मुन्ने सिंह

#जानिए_मेरे_गाँव_जगतियापुर_को : 30
#मेरी_देखि_अरबरी_देह ...

अभी, यही कोई पन्द्रह-बीस दिन पहले, जी हाँ लॉकडाउन के ही दौरान, हम बगिया में जा बैठे थे । इतिहास रच रहे अपने ‘डल्लप’ पर । भरी दुपहरिया । कोई था भी नहीं आस-पास । हमने कहा ‘दादा वो वाला सुनाओ...’ मैं बात पूरी भी नहीं कर पाया था । दादा के चेहरे पर शृंगारिक लालिमा पुत आई । उन्होंने उत्सुकता से मेरी ओर निहारा । मैंने अपनी बात पूरी की ‘... वही गुपली जो आफ अक्सर गाया करते थे ... ।’ दादा के अंदर कुछ घुमड़ने लगा । संभवत: कई गुपलियाँ उनके अंदर कुलबुलाने लगीं । मैंने स्पष्ट ही कर दिया ‘मेरी देखि अरबरी देह ...’ और दादा की मुस्कुराहट ने उनको धमार गायन के शृंगारिक परिवेष में पहुँचा दिया । वह पूरे तरन्नुम से गाने लगे । गर्व उनके चेहरे से टपकने लगा । मैं अंदर के उत्साह को दबाए सुनता गया । एक के बाद एक । कई एक । ... और यह बेहतरीन दुपहरिया बीत गई । 

मुन्ने सिंह दादा गाँव की धमार टोली की तीसरी पीढ़ी के सबसे होनहार कलाकारों में गिने जाते रहे हैं । धमार आदि के प्रबन्धन में राजबहादुर सिंह के सबसे सशक्त साथी भी । विभिन्न प्रकार के गायन से लेकर धमार आदि की ढ़ोल बजाने और धमार बाद के ‘सुआँग’ के मुख्य प्रबन्धक और कलाकार के रूप में आप हमेशा बेजोड़ रहे हैं । 

रामकिसुन के साथ ताल से ताल मिलाकर एक आप ही रहे हैं जो धमार के पैंतरों के बीच ढ़ोल बजा सकते थे । 

यह सब मुन्ने सिंह दादा को अनुवांशिक रूप में भी मिला था । आपके पिता जी हरिपाल सिंह गाँव की धमार टोली के मुख्य गायक और मार्गदर्शक हुआ करते थे । उनसे ही आपमें कई बातें स्वत: ही आती चली गईं । धमार से लेकर आल्हा तक । 

क्षत्रियोचित उत्साह से आपूरित मुन्ने सिंह दादा जब ‘अमिलिया तीर’ ‘आल्हा की हुँकार’ भरते तो गाँव के लोग अनायास ही कह उठते ‘कतइ अपने पितइप गे जइ ता... इनके किसी आल्हा त गाँउम कोई अउरु नाइं गाइ पइही...’

हरिपाल बाबा ने भी अपनी विरासत उन्हें पूरी लगन के साथ सौंपी थी । आपने उसे सम्हाला भी, लेकिन समय के बदलाव ने उसका उपयोग न कर पाया । 

मुझे याद है, हालाँकि उस दौरान मैं गाँव में नहीं था, केवल लोगों से सुना भर है, कि एक बार मुन्ने सिंह दादा ने होली में पूरे पखबारे धमार बजने के बाद सप्ताह भर का ‘नाट्य’ कार्यक्रम का आयोजन भी किया था । अपने अनुभव के आधार पर मौखिक ‘स्क्रिप्ट’ बनाई और गाँव के ही लड़के-बच्चों से अभिनय करवाया था । गाँव के कुछ वरिष्ठ जनों सहित स्वयं भी उसमें अभिनय किया था । गाँव तो गाँव आनगाँव तक इस आयोजन की खूब चर्चा रही थी । आज भी गाहे-बगाहे जब कोई बात छिड़ती है तो उस ‘नाट्य आयोजन’ की चर्चा होने लगती है ।
 
समय के साथ-साथ समाज में आए बदलाव इन आयोजनों को लील गए । लोगों ने इन आयोजनों में रस लेना तो दूर उल्टे उनका ‘मज़ाक’ बनाना आरम्भ कर दिया । गाँव-गिराँव के यह कलाकार भी अपने जीवन की दुरूहता और आपाधापी में धीरे-धीरे सब कुछ भूलने से लगे । बावजूद इसके मैं आज भी मुन्ने सिंह दादा के अंदर धमार, सुआँग, भजन मण्डली आदि ग्राम्य आयोजनों के प्रति एक उत्साह देखता हूँ लेकिन सामूहिकता समाप्त होने के कारण अब वह संभव न रह सका । 

उस दिन बगिया में बैठे हुए जब हम चलने को हुए तो मुन्ने सिंह दादा ने कहा ‘यदि तुम कहो तो यहीं बगिया में किसी दिन रात में लाइट की व्यवस्था करके ‘सुआँग’ किया जाए ।’ ... और उन्होंने ‘सुआँग’ की पूरी रूपरेखा एवं व्यवस्था का खाका मेरे सामने खींच डाला । उनका उत्साह देख मैंने भी हाँ में हाँ मिलाई लेकिन यह संभव न हो सका । एक तो लॉकडाउन दूसरे परिवेष की उदासीनता ।
 
मुन्ने सिंह दादा आज लड़के-बच्चे और बहू वाले हो गए हैं लेकिन ‘दुआरे’ पर जब कोई ठेली वाला पानी के बतासे बेचने आ जाए तो सबके साथ कई वर्ष पीछे चले जाते हैं । चार-चार बतासे घर के सभी सदस्यों को भिजवाके स्वयं भी दोना लेकर खड़े हो जाते हैं । यह सब एकदम वैसा ही लगता है मुझे जैसे दस साल पहले वह धमार टोली के बीच उछलते-कूदते थे । ठीक वैसा ही उत्साह । 

‘कला’ की मौत ने इन जैसे न जाने कितने कलाकारों को निरीह कर डाला है ।
सुनील मानव, 30.04.2020

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