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Showing posts from 2022

प्लूटो दिसंबर–जनवरी 2023

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प्लूटो के दिसंबर-जनवरी 2023 अंक में एक चित्र है । नये साल की मुबारकबाद का । इसको बनाया है जर्मनी से एलन शा ने । चित्र में बापू हैं । उनके सामने उनका चरखा है । एक हाथ में चरखे का हैंडिल और दूसरे में डोरी का एक सिरा है । चरखे के पहिए में झूले की डोलियाँ हैं । डोलियों में बच्चे बैठे हुए झूला झूल रहे हैं । एक बच्चा झूला चला रहा है तो एक बच्चा झूले के ऊपर पैंग भर आसमान की ऊंचाइयों को नाप रहा है । एक बच्चा मसाल लिए हुए एक नई राह पर जा रहा है । कुछ बच्चे उसके पीछे हँसते-मुसकुराते हुए दौड़े चले जा रहे हैं ।  चित्र प्रतीकात्मक है । यहाँ बापू का सहज रूप है जो स्वावलंबन और स्वरोजगार की दृढ़ता के साथ नए समय के नवीन सपनों की अगुवाई कर रहा है । एक मसाल, जो नव-संदेश भर रही है । एक झूला, जो बच्चों से प्रेशर को छिटकाकर उनमें उमंग भरने का कार्य कर रहा है । झूले के ऊपर, आसमान में कुलाचें भारतया हुआ बच्चा सपनों की ऊंचाई को नाप रहा है । और मसाल के पीची दौड़ते हुए बच्चे बापू के विचारों को आगे ले जा रहे हैं ।  आप इस चित्र की इससे अलग व्याख्या भी कर सकते हैं । जब देखेंगे, जितनी बार देखेंगे, एक अलग भा

खन्ती मन्ती : बच्चों के लिए मनोरंजन की चासनी में डूबा लोकतंत्रात्मक संस्कार

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सबसे पहले तो इस खेल गीत को गुनगुनाइए । कन्नौजी भाषा-बानी का है । आपकी बोली-बानी में भाषा और लय की कुछ अदल-बदल के साथ, मिल सकते हैं । आइए फिर करते हैं इस पर कुछ बतकही । पहले इस गीत को पढिए, केवल पढिए ही नहीं बल्कि मौज लेकर गुनगुनाइए । कुछ समय के लिए अपने बचपन में जाइए । देखिए क्या मज़ा आटा है । याद तो आपको वैसे भी होगा ही ।  खन्ती मन्ती खेलु खिलाई कउडी पाई  गंग बहाई  गंगा मइया नि बारू दइ बारू हमने भुज्जीक दइ भुज्जीनि हमइं चबेना दो चबेना हम घसियारक दो घसियारनि हमका घास दइ घास हमने गउवइ खबाई गउवा मातानि दूधु दो  दूधकि हमने खीरि पकाई खीरि पूरे घर ने खाई बाबानि खाई दादीनि खाई बुआनि खाई चाचानि खाई अम्मानि खाई पापानि खाई बची बचाई  आरे धरी कंधारे धरी  आई मूस  लइ गइ घूस  बुढ्ढा - बुढिययु हटउ पुरानी दिवार खसी  नइ दिवार उठी  हमारो लल्ला कित्तो ऊंचो  इत्तोsssssss ऊंssssचो ....   हम सबने अपने-अपने परिवेश में यह या ऐसे ही न जाने कितने गीत सुने होंगे, गुनगुनाए होंगे । घर के बड़ों से सुने होंगे । आज आधुनिकता की दौड़ में ये सब बिला सा गया है । कितना खूबसूरत-सा अहसास है कि वाचिक परंपरा के अनगढ़ से दिखने व

बच्चों के लिए कैसा साहित्य चाहिए ...

