पस्सादी

#बउरा_बउरा_ओ_बउरा

ये हैं हमारे गाँव के रामप्रसाद प्रजापति उर्फ़ पस्सादी । गाँव-गिराँव के रिश्ते से हमारे बापू के भाइयों में लगते हैं । बापू से उम्र में बड़े हैं । तो इस गणित से ये हमारे ‘दउवा’ यानि कि ताऊ हुए । गाँव के लोगों के कहे अनुसार इस समय इनकी उम्र यही कोई सत्तर-पचहत्तर के बीच की होगी ।
 
जन्म से ही बोल और सुन नहीं पाते हैं । इसके अतिरिक्त ऐसा कोई काम नहीं है दैनिक जीवन का जो इनसे अछूता रहा हो । पिछले पच्चीस-तीस वर्षों से इनको देखता आ रहा हूँ इनको अपने घर का सारा काम करते हुए । 

अपने पिता बंधूलाल के छ:ह बेटों में ये सबसे बड़े हैं । तीन का विवाह हुआ और वे अलग रहने लगे । जो तीन अविवाहित बचे उनके लिए घर के सारे काम पस्सादी ही करते हैं । घर की साफ़-सफ़ाई से लेकर चूल्हा-चौका, हार-वार, पताई-पतवार सब कुछ एक कुशल गृहणी से कहीं अधिक निपुणता से ये करते हैं । इनका घर इतना साफ़ रहता है कि गाँव के कई सफ़ाई पसंद लोग चिढ़ जाएं । 

कई बार इन्हें चिढ़ते भी देखा है । हम लोग बचपन में या अब के कुछ बच्चों को इन्हें अक्सर चिढ़ाते देखा है । कोई बच्चा, जो इन्हें चिढ़ाने को होता हो, इनके सामने ज़मीन से थोड़ी से मिट्टी उठाकर अपने ऊपर से दो-तीन बार घुमाकर इनकी ओर फ़ेंक दे । फ़िर देखिए । मैंने केवल इसी बात को लेकर पस्सादी को गुस्सा करते देखा है । कई बार तो वह डण्डा लेकर बच्चों को दौड़ा भी लेते हैं । मैंने भी बचपन में ऐसा कई बार किया था अपने साथियों के साथ मिलकर, लेकिन आज देखता हूँ तो बहुत बुरा लगता है । बच्चों को स्वयं डांट देता हूँ । 

अब कुछ उमर हो चली है सो उत्साह में कुछ कमी आई है । बावजूद इसके भी इनके अंदर संवेदनाओं का बड़ा स्रोत विद्यमान है । छोटे बच्चों से इन्हें विशेष लगाव है । इसलिए जब भी ‘शब्द’ घर पर होते हैं, उसे कई बार खिलाने आ जाते हैं । जबकि वह इनकी बोली सुनकर कई बार डर भी जाता था ।

आज मैं बाहर बैठा था । पस्सादी आ गए । पता नहीं कैसे उनकी नज़र मेरे हाथ पर पड़ गई, जिसमें पिछले दिनों बाइक से एक्सीडेंट होने के कारण गहरी चोट आई थी । हाथ पकड़कर सहलाने लगे और अपनी तरह से चोट के बारे में पूछने लगे । मैंने उन्हें समझाया । इशारे से बताने का प्रयास किया कि ‘बाइक से गिरने के कारण चोट लगी है ।’ सर पर हाथ रखकर पता नहीं क्या कहते रहे । समझ से बाहर रहा । लेकिन जो भी कह रहे थे उसमें मेरे लिए उनकी आत्मीय संवेदना का भंडार था । 

मैं थोड़ा भावुक हो उठा । जिस चोट के बारे में केवल माँ-बाप, भाई-बहन और कुछ मित्रों के अतिरिक्त किसी ने न पूछा, किसी ने हालचाल न लिया, किसी की नज़र नहीं गई, उसको लेकर यह ‘बौरा’ कहा जाने वाला मनुष्य न जाने कितनी देर तक हमदर्दी व्यक्त करता रहा । यही तो होता है रिश्ता । यही तो होते हैं अपने । केवल ‘रक्तसंबंध’ से अपने नहीं बनते । वह बनते हैं प्रेम के प्रवाह से । संभवत: आज पहली बार मैंने ‘पस्सादी दउवा’ को उठकर गले लगा लिया और एकांत में हृदय का गुबार आँसुओं से निकालने का प्रयास किया ।

सुनील मानव, 21.04.2020

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