थियेटर के सरताज पृथ्वीराज
पृथ्वीराज कपूर का नाम लेते ही एक ऐसी रोबीली तस्वीर मनोमस्तिष्क में उभरती है और विस्तृत होकर शहंशाह अकबर का एक ऐसा व्यक्तित्त्व गढ़ती है कि पूरा भारतीय परिवेश उसमें समाहित हो जाता है । यह पुस्तक इन्हें पृथ्वीराज के अंतरंग योगराज के संस्मरण के रूप में लिखी गई है ।
लेखक ने पृथ्वीराज के साथ बिताए पलों और संबंधों को बड़ी ही सूक्ष्मता के साथ इस पुस्तक में प्रस्तुत किया है ।
पृथ्वीराज कपूर लेखक योगराज के पिता के बड़े घनिष्ट मित्र थे । लेखक के अनुसार ‘इस बहुरंगी और आकर्षक व्यक्त्तित्व की चर्चा हमारे घर में बड़े सम्मान से हुआ करती थी ।’
यह अंतरंगता ही इस पुस्तक की आधार्शिला बनी, जहाँ से लेखक योगराज ने पृथ्वीराज को करीब से देखने, समझने का प्रयास आरम्भ किया ।
बकौल फ्लैप ‘यह पुस्तक कलाकार पृथ्वीराज कपूर तथा उनके ताजमहल ‘पृथ्वी थियेटर’ के अंतरंग एवं बहिरंग की दिलचस्प और सच्ची दास्तान है । पारसी और यथार्थवादी थियेटर के सार्थक समन्वय से एक नई एवं प्रासंगिक रंग-दृष्टि की सृष्टि करने वाले उस रंग-पुरुष और उसके नाट्य-दल की ज़बर्दस्त जद्दोजहद, हार-जीत, उपलब्धियों और त्रासदियों का आँखों देखा जिन्दा इतिहास इसमें समोया गया है ।’
लेखक ने पृथ्वीराज कपूर के व्यक्तिगत जीवन से लेकर उनके कर्मजीवन को एक धागे में एकसमानता के साथ बुना है इस पुस्तक में ।
पृथ्वीराज के साथ लेखक के अंतरंग संबंध होने के बावजूद भी लेखक ने उनकी आलोचना करने में भी झिझक नहीं दिखाई है ।
इस पुस्तक में लेखक ने भारतीय रंगमंच और सिनेमा के इस कलाकार के वह अंत:-बाह्य पहलू पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किए हैं कि पृथ्वीराज को अंदर तक जानने वाला व्यक्ति भी एकबारगी हैरान, हतप्रभ-सा रह जाता है ।
पुस्तक पर अपने विचार प्रस्तुत करते हुए जयदेव तनेजा ने लिखा है कि “थियेटर के सरताज पृथ्वीराज’ एक ऐसा कोलाज है जिसमें इतिहास, जीवनी, आत्मकथा, डायरी और संस्मरण की प्रामाणिकता तथा नाटक-उपन्यास की सी दृश्यात्मकता एवं रोचकता है । नाट्य-रत्न पृथ्वीराज कपूर के विविधतापूर्ण, आकर्षक एवं प्रेरक व्यक्तित्व का एक चित्रावली-सा क्रमश: नाटकीय उद्घाटन करते घटनाक्रम में अद्भुत कुतूहल है ।’
वास्तव में यह पुस्तक लेखक योगराज की स्मृति में समाई हुई पृथ्वीराज के बहाने की गई एक रंग और सिने यात्रा भी है । इस यात्रा में लेखक ने पृथ्वीराज के विभिन्न किरदारों के साथ-साथ सिनेमा जगत का भ्रमण किया है ।
अपने घर से आरम्भ हुए पृथ्वीराज कपूर के परिचय से आरम्भ कर लेखक उनकी कर्मस्थली मुंबई पहुँचा और वहा उनके संग-साथ रहकर जो जिया, जो भोगा उसे अपने शब्दों में पूरी निष्ठा के साथ प्रस्तुत किया ।
यदि आप रंगमंच अथवा सिनेमा से संबंध रखते हैं तो यह पुस्तक आपके लिए अत्यंत पठनीय है । इसे पढ़कर आप उस समर्पण को समझ सकेंगे, जो आज लगभग समाप्त-सा होता चला जा रहा है । सामान्य पाठकों के लिए भी यह एक असाधारण पुस्तक है ।
सुनील मानव
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