माखन दउवा

#ठगिनी,_क्यूं_नइना_मटकाबइ

माखन दउवा की स्थिति अब वैसी नहीं रही । उमर हो चली है । अब वह अधिक कुछ कह-सुन नहीं पाते । चलने-फिरने में भी लकड़ी का सहारा लेना पड़ता है । अभी जल्दी ही हमने कुछ लोगों को धमार गाने को कहा तो वह भी आवाज सुनकर लकड़ी टेकते हुए बगिया तक आ पहुंचे ।  उन्हें देखते ही स्मृतियों की एक रील फ्लैशबैक में चल पड़ी ।

अपना कोई बाली-बच्चा ना होने के कारण परिवारिक जनों के ही भरोसे जीवन कट रहा है ।

मुझे खूब याद है । यही कोई चार-पांच-छः साल पहले दउवा ने कुछ गीत सुनाए थे हमें । उनके सुनाए गए गीतों में एक गीत मुझे बड़ा प्रिय लगा था । गीत था कबीर का पद "ठगिनी क्यों नैना मटकावे" ।  यह गीत वह अक्सर गाया करते थे ।

खूब तरन्नुम में गाया गया उनका यह गीत मुझे आज भी याद हो आता है । उनकी आवाज की रिकॉर्डिंग हमारे पास आज भी सुरक्षित है ।

आज जब माखन दउवा या इन जैसे अन्य चरित्रों को देखता हूं तो सोचता हूं कि केवल माखन दउआ ही नहीं इनके साथ-साथ एक पूरी संस्कृति आज अपने वजूद को बचाने की जद्दोजहद कर रही है । वह संस्कृति जो आज समाप्त प्राय हो रही है । माखन दउवा का समय अब बहुत पुराना लगाने लगा है । 

बचपन में हम लोग रात में पोर के किनारे बैठा करते थे । माखन दउवा तरह-तरह की कहानियां और गीत सुनाया करते थे । घर पास में ही था तो यह पोर संयुक्त ही लगा करती थी । जिसके पास हम तमाम सारे लोग बैठा करते थे । राजा निरबंसिया की कहानी, नौटंकी, ढोला आदि तमाम कहानियों के साथ-साथ बहुत सारे गीत इन कहानियों की ताकत हुआ करते थे ।

लंबी-लंबी कहानियां कई बार तो कुछ ऐसी लंबी हुआ करती थीं कि एक-दो दिन छोड़िए कई-कई दिन लग जाया करते थे । इन्हीं कहानियों के बीच का एक गीत "पहिने कुरता पइ पतलून, आधो साउनु आधो जूनु" हम बालकों को बहुत प्रिय हुआ करता था । 

माखन दउवा तीन भाई थे । ईसुरी, सिरीकेसन और माखन । ईसुरी अपनी ससुराल में रहने लगे जाकर । सिरीकेसन का परिवार फला-फूला और आज भी उनके बच्चे, पोती-पोते अच्छे से रह रहे हैं । खा-कमा रहे हैं । लेकिन माखन दउवा का परिवार आगे ना चला । अब वह सिरीकेसन दउवा के परिवार के ही सहारे जीवन जी रहे हैं । 

अपने दोनों भाइयों के जाने के बाद माखन दउवा का उत्साह भी काफी कम हो गया है । आज भी जब मैं उनको देखता हूँ तो मुझे इनके जीवन में कोई खास निराशा नजर नहीं आती है । उन्होंने अपना जीवन खूब मेहनत से जिया । 

माखन दउवा से जुड़ी एक बात मुझे हमेशा याद आती रहती है । वह यह कि माखन दउवा अपनी चाल के लिए सबसे ज्यादा जाने जाते थे । माखन दउवा पैरों को ज़मीन पर खूब पटक-पटककर तेज़-तेज़ चला करते थे । 

एक बार भूकंप आया तो हमने जिया से पूछा कि  "यह भूकंप कैसे आता है ।" उसी समय सामने से आते हुए माखन दउवा दिख गए तो जिया ने हंसते हुए कहा कि "जब माखन धरती पर चलते हैं तब हाला-चाला (भूकंप) आता है । गांव में भी उनको लेकर ऐसा कहकर लोगों द्वारा उन्हें अक्सर चिढाया जाता था । इस बात को लेकर मैंने उन्हें कई बार काफी गुस्से में भी देखा था । उनकी आवाज भी बहुत तेज थी । जब एक जगह से बोलते थे तो आधे गांव तक उनकी आवाज सुनाई देती थी । कई बार हमने उन्हें कई लोगों को डांटते सुना था । बावजूद इसके जब वह गाने-बजाने वालों की संगति में बैठते थे तो वह समा बंधता था कि पूछिए मत । 

आज कम से कम मैं व्यक्तिगत रूप से इनको देख कर दुखी हो रहा हूँ क्योंकि इनके साथ-साथ हमारे गांव की एक पूरी संस्कृति अपने अंत की बाट जोह रहा है । 

सुनील मानव, 22.04.2020

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