हरिपाल सिंह

#जानिए_मेरे_गाँव_जगतियापुर_को : 24
#बरसि_अठारह_क्षत्रिय_जीवे 
दोपहर बैठे-ठाले हरिपाल बाबा की ओर निकल गया । मन में आया कि एक फ़ोटो ही खीच लूँ । मैंने बाबा की ओर जैसे ही कैमरा घुमाया तो उन्होंने थोड़ा रुकने का इशारा किया । फ़िर थोड़ा सम्हलकर बैठे । पीठ सीधी की और दोनों हाथों से दोनों ओर की मूछें ऐंठते हुए उन पर ताव दिया । फ़िर हाथ का इशारा करते हुए हल्के से बोले ‘अब खींचउ’ । ... और मैंने एक-एक कर कई फ़ोटो खीच लिए । 

आज मैं बात कर रहा हूँ अपने गाँव के ठाकुर हरिपाल सिंह जी की, जिन्हें गाँव-गिराँव के रिश्ते से मैं बाबा कहता हूँ । हरिपाल बाबा से मेरे हमेशा से मधुर संबंध रहे हैं । अब तो बुढ़ा गए हैं । लड़के-बच्चों ने घर-गृहस्थी सम्हाल ही ली है तो चुपचाप घर-दुआरे बैठे-ठाले रहते हैं । अभी इसी लाकडाउन के दौरान मैंने बगिया में जब धमार की ढोल दो लोगों से बजवाई तो बाबा लकड़ी टेकते हुए वहाँ आ पहुँचे और पूरे दौरान बैठे रहे । हाँ ! अब गाना-बजाना उनका बस का न रहा ।

मैंने उनके वह दिन भी देखे हैं, जब वह पूरे उत्साह के साथ धमार, आल्हा और भजन मंडली के प्रमुख नायक बना करते थे । चैत-बैसाख का महीना है और अमिलिया तीर के जमघट के बीच दोपहरी में हरिपाल बाबा का आल्हा का स्वर गूँज उठता था । स्वर इतना तेज़ और उत्साह जगाने वाला होता था कि देखते ही देखते गाँव के तमाम लोग इकट्ठी हो जाया करते थे । बाबा बीच में बैठे हैं और चारो ओर से श्रोता । सबके चेहरों पर एक वीरोचित उत्साह । सब अपनी दरिद्रता, गरीबी, लाचारी और सांसारिक माया-मोह भूल जाया करते थे इस दौरान । 

हरिपाल सिंह बाबा क्षत्रिय जाति से आते हैं और आल्हा गायन के दौरान “बरस अट्ठारह क्षत्रिय जीवे, आगे जीवन कौ धिक्कार ।” ... और लाल हो आई आँखों, फ़ड़कने लगी भुजाओं, तैनात हो चुके रोमछिद्रों से प्रेरित उत्साह से ऐसे उचकते जैसे किसी युद्ध के मैदान में किसी शत्रु का गला दबोच लिया हो । और अगली पंक्ति पढ़ते हुए अपनी मूछों को सीना फ़ुलाते हुए ताव देने लगते । पूरा श्रोता समाज अपनी-अपनी समझ और तरीके से ‘दाद’ देने लगता था । ऐसा लगता था कि पूरा वातावरण एक युद्ध स्थल में तब्दील हो गया हो, जहाँ हरिपाल बाबा सेनानायक और अन्य लोग उनके सिपाही हों । मैं कभी यह दृष्य भूल नहीं सकता हूँ । आज भी  थोड़ा कारुणिक हो जाता हूँ जब इस आल्हा के वीर सेनानायक को ‘बुढ़ापे’ में देखता हूँ । आज भी अवसान की ओर जा रहे उनके शरीर के पार्श्व में आल्हा का वह वीर सेनानायक जब फोटो खिचाने के लिए अपनी मूछों पर ताव देता दिखता है तो अनायास ही उनके वह भाव-भंगिमा सजीव हो उठती है जब वह “बरस अट्ठारह क्षत्रिय जीवे, आगे जीवन कौ धिक्कार” गाते थे ।
आल्हा के अतिरिक्त हरिपाल बाबा अपने अन्य हमउम्र साथियों के साथ धमार गीतों के भी बेजोड़ गायक रहे हैं । मैंने अक्सर धमार की शुरुआत उन्हीं के गायन से होती देखी थी । वह भगवती का एक गीत गाकर धमार गायन का आरम्भ करते थे “दीजो ग्यान बताय सुरसुती मात भवानी ।” इसके बाद की कुछ देर जब गायन हो जाता था तब हरिपाल बाबा अपने वास्तविक गायन में आ जाते थे और आल्हा से संबंधित धमार गीत गाने लगते थे । उनका एक बड़ा प्रिय गीत था, जो मैं आज भी कभी-कभार गुनगुना लेता हूँ “माढ़व पइ कमान, ऊदल तेग सम्हारी ।” उनके गायन के केन्द्र में आल्हा ही होती थी, वीरता का भाग उनके जीवन के केन्द्र में था; शैली चाहें कुछ भी हो, लेकिन आल्हा का यह वीर सिपाही आज शारीरिक स्तर पर थक चुका है । बावजूद इसके जीवन के अंतिम पड़ाव तक हरिपाल बाबा के अंदर आल्हा का उत्साह बना रहा । 
जब मैंने धमार गीतों का संकलन आरम्भ किया था, यही कोई सात-आठ वर्ष पहले, तो हरिपाल बाबा ही थे, जिन्होंने भरी दोपहरियों में हमारे साथ अकेले बैठ-बैठकर न जाने कितने धमार गीत हमें सुनाए थे, जो मैंने नोट किए थे और रिकार्ड किए थे । वास्तव में हमारी इस पुस्तक ‘फ़ागुनबा बीतो जाइ’ के वास्तविक नायक यही हरिपाल सिंह बाबा ही हैं । 

आज मैं जीवन के करीब अंतिम अवस्था में लोक गायन के इस उत्साही नायक को वीर योद्धा सा सेल्यूट करता हूँ । आज आपके साथ गाँव की एक संस्कृति भी अपने समापन की ओर है लेकिन आपने मुझे उस संस्कृति के अंश को संरक्षण प्रदान करने का सौभाग्य प्रदान किया है । सेल्यूट करता हूँ आपको । 

सुनील मानव, 24.04.2020

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