’ संवदिया पत्रिका में छपा था । मैं घर पर ही था जब मुझे पत्रिका मिली । शाम को मेरे शब्दचित्र के नायक ‘बच्चूलाल’ की पत्नी #बेलामती घर आईं । हम सब इन्हें #बुआ’ कहते हैं । हमने उत्सुकताबस बुआ को पत्रिका दिखाई । पीछे से बहन ने कहा ‘बुआ इसमें फ़ूफ़ा की कहानी छपी है । दादा ने लिखी है ।’ बेलामती बुआ के चेहरे पर स्नेह और कहानी को जानने की उत्सुकता छलक आई । पत्रिका हाथ में ही थी उनके । उलट-पलट के हर पन्ने को देखने लगीं कि पता नहीं किस पन्ने पर ‘उनकी कहानी’ छपी है या पूरी पत्रिका में ही तो नहीं छपी है । बुआ पढ़ नहीं सकती हैं, इसलिए उनके लिए पत्रिका के प्रत्येक शब्द ने #उनकी_कहानी’ (बच्चूलाल) का स्वरूप धारण कर लिया था । मैं काफ़ी देर तक उनकी वह भाव-भंगिमा देखता रहा । इतनी देर में ऐसा लगा न जाने कितनी स्मृतियाँ उनके चेहरे पर आती-जाती रहीं अपने पति को लेकर, जिसे हम समझ नहीं सकते थे । बस हल्का-हल्का महसूस कर रहे थे । कुछ देर में जब वह कुछ सामान्य हुईं । मैंने धीरे से उनके हाथ से प

बड़ी अम्मा

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#जानिए_मेरे_गाँव_जगतियापुर_को : 39 #हाइ_जिज्जी_हमहूँ_कतइ_तुम्हारे_किसी ... गाँव-गिराँव के सामाजिक रिश्ते बड़े मज़बूत और सहज होते रहे हैं । ऐसे ही रिश्ते की हमारी एक #बड़ी_अम्मा’ हैं । इनके पति #रामलाल_प्रजापति’, अब तो रहे नहीं, हमारे बापू के भाइयों में लगते थे । बापू से चूँकि बड़े थे तो वह हमारे ताऊ हुआ और हम सब उन्हें ‘दउवा’ कहने लगे । आस-पड़ोस घर होने के कारण पारिवारिक दूरियाँ कुछ कम रहीं और उनके घर के सभी सदस्य एक पारिवारिक रिश्ते में बँध गए । ... तो इसी प्रकार से ये हमारी ‘बड़ी अम्मा’ कहलाईं । हमारे बापू-चाचा आदि से बड़ी थी हीं सो सबके #भौजी’ लगती थीं । घर के बाहर #चकरोट’ है । जब भी वहाँ से निकलतीं, बापू-चाचा में से कोई न कोई कुछ मज़ाक कर देता था । वह भी मज़ाक का सालीन उत्तर दे दिया करती थीं । हम इस रिश्ते को हृदय में उतारते चले गए ।  उनका छोटा लड़का #खलोली’ हमारा हमउम्र था, सो साथ-साथ खेलना-कूदना लगा ही रहता था । वह भी हमारे घर के पास पीपल तले खेलता रहता और हम भी उसके ‘दुआरे’ खूब खेला करते थे ।  हमारे मोहल्ले या कहें कि तकरीबन पूरे गाँव में हमारी #जिया’ ही पढ़ी-लिखी थीं । वह अक्सर दोपहर में

आइसर ट्रेक्टर

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#जानिए_मेरे_गाँव_जगतियापुर_को : 38 #आइसरनि_सब_भूत_भजाइ_दे ... वर्ष उन्नीस सौ तिरानवे में हमारे घर ‘आयशर ट्रेक्टर’ आया था । उस समय पूरे गाँव में एक और ट्रेक्टर था । संभवत: वह भी ‘आयशर’ ही था । उसके बाद तो एक के बाद एक कई ट्रेक्टर गाँव में आए । ... और सबके सब ‘आयशर ट्रेक्टर’ । आस-पड़ोस के गाँवों तक में इन ट्रेक्टरों की बाढ़-सी आ गई थी ।  हमारा उत्साह चरम पर था उस दिन । बापू-चाचा आदि खुटार गए थे ट्रेक्टर लेने । सर्दी का महीना था । रात भी काफी हो चुकी थी । दूर से सुनाई देने वाली कोई भी अलग आवाज़ हमें घर से बाहर खीच लाती । हम सब बार-बार बाहर आकर देखते कि कहीं ‘हमारा ट्रेक्टर तो नहीं आ गया ।’ गाँव के हमारे साथी मित्र भी जाग रहे थे । पास-पड़ोसी भी । समय था कि कटने का नाम ही नहीं ले रहा था । जिया आदि बार-बार सोने के लिए कह रही थीं पर नींद कहाँ आँखो में ! यह मेरे जीवन का पहला इंतजार था, जो समाप्त होने का नाम ही नहीं ले रहा था ।  सब ‘पोर’ पर बैठे मेहमान, जो हमारे घर का सदस्य बनने जा रहा था, के स्वागत में तरह-तरह की बातें कर रहे थे । जिसके पास जितनी जानकारी थी, अतिश्योक्ति के साथ वर्णित कर रहा था ।

