दूरि सासुरो होतो ...

दूरि सासुरो होतो सो मइया मोरी कारो बलमु न होतो . . . 

धमार गायन के दौरान इस प्रकार के गीतों को ‘लाचारी गीत’ कहा गया है । इनको गाते समय गायकों में उत्साह की अति देखी जाती है । इनमें शृंगारिक भाव की प्रधानता रहती है । इन गीतों की बजंत में डंके का प्रयोग नहीं होता है । इन गीतों पर ढोलक सामान्य रूप से ‘मृदंग’ के रूप में बजती है । यह गीत भी गुपली की भाँति शृंगारिक होते हैं । यह गीत चलते हुए और एक स्थान पर खड़े होकर, दोनों रूपों में गाए जाते हैं । इन गीतों में गाते हुए मुख्य रूप से कलाकारों द्वारा नृत्य भी किया जाता है । यह गीत मस्ती और चुहलबाजी से भरे होते हैं । सो ढोलक और अन्य वाद्य भी उसी रूप में बजाए जाते हैं । इसमें भी होली गीतों की भाँति अंतरों कोचार बार और अन्य कथ्य को दो बार दोहराया जाता है । एक गीत है – ‘दूरि सासुरो होतो सो मइया मेरी कारो बलमु न होतो’ . . .

दूरि सासुरो होतो सो मइया मेरी कारो बलमु न होतो . . . ४

अरे मेरे बलम के बहुतइ खेती . . . ४
चाहइ बहु भूमिहीन होतो, सो मइया मेरी कारो बलमु न होतो . . . २
दूरि सासुरो होतो कि मइया मेरी कारो बलमु न होतो . . . ४
अरे मेरे बलम के महला-दुमहला . . . ४
चाहइ एकइ कुठरिया होती, सो मइया मेरी कारो बलमु न होतो . . . २
दूरि सासुरो होतो सो मइया मेरी कारो बलमु न होतो . . . ४

अरे मेरे बलम के बहुतइ रुपिया . . . ४ 
चाहइ एकउ रुपइया न होतो, सो मइया मोरी कारो बलमु न होतो . . . २
दूरि सासुरो होतो सो मइया मोरी कारो बलमु न होतो . . . ४

समय चाहें पुराना हो आज का आधुनिकता भरा । पुरुष प्रधान समाज में स्त्रियों के मनोभावों को रौंदा ही गया है । लड़कियों के विवाह में ‘वर’ के चुनाव का अधिकार आज भी जब पितृसत्ता के पास है तो पुराने समय में इसके विपरीत सोच पाना तो जैसे गुनाह ही रहा होगा । पितृसत्ता सदा से लड़की के लिए ‘वर-चुनाव’ के बहाने धन-संपत्ति और सामाजिक प्रतिष्ठा को ही चुनती रही है । उसे स्त्री के मनोभावों का कभी ही भान रहा हो, कम ही कहा जा सकता है । अपने जीवनसाथी को लेकर लड़की क्या सोचती है ? पितृसत्ता को इससे कोई मतलब न तब रहा है और न आज ही है । ‘धन-संपत्ति और सामाजिक प्रतिष्ठा’ पितृसत्ता के लिए सर्वोपरि रही है । ऐसे में लड़की पितृसत्ता से कुछ कह भी नहीं पाती थी । वह तो बस ‘अपने लिए चुने गए ‘भाग्य’ का निर्वहन करने पर बस मज़बूर होती थी ।’ 

प्रस्तुत गीत में ऐसी ही एक नायिका है जो पितृसत्ता द्वारा ठगी गई है । ससुराल भरी-पूरी है । सभी सुख-साधन हैं । पर उसे जो हृदयगत संतुष्टि चाहिए, क्या वह भी इस चुनाव से उसे मिली ? नहीं मिली । बस इसी से नायिका परेशान है । ऐसे में वह अपने मनोभावों को किससे और किस रूप में कहे ! यह एक बड़ी समस्या है । कठोर पितृसत्ता से तो वह कह नहीं सकती है कुछ, लेकिन रोते हुए, उदासी के भाव में वह ‘लोकगायन’ के बहाने मातृसत्ता को आलम्बन बनाकर अपना दर्द बयाँ कर रही है । 

नायिका का यह दर्द उसका व्यक्तिगत दर्द नहीं है, सामाजिक है । अधिकांश स्त्री समाज का दर्द है । इसलिए इस दर्द को अकेले में और सीधे-सीधे बयाँ नहीं किया जाता है । वह बयाँ होता है समूहिक स्तर पर । सबके साथ । एक-दूसरे का साथ मिलते ही यह दर्द भी उत्सवधर्मिता में बदल जाता है और लोक का महत्त्वपूर्ण स्वर बन जाता है । लोक का यही स्वर स्त्री के इस दर्द के बारे में पुरुष मानसिकता के सामने कई गंभीर प्रश्न भी खड़ा कर जाता है । 

नायिका को अपनी ससुराल में अधिक भूमि, बड़ा महल अथवा बहुत अधिक धन-संपत्ति काटने दौड़ती है जब वह किसी अन्य नायिका को अपने मनभावन पति के साथ देखती है । उसे अपना ‘काला पति’ काटने दौड़ता है । वास्तव में यहाँ नायिका द्वारा जिस काले रंग की बात की गई है वह केवल शारीरिक रंग ही नहीं बल्कि स्वाभावगत और सामाजिक रंग भी है, जो उसके इर्द-गिर्द फ़ैला हुआ है । नायिका का स्वच्छ हृदय स्वच्छंदता के लिए जब-जब तिलमिलाता है, तब-तब उसे अपने चारो ओर एक काला घेरा नज़र आता है और वह तिलमिला उठती है ।
 
वास्तव में इस गीत में नायिका की इस तिलमिलाहट को ही ‘उत्सव के रंग में रंगकर’ प्रस्तुत किया गया है । इसका भी बड़ा कारण है । सामान्य तरीके से व्यक्त की गई कुंठा भी पुरुष दंभ पर गहरा आघात करेगी, जिसे पितृसत्ता का अहंकार सहन नहीं कर पायेगा । नायिका को इसका भी खयाल है । इस कारण वह अपनी कुंठाओं को ‘उत्सवधर्मिता’ के आवरण में सनाकर प्रस्तुत करती है । वह जानना चाहती है कि कौन वह पुरुष हृदय होगा जो इस भाव को समझ सकेगा । 

लोक अपने अंदर गहराई तक ‘दर्द’ छुपाकर रखता है । इसे समझने की आवश्यकता है । यहाँ पर इस गीत को गाने वाला पुरुष वर्ग है । इसे महिलाएँ भी गाती हैं । सही मायनों में देखें तो जैसे ही हम ‘लोक’ की दृष्टि से इन भावों को देखते हैं तो यह स्त्री और पुरुष की असमानता का भाव काफ़ी कुछ कम होता दिखाई देने लगता है । इसे भी समझने की आवश्यकता है ।

सुनील मानव  
04.04.2020

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