इधर मैं बच्चों के बीच पढ़ने को लेकर खूब बातचीत कर रहा हूं । अलग–अलग प्रकार का साहित्य भी उन्हें उपलब्ध कराने का प्रयास कर रहा हूं । बावजूद इसके बच्चे आज लिखे जा रहे बाल साहित्य को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं । इसके बहुत से कारण हो सकते हैं । मैं अलग अलग आयुवर्ग की कक्षाओं में जाकर प्रयोग करता हूं । बच्चों के सामने उनकी आयुवर्ग के अनुरूप बाल साहित्य की किताबें रखता हूं । तमाम सारी पत्रिकाएं । तरह तरह की किताबें । बच्चे उन्हें उलट पलट कर देखते भी हैं लेकिन कुछ देर के लिए ही सही, वह लगाव इकतारा / जुगनू के प्रकाशन की पत्रिकाओं और किताबों से कर रहे हैं । ऐसा क्यों है …?  कक्षा नौ के बच्चों के बीच एक दिन मैंने किताबों की खूब बातें कीं । अक्सर करता रहता हूं । कई बार बच्चे इरीटेट भी होने लगते हैं । बावजूद इसके बच्चों में पढ़ने की प्रवृत्ति बढ़ रही है, पर मैने देखा कि वह *वाइट टाइगर* जैसे उपन्यास पढ़ रहे हैं। बाल साहित्य के स्टेंडर्ड से वह स्वयं को काफी ऊपर मान रहे हैं । क्या आज के बाल साहित्यकार इस पर विचार कर रहे हैं अथवा केवल लिखने और पुरस्कृत होने के लिए ही, इतिहास में दर्ज होने के लिए ही लि

सेंटा का गिफ्ट

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एक दिन की बात है । शब्द सोकर उठे तो उनके पास एक गिफ्ट रखा है । शब्द को पता था कि इस रात सेन्टा आने वाला है । उसकी मैम ने उसे पहले ही कहानी सुनाई थी । गिफ्ट देखकर शब्द बहुत खुश हो गए । जल्दी से पैकेट खोला ... अरे यह क्या !   ... शब्द की सभी फ़ेबरेट चीजें ...  एक बड़ी सी वॉल ... कई सारी चॉकलेट ... जेम्स की बोतल ... और भी बहुत सारी चीजें ...  शब्द सर पकड़कर बैठ गया ...  बोला – लगता है पागल ही हो जाऊंगा ...  खुशी सम्हाले नहीं सम्हाल रही थी ...  पापा से बोला – सेन्टा के पास इतने खिलौने आते कहाँ से हैं ...  पापा - ... उसके पास एक मैजिक बैग होता है ... उसी में होते हैं ...  शब्द - ... मेरे पास क्यों नहीं है मैजिक बैग ...  पापा - ... आप जब बड़े हो जाओगे तब आपके पास भी आ जाएगा ...  शब्द - ... आप तो बड़े हो ... आपके पास क्यों नहीं है ...  अब पापा क्या करें ... लगे एक झूठ-मूठ की कहानी सुनाने ...  ‘... सेन्टा के पास एक रथ होता है ... उसमें हार्स होते हैं ... उनके पंख होते हैं ... वह आसमान में उड़ता है ...’  ‘... हार्स के पंख कैसे होते हैं ... वह तो सड़क पर चलता है ... शादी में होते हैं हार्स ... मैंने तो

जो बीत गईं वह बातें, संबल भरती जीवन में...

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क्या बला का खूबसूरत था स्नातक से लेकर शोध तक का समय । एक अलग ही जुनून हुआ करता था पढ़ने का । नहाना, खाना, जीवन की दिनचर्या जैसे शब्दों का कोई महत्त्व ही न हुआ करता था । जितना पढ़ता जाता, अज्ञानता का दायरा उतना ही बढ़ता जाता । लेकिन क्या ही गज़ब का जुनून हुआ करता था । *अध्यापकों और साथी लड़कियों के मन में बसने का लालच* । *विद्वान बनने की अति महत्त्वाकांक्षा* । साथियों के बीच *श्रेष्ठता का दंभ* । बहुत कुछ दिखावटी सा हुआ होगा, आज दिखता है । बावजूद इसके पढ़ने लिखने की ललक मज़बूत से मज़बूत होती गई । स्नातक से लेकर आगे तक, सिलेबस तो कभी पढ़ा ही नहीं । बस उससे जुड़ी सैकडों किताबें चाटता रहता । *बाबा* कहते *असल पढ़ाई तो सिलेबस के बाहर की ही होती है ।* … और जब पढ़ने में मन न लगता या कुछ समझ में न आता तो *बापू* समझाते *किताब को आँखों के सामने से हटने न दो, कितनी देर समझ में न आएगी । पढ़ते जाओ, बस पढ़ते ही जाओ ।* साथी ही अलग-अलग प्रकार की किताबें सुझाते । … आगे चलकर *अरशद सर* और *साजिद सर* ने तो जैसे भूचाल ही ला दिया जीवन में । वो मेरे जीवन के आदर्श बनकर आए । लेखन के साथ जीने वाले इन दोनों आदर्शों ने किताबों क