नकटा तालाब और बरमबाबा महराज

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#जानिए_मेरे_गाँव_जगतियापुर_को : 37 #जय_बरमबाबा_महराज ... #कक्षा_नौ के बाद तो गाँव से संबंध करीब-करीब कटने सा लगा था । लखीमपुर और उसके बाद शाहजहाँपुर जाने के बाद तो जैसे गाँव कुछ समय के लिए हृदय के किसी कोने में छिपकर सुस्ताने लगा था । एक बार, संभवत: एम.ए. हो चुका था, घर आना हुआ । कोई सवारी न मिल पाने के कारण #जोगराजपुर से पैदल ही चल घर की ओर चल दिया । जोगराजपुर और गाँव के बीच में मेरी तमाम सारी यादें बिखरी थीं । इस रास्ते पर आते ही मानो उनका संकोच समाप्त हो गया और सब उठ बैठीं । यकायक बचपन अपनी पूरी ‘रौ’ के साथ आँखों में खिलखिलाने लगा । ऐसा लगा कि सिनेमा की रील-सी चलने लगी हो आँखों के सामने ।  मैं घर की ओर लाइन के किनारे-किनारे चला जा रहा था । एक-एक कर इस राह से जुड़े सारे स्थान मुझसे बातें करने को, हाय-हैलो करने को आतुर दिखने लगे ।  #बिलबुझिया के बाद, जहाँ से #बबरौआ के लिए रास्ता मुड़ता है, वहाँ के #बरमबाबा_महराज’ हम दोस्तों की मौज-मस्ती के सबसे बड़े गवाह हुआ करते थे । घर से जब हम लोग पढ़ने के लिए जाते थे तो हमें सिखाया जाता था कि #बरमबाबा_महराज’ के हाथ जोड़कर ही आगे जाना और उनसे ‘अच्छे रहन

दस्सन

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#जानिए_मेरे_गाँव_जगतियापुर_को : 36 #तुम_यार_हउ_ता_घोड़ा_लेकिन_चल्त_गदहा_किसी ... आज से करीब बीस-पच्चीस वर्ष पहले का समय । स्थान #अमिलिइया_तीर’ । मदारी अपना खेल आरम्भ कर रहा है । उसे जरूरत है एक #जमूरे की । मदारी के चारो ओर लगी भीड़ से कोई जमूरा बनने को तैयार ही नहीं है । बस सब एक-दूसरे को ठेलते हुए जमूरा बनने के लिए ‘पिंच’ कर रहे हैं । कारण यह कि मदारी का कोई भरोसा नहीं है कि वह जमूरा बने हुए व्यक्ति के साथ क्या करेगा । एक ओर बैठे एक बुढ़ऊ हथेली पर न जाने कब से मली जा रही ‘खैनी’ को अपने ओंठ में दबोचते हुए अपना अनुभव सुना गए ‘उरेउ इनको सान्नकु कोई भरोसो नाइं ... एक दाउं इन्ने फलानेकि घींच काटि डारी रहइ ...’    मदारी विश्वास दिलाने का प्रयास कर रहा है कि ऐसा कुछ नहीं होगा । वह केवल खेल दिखाएगा । बावजूद इसके सब एक बात को लेकर तो आश्वस्त थे ही कि मदारी पूरे गाँव के सामने जमूरे की मजाक बहुत बनाता है । इसके लिए मना करते हुए मदारी की छूट गई हँसी और किसी को आगे नहीं बढ़ने देती । काफ़ी देर बाद भी जब कोई आगे नहीं बढ़ा तो यकायक #दस्सन, जो सबसे आगे उकड़ू बैठे थे, पूरे जोश के साथ मदारी के सामने आ बैठे । ल

