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Showing posts from August, 2020

#आ_जा_रे_कन्हैया_तोहे_राधा_बना_दूँ

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रामानन्द सागर के धारावाहिक ‘श्री कृष्णा’ में एक दृश्य देखा था कभी । दृश्य था कि कृष्ण और राधा यमुना किनारे बैठे हुए प्रेमालाप कर रहे हैं । उनमें बातचीत हो रही है ।  कृष्ण : राधा उस दिन होली पर तुम वहाँ से चली क्यों गई थीं ...  राधा : तुम इतना बरजोरी जो कर रहे थे ...  कृष्ण : बरजोरी ! ... मैं ... मैं तो केवल रंग लगा रहा था तुम्हें ... राधा : तुम सभी मर्यादा भूल जाते हो कान्हा ... कितने लोग थे वहाँ ...  कृष्ण : तो क्या हुआ ... प्रेम में काहे की मर्यादा ... मेरा मन किया तो मैं रंग लगाने लगा ... इसमें मर्यादा हीनता की कौन सी बात है ...  राधा : काश ! तुम राधा होते ...  कृष्ण : अच्छा ! तो क्या होता ...  राधा : तो तुम समझ पाते कि ‘राधा होना’ कितना मुश्किल होता है ...  कृष्ण : मुझे तो इसमें कोई मुश्किल नहीं लगती राधा ... राधा : क्योंकि तुम राधा नहीं हो ना  कृष्ण : तो बन जाता हूँ मैं राधा ...  राधा : (राधा हँसती है) ... तुम राधा बनोगे !  कृष्ण : तो ... इसमें हंसने की क्या बात है ... मैं राधा बन जाता हूँ और तुम कृष्ण बन जाओ ... राधा : कैसे ...  कृष्ण : ... कैसे क्या ... तुम्हारा लहंगा, चोली, ओढ़

सवर्णेतर जातियों का ‘ब्राह्मणवाद’ : सुनील मानव

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आज बुद्धिजीवियों द्वारा सबसे अधिक चर्चा ‘जातियों’ को तोड़ने, उनसे मुक्ति पाने को लेकर की जाती है बावजूद इसके उन्हीं द्वारा इन ‘जातियों’ का सबसे अधिक पोषण भी किया जा रहा है । सवर्ण से लेकर दलित तक सब अपने-अपने ढंग से दूसरे की ‘जाति’ को गालियाँ देते हुए अपनी-अपनी ‘जातियों’ के इतिहास को खंगाल रहे हैं, लिख रहे हैं और प्रत्येक स्तर पर उसको मज़बूत बनाने के लिए कार्य कर रहे हैं । तब यह झूठा वितंडावाद किस लिए कि जाति नहीं होनी चाहिए !  अभी पिछले दिनों हमारे एक मित्र का एक लिखित संदेश आया और उस पर मेरी राय मांगी । तो पहले उनका यह संदेश देख लेना चाहिए । यह संदेश एक संवाद के रूप में है जो हमारे एक मित्र और दलित चिंतक के मध्य हुआ । बाद में मैं भी उसमें सम्मिलित हुआ । “मेरे मित्र : सर नमस्कार ! आज फेसबुक पर आपका भी ‘जय भीम’ का अभिवादन पढ़ा । मैं इस अभिवादन या नारे के मनोविज्ञान को बहुत नहीं जानता । कब, किसने और क्यों शुरू किया ? लेकिन जानना चाहता हूँ । क्या यह ‘जय श्री राम’ के विरोध में शुरू किया गया है या कोई और कारण है ? दूसरे मैंने सामान्यत: किसी बड़े बुद्धिजीवी या साहित्यकार के मुँह