दीना
#दुइ_रुपिया_दइ_देउ
#जैनेंद्र_कुमार का एक प्रसिद्ध निबंध है 'बाजार दर्शन' । उसका एक पात्र है #भगत_जी' जो चूरन बेचते हैं । वह अपनी आवश्यकतानुसार बाजार का इस्तेमाल करते हैं । उन्हें अपनी जरूरत का ज्ञान है । इसलिए वह रोज छः आने का चूरन बेचते हैं । इसके बाद बचा हुआ चूरन यूं ही बच्चों को बांट देते हैं ।
ऐसे ही, 'भगत जी' से मिलता-जुलता एक पात्र हमारे गांव में भी इस समय विचरण कर रहा है । गाँव के लोग इन्हें #दीना नाम से पुकारते हैं । हमारे गांव में इनकी बहन ब्याही है तो कभी-कभार महीना-दो-महीना गांव में रहने आ जाते हैं ।
लोग कहते हैं की #दीना की हटी है लेकिन मुझे इनमें एक विशेष प्रकार का संतोष और एकाग्रता का भाव सदा से दिखाई देता रहा है ।
#दीना बहुत कम ही बोलते हैं । बहुत कम ही कहीं बैठते हैं । अपने जीजा के घर से लेकर खेत-खलियान तक ही स्वयं को सीमित रखते हैं । खाना-पीना बहन के घर मिल ही जाता है । इसके अतिरिक्त इनकी केवल दो रुपयों की आवश्यकता रहती है । ना दो से कम और ना दो से अधिक । बावजूद इसके मैंने आज तक इन्हें इन दो रूपयों से कुछ लेते-खरीदते कभी नहीं देखा है । बस रुपए दो ही चाहिए । लोग हंसी बनाते हैं । चकल्लस करते हैं । दीना वीतराग भाव से लोगों के परिहास को स्वीकार कर लेते हैं और आगे बढ़ जाते हैं । 'ना उधो का लेना न माधो का देना' ।
लोग पागल कहते हैं इन्हें जबकि स्वयं जीवन की आपाधापी में मरे जा रहे हैं । लेकिन #दीना को जीवन-जहान की कोई चिंता नहीं है । बावजूद इसके कर्म करने में किसी से पीछे नहीं हैं । खेत-खलिहान में मेहनत से काम किया । जो मिल गया सो खा-पहन लिया ।
अब आप ही बताइए कि पागल कौन हुआ ? यह संतुष्ट व्यक्ति #दीना' या हमारे-आपके जैसे असंतुष्ट व्यक्ति जो जीवन की वास्तविक सुंदरता की अनदेखी करते हुए, उसकी कुरूपता के भंवर में फंसे हुए हैं । झूठी मर्यादा को खा-पहन रहे हैं । ओढ़-बिछा रहे हैं । सांसारिक भौतिकता के अहंकार में फूले नहीं समा रहे हैं ।
चिंतन अवश्यंभावी है ।
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