बुद्धा

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#जानिए_मेरे_गाँव_जगतियापुर_को : 35 #आजु_रासनु_बटिही_होउ ... #बुद्धा के साथ मेरी कोई व्यक्तिगत ‘स्मृति’ जुड़ी न होने के बावजूद भी इनका हमारे गाँव में एक अलग ही महत्त्व रहा है । वह हमारे गाँव में ‘संचार’ के प्रमुख साधन के रूप में पहचाने जाते हैं ।   हमेशा नंगे पाँव और गमछे में रहन वाले #बुद्धा अब कुछ बुढ़ा चले हैं लेकिन इनके कार्य को देखकर कोई इन्हें बूढ़ा न कहेगा । मैंने जबसे होश संभाला तबसे ही #बुद्धा को कुछ इसी अंदाज़ में देखता रहा हूँ । हमेशा खिला-खिला व्यक्तित्त्व । आवाज़ में जोश और बच्चों सा खिलंदड़ापन संजोए बुद्धा हमारी नज़रों में सदा ‘नौजवान’ ही बने रहे ।   मुझे खूब याद है । गाँव में महेश सिंह बाबा की प्रधानी हुआ करती थी । लगातार तीन बार अर्थात पन्द्रह वर्ष तक प्रधान रहने वाले महेश सिंह बाबा के ये प्रमुख ‘कारकुन’ माने जाते थे । गाँव में कोई सूचना पहुँचा हो या गाँव की कोई बात उन तक पहुँचानी हो, बुद्धा इसमें पारंगत रहे । कोटे पर राशन आ गया हो या गाँव की पूजा के लिए चंदा इकट्ठा करना हो, होली पर धमार के लिए लोगों को इकट्ठा करना हो या किसी अन्य प्रकार की सूचना पूरे गाँव में देनी हो; #बुद्धा

महतइन

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#जानिए_मेरे_गाँव_जगतियापुर_को : 34 #जबसे_भोले_बाबाकि_सरणम_आईं_तबसे_कलिया_अरु_पउवा_छोड़ि_दो  .... गाँव-गिराँव में अधिकांश लोगों के नाम विस्मृत ही रहते हैं । उन्हें बस सामाजिक रिश्तों या उनके एक विशेष नाम से ही अधिक जाना-पहचाना जाता रहा है । इसी क्रम में हमारे गाँव की #महतइन’ का नाम विशेष रूप से मेरे सामने आता है । इनके पति को गाँव में सभी #महतिया कहकर पुकारते हैं और उनकी पत्नी होने के नाते इनका नामकरण #महतइन के रूप में प्रचलित हुआ ।   #महतइन गाँव में अधिकाँश हमउम्रों की ‘भौजी’ लगती हैं । इस कारण गाँव भरके अधिकाँश लोग उनसे हास-परिहास करते रहते हैं । #महतइन अपने पति #महतिया की भाँति अधिक सीधी नही हैं । वह तेज़-तर्रार हैं । क्या मज़ाल कि कोई उनका अहित कर सके । अपने पर आ जाएँ तो ऐसी की तैसी कर दें सबकी । उनके इसी स्वभाव से जुड़ी दो बातें दिल में समा गईं ।   गाँव में चुनाव का वातावरण था । कई प्रत्यासी आमने-सामने थे । #महतइन वोट डालने गईं तो किसी देवर लगने वाले ने चुहल करते हुए कह दिया कि ‘उनका नाम वोटर लिस्ट में नहीं है । किसी ने कटवा दिया ।’ फ़िर क्या था । महतइन ने पूरे गाँव में हंगामा काट दिया

महतिया

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#जानिए_मेरे_गाँव_जगतियापुर_को : 33 #तुम्हारी_मउसी_नाइ_आईं_अबकी_भजाइ_लइहीं_उनइं .... #महतिया जब भी हमारे या हम अन्य भाई-बहनों के सामने पड़ते तो बस एक ही वाक्य कहते #तुम्हारी_मउसी_नाइ_आईं_अबकी_भजाइ_लइहीं_उनइं’ । ... और इस वक्त उनकी आँखों में एक विशेष प्रकार का तेज, माथे पर उत्साह की रेखाएँ खिच आतीं । इस बात को कहने से अधिक वह केवल एक और बात को लेकर प्रसन्न हुआ करते थे । वह यह कि घर या गाँव में जब कोई उन्हें उनकी पत्नी को लेकर चिढ़ाता था ।  महतिया हमारे बापू-चाचाओं के भाइयों में लगते थे इस हिसाब से उनकी पत्नी हमारे को ये लोग ‘भौजी’ कहते थे । और भौजी से तो मनुहार करने का हक सभी को है । इसी रिश्ते से हमारी मौसी महतिया की  भी ‘साली’ हो गई थीं । बस दोनों पक्षों को एक-दूसरे से मनुहार करने का एक मज़बूत बहाना मिल गया था ।   एक बार मेरे घर में कोई काम था । ‘विद्यावती’ मौसी सहित अन्य तमाम सारे मेहमान एकत्र हुए थे । ढोलक बज रही थी । कोई स्वाँग बगैरह हो रहा था संभवत: । बीच में ढोलक फ़ूट गई । बड़ी मुसीबत । पता चला कि महतिया के घर अच्छी ढोलक है, लेकिन लेने कौन जाए । विद्यावती मौसी ने मोर्चा संभाला । वह गान

