रामकिसुन

#जानिए_मेरे_गाँव_जगतियापुर_को : 27
#नचकहिया_कहीं_का ... 

आज मैं गाँव में नहीं हूँ । किसी विशेष कार्य से ‘कर्मस्थली’ आना हुआ । कल अनिल से कहा था कि #रामकिसुन का फ़ोटो चाहिए । अनिल ने सुबह फ़ोटो भेजा । साथ ही गरीबी और लाचारी की एक दारुण कथा भी । 

 #रामकिसुन की उमर अभी कोई खास नहीं हुई है लेकिन गरीबी, लाचारी और सामाजिक परिस्थियों ने उसे असहाय बना दिया । शरीर ने साथ देना कम कर दिया है और लड़का साथ नहीं रहता है अब । दोनों पति-पत्नी किसी प्रकार जीवन को ढोने का प्रयास कर रहे हैं । मैं अनिल से कुछ कहता इससे पहले उसने विकास के साथ मिलकर #रामकिसुन के लिए दस-पाँच दिन के राशन पानी की व्यवस्था कर दी, पर क्या इनका जीवन महज पाँच-दस दिन का ही है ? कैसे कटेगा आगे ! #रामकिसुन का फ़ोटो देखते ही हृदय फ़टने-फ़टने को करने लगा । साथ ही पुरानी स्मृतियों ने भी कोलाहल उत्पन्न कर दिया, जब मैंने इन्हें अपनी आँखों के सामने ही उत्साह से लबरेज़ देखा था ।

 हमारे गाँव में जो धमार बजती थी उसमें ढ़ोलक बजाने वालों में रामकिसुन का प्रमुख नाम हुआ करता था । इसका कारण उसकी ढोल बजाने की विशेष शैली थी । धमार मण्डली के बीच में पैतरे बदलती हुई टोली के बीच अपने साथी ढोलबाज़ की गमक से गमक मिलाता हुआ #रामकिसुन का ‘डंका’ पूरे उत्साह के साथ ढोल के ‘पुरे’ पर पड़ने लगता था । गुपली, चौताले या तिताले पर गमक रही धमार की ‘ढोल’ जैसे-जैसे ‘दौर’ की ओर जाने लगती, #रामकिसुन का उत्साह आसमान छूने लगता था । सभी गाने-बजाने वाले एक ओर और #रामकिसुन की ढोलक एक ओर । कुछ ही लोग थे गाँव में जो रामकिसुन का साथ दे पाते थे ढोल पर । 

 धमार की दोनों प्रतिद्वंदी टोलियाँ पैतरे बदलते हुए जैसे-जैसे अगले से अगले ‘अंतरे’ की ओर बढतीं, #रामकिसुन पर नशा छाने लगता था । उसके माथे से टपकते श्रमबिन्दु मोतियों से लगने लगते थे । #रामकिसुन टोली के बीच गले में ढोल लटकाए एक स्थान से दूसरे स्थान तक ऐसे लहराता था जैसे कि बीन पर साँप लहरा रहा हो ! कुछ पल के लिए तो ऐसा ‘समा’ बँधता था जिसमें पूरा का पूरा गाँव अपना दुख-दर्द भूलकर उसमें खो जाता था । ऐसा लगता था सभी सब कुछ भूलकर किसी दूसरी दुनिया में जा पहुँचे हों ! गीत जैसे ही अंतिम ‘अंतरे’ के बाद ‘उतार’ पर आता, देखने वाले ‘वाह-वाह’ कर उठते । कई बार तो देखा कि कुछ लोग रामकिसुन को गोद तक उठा लिया करते थे । सभी अपने-अपने स्तर से रामकिसुन की ‘बजंत शैली’ की तारीफ़ करने लगते । अब तक रामकिसुन का उत्साह शांत हो चुका होता था और वह एक शालीन कलाकार के रूप में चुपचाप सबका अभिवादन ऐसे स्वीकार करता जैसे कि वह इस तारीफ़ के लायक ही न हो ! उसके चेहरे से बिस्मिल्लाह खाँ के शब्द #अलहमदुल्लिलाह’(सब कुछ ईश्वर का,मेरा इसमें कुछ नहीं है) अपने आप निकलते दिखाई देने लगते थे । 

 धमार गायन के बाद गाँव-गिराँव में लोगों की बैठकी में जब भी कभी #रामकिसुन की बात आती तो कई लोग एक साथ बोल उठते “बड़ा सुआँगी हइ सारो ... नचकहिया कहींकु ...” लोगों का यह उलाहना व्यंग्य में नहीं बल्कि उसकी कला की तारीफ़ में हुआ करता था । रामकिसुन के लिए यह शब्द सम्मान के द्यौतक हुआ करते थे । उसका सीना गर्व से फ़ूलने लगता था । मैम यह दृष्य कभी भूल न सका ।

 आज यह कलाकार अपने जीवन के दिन गिन रहा है । जब तक शरीर चला मेहनत-मज़दूरी से सिर उठाकर जिया । लड़के को उसके पैरों पर खड़ा किया तो इस परिस्थिति में वह भी बाहर चला गया, जब कि आज उसकी अधिक आवश्यकता थी रामकिसुन को । 

 ... सोचता हूँ कि न जाने कितने ऐसे लोग हैं जो आज इस भयावह परिस्थिति से गुजर रहे हैं । आज अनिल और गाँव के एक लड़के विकास ने इनकी मदद की है । मैं जितना हो सकता है साथ में खड़ा हूँ इनके, लेकिन इनके जीवन के लिए यह पर्याप्त नहीं है ।  

 आज मैं अपील करता हूँ उन ‘जनसेवकों’ से, जो ‘जनता की सेवा को ही अपना धर्म मानने की बात करते हैं’, ‘‘हो सके तो रामकिसुन को इस भयावहता से बचाने के बारे में सोचें । इस व्यक्ति ने हमारे इस गाँव की संस्कृति को हमारी संवेदना में संजोया है ।’’  

सुनील मानव, 26.04.2020

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