गुरुदेव से वह पहली मुलाकात

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गुरुदेव से यह मेरी पहली और अब कह सकता हूँ कि अंतिम मुलाकात थी । सिलचर यूनीवर्सिटी में राष्ट्रीय स्तर की एक संगोष्ठी में आपसे मिलना हुआ था । मैंने दूर से आपकी पहली झलक देखी, और देखता ही रह गया । मेरे मस्तिष्क में आपकी जो छवि बनी थी, आज वह मेरे सामने खड़ी थी । मैं कई पल ठगा-सा निहारता रह गया आपको । मन किया कि दौड़कर आपके गले लग जाऊँ ! छूकर देखूँ एक बार अपने सपने को । मर्यादाओं ने ऐसा न करने दिया ।    आपसे पहला परिचय परास्नातक में सूरदास को पढ़ते समय हुआ था । मैं कुछ अलग पढ़ना चाहता था । अरशद सर ने गुरुदेव की किताब ‘कृष्ण काव्य और कृषक जीवन’ पढ़ने का सुझाव दिया था । सुझाव क्या अगले दिन उन्होंने मुझे वह किताब ही लाकर दे दी थी । मैं खो गया उसमें । ऐसे पढ़ गया जैसे कोई उपन्यास हो । सूरदास को देखने और गुरुदेव से परिचय की मेरी यह एक नवीन दृष्टि थी । उस समय मुझे आलोचना दृष्टि की कोई समझ नहीं थी परंतु इस किताब को पढ़कर कुछ नहीं बहुत कुछ बदल रहा था । साथ ही गुरुदेव का एक चित्र अरशद सर के माध्यम से मस्तिष्क में बन रहा था । मैं जैसे-जैसे गुरुदेव को पढ़ता गया, वैसे-वैसे मेरे अंदर बना उनका चित्र मजबूती पकड़ता

गांव का सूनापन

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।। 01 ।। एक अजीब सी संवादहीनता है गांव में । कहीं सामूहिक हुई मौतों से उत्पन्न भयाक्रांत सन्नाटा । यह शून्यता वर्षों पहले महसूस हुई थी, जब गांव में एक बीमारी के चलते कई मौतें हुई थीं । बचपने में वह विस्मृत हो गईं । आज गांव के सूनेपन ने उस समय की याद दिला दी ।   गोरू घर नहीं लौट रहे हैं । बचे ही नहीं । आसमान में एकाध पखेरू भर हैं वापस जाने भर को । वापस आने के लिए इंतजार का कोई आलंबन भी तो होना चाहिए । सब कुछ शांत है । सही कहा ‘वापस आना बड़ा मुश्किल है ।’ पांच–सात घंटे हुए हैं गांव आए हुए । सोने के अलावा बापू के साथ कुछ देर उनकी दुकान पर जा बैठा । एक अजीब सी उदासी है उनकी आंखों में । पूरे जीवन की जिम्मेवारियों के बाद के अलगाव से उत्पन्न चिंगारियों सी ।  अभी कुछ एक लोग निकले हैं मोटरसाइकिल से । एकदम मेरे सामने से । पड़ोस के गांव से लौटे रहे हैं शराब पीकर । मुझे इनके इस नशे का आलंबन दिखाई दे रहा है खामोश उदासी के बीच । एक साइकिल सवार भी निकला है सामने से । चुपचाप अपनी राह पर । मेरी धड़कने तेज़ हो उठी हैं । रक्तचाप अपनी गति बदल रहा है । कोई संवाद नहीं । जैसे कोई जानता ही न हो और इन्हें मैं

हिंदी दिवस 2022, आज के अखबार में

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