क्वारेनटाइन_की_गई_स्त्रियाँ

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#क्वारेनटाइन_की_गई_स्त्रियाँ 02 पहले वह  पिता और भाई के लिए  क्वारेंनटाइन की गईं फिर पति के लॉकडाउन में जीं अंततः बेटे की प्रसन्नता के लिए मुस्कुराती रही जीवन भर ।  वह एक स्त्री थी जो अपने हर रूप को  अपना कर्तव्य मान एक अलग पुरुष के साथ  एक अलग कर्तव्य के साथ  अपने जीवन का बस  सामंजस्य बिठाती रही ।  सही पूछो तो क्वारेंनटाइन की गई इन स्त्रियों के लिए  कोई भी 'डे'  कभी 'हैपी' नहीं होता है ।  @सुनील मानव 10.05.2020

बद्री दद्दा

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#जानिए_मेरे_गाँव_जगतियापुर_को : 32 #पहिलो_वीडियो_हमहीं_लाए_रहइं_गाउम .... हमने जबसे होश संभाला तबसे #बद्री_दद्दा को ही अपने घर और स्वयं मेरे सबसे नज़दीक पाया । गाँव-गिराँव के अन्य लोगों से भी मैत्री संबंध रहे । नाते-रिश्ते रहे लेकिन बद्री दद्दा घर-परिवार का एक अटूट हिस्सा बन गए । वह घूम-फ़िरकर दिन भर में दो-चार बार हमारी ओर आ ही जाते रहे हैं । जिस दिन दद्दा नहीं आते ऐसा लगता कि घर का कोई सदस्य कहीं बाहर गया है । रह-रह कर उनकी घर की ओर से आने वाले रास्ते की ओर आँखें चली जातीं । आज भी, इतने वर्षों के बाद भी यह क्रम अनवरत जारी है । कुछ सामाजिक परिवर्तनों के बावजूद भी बद्री दद्दा मेरी गाँव में उपस्थिति जानकर शाम को आ ही जाते हैं ।    गाँव में लोग अक्सर कहा करते थे कि बद्री गाँव के चलते-फ़िरते मनोरंजन का केंद्र हैं । जहाँ से वह गुजरते चुहलबाजी करते ही निकलते । जिस स्थान पर खड़े हो जाते, लोग स्वयं ही उनके पास खिंचे चले आते थे और वातावरण आनंद से भर जाता था । गाँव के कुछ झूठी मर्यादा का मुलम्मा चढ़ाए हुए सवर्ण लोग उन्हें कई बार नकारात्मक रूप में भी देखते और उनके लिए तरह-तरह की बात करते लेकिन मैंने

इटइया वाली

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#जानिए_मेरे_गाँव_जगतियापुर_को : 31 #तुमने_हमइं_नेगु_नाइं_दो_लड़िका_भयेकु ... मर्दानी-सी दिखने वाली हमारे गाँव की #इटइया वाली दादी हमारे गाँव की सबसे जीवंत महिला हैं । इनका मूल नाम शायद ही किसी को पता हो लेकिन इनकी पहचान ‘इटइया वाली’ के रूप और नाम से ही है । ‘शब्द’ होने के बाद जब भी कभी गाँव में घर पर आ जाती हैं तो बस घुमा-फ़िराकर एक ही वाक्य हमसे कहती हैं “#तुमने_हमइं_नेगु_नाइं_दो_लड़िका_भयेकु ...”  इटइया वाली दादी जाति और कर्म से ‘नाइन’ हैं । गाँव भर के सामूहिक उत्सव और रीति-रिवाजों से लेकर लोगों के घरों में होने वाले व्यक्तिगत उत्सव तक । बच्चे के जन्म से लेकर विवाह तक । ... और इससे भी आगे बढ़ते हुए सभी प्रकार के सुख-दुख के कार्यों की एकमात्र संगिनी हैं ।   जब बाबा जीवित थे तब गाँव में ‘नाई’ द्वारा किए जाने वाले सभी कार्य वही किया करते थे । बाबा के जीवित रहते ही उनके शिथिल होने से पहले ही दादी ने यह सब कार्य संभाल लिए । छोटे लड़के को भी साथ लगाया लेकिन वह रस न ले सका सो दादी स्वयं ही गाँव में ‘नाई’ के स्तर के सभी कार्य करने लगीं । बस किसी की शादी-ब्याह में ‘न्यौता’ बाँटने का कार्य उनका छोट