पुस्तक : भुवनेश्वर व्यक्तित्व एवं कृतित्व संपादक : राजकुमार शर्मा विधा : संग्रह एवं विमर्श प्रकाशन : उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ प्रथम संस्करण : सन् 1992 मूल्य : रु.90 (हार्ड बाउंड)

जब-जब भी नाटक, एकंकी अथवा रंगमंच की बात होगी तो उसमें भुवनेश्वर का जिक्र अवश्य ही होगा। जब-जब हिंदी एकांकियों का इतिहास लिखा जाएगा भुवनेश्वर के अवदान की चर्चा अनिवार्य रूप से होगी।
भुवनेश्वर नाम उस व्यक्ति का है जिसने अपने छोटे से जीवन काल में लीक से अलग किस्म का साहित्य सृजन किया और आधुनिक एकांकियों के जनक होने का गौरव प्राप्त किया। एकांकी, कहानी, कविता, समीक्षा - कई विधाओं में भुवनेश्वर ने साहित्य को नए तेवर वाली रचनाएं दीं। इसी के साथ वे अपने क्रिया कलापों को लेकर जीवन काल में ही एक मिथ बन गए।
भुवनेश्वर ‘समय से आगे के रचनाकार’ थे। शायद यही कारण था कि उन्हें जीवनकाल में वह महत्व नहीं मिल सका जिसके वह हकदार थे। और सच कहा जाए तो भुवनेश्वर का कृतित्व  आज भी सच्चे मूल्यांकन की मांग कर रहा है।
भुवनेश्वर ने जब लिखना आरम्भ किया वह सामाजिक संक्रमण का काल था। पुराने विश्वास, परंपराएँ, रूढ़ियां आदि टूट-बिखर रही थीं और नए मूल्य, तर्क और विवेक के सहारे अपने को स्थापित करने का प्रयास कर रहे थे। एक वर्ग रूढ़ियों के पुराने लबादे को जार-तार करने पर उतारू था तो दूसरा वर्ग उसमें आदर्श के पैबंद लगाने का प्रयास कर रहा था। ऐसे में भुवनेश्वर ने मनुष्य की उस प्रवृत्ति को पकड़ा जो तथाकथित समाज एवं सामाजिकता से अलग नितांत अकेले में अपनी अकाट्य वास्तविकता का मूल्यांकन करती है। भुवनेश्वर ने अपने समय से काफी आगे की प्रवृत्ति को अपने लेखन में उतारा। टूटते विश्वास, स्वार्थी मनोवृत्ति, स्वच्छन्द सोच, मानसिक अवगुंठन और तमाम मध्य और निम्न मध्यवर्गीय समस्याओं का ‘कोलाज’ उनकी रचनाओं में चित्रित हुआ।
भुवनेश्वर के चरित्र किसी दूसरी दुनियाँ के नहीं हैं। वे सिर्फ मानसिक अवगुंठनों और यौन-कुंठाओं के पुतले मात्र भी नहीं हैं। देखा जाए तो स्ट्राइक, तांबे के कीड़े, कारवाँ आदि के तमाम पात्र हमारे आस-पास चहलकदमी करते  नजर आ जाएंगे।
उक्त विश्लेषण को यदि एक साथ उसकी विभिन्नता में देखना / समझना हो तो राजकुमार शर्मा द्वारा संपादित यह पुस्तक अत्यंत महत्त्वपूर्ण होगी ।
संपादक द्वारा इस पुस्तक को मुख्य रूप से चार प्रमुख भागों में बाँटा गया है – मूल्यांकन, साक्षात्कार, संस्मरण तथा असंकलित रचनाएँ । इन विभागों के माध्यम से भुवनेश्वर की रचनाशीलता से लेकर उनके व्यक्तित्व एवं अन्य पहलुओं को एक साथ छूने का प्रयास किया गया है ।
मूल्यांकन के अंतर्गत नेमिचन्द्र जैन (भुवनेश्वर की रचनाओं में गहरी सृजनात्मक सूझबूझ है), लक्ष्मीकान्त वर्मा (भुवनेश्वर : एक दृष्टि), डॉ. विपिनकुमार अग्रवाल (नये नाटक के जन्मदाता), डॉ. विश्वभावन देवलिया (भुवनेश्वर), रमेश तिवारी (भुवनेश्वर के नाटकों की सर्जनात्मक भाषा), डॉ. नरनारायण राय (एकांकीकार भुवनेश्वरप्रसाद), डॉ. गिरिजानन्दन त्रिगुणायत ‘आकुल’ (भुवनेश्वर :  कटु यथार्थ जिनकी विषय परिणति है), रमेश बक्षी (भ्वनेश्वर : कहानी और एकांकी की सलीब पर), डॉ. शुकदेव सिंह (भ्वनेश्वर : रचनात्मकता और गद्य की चरम पराकाष्ठा), राजेश्वर सहाय बेदार (भुवनेश्वर तो जीवन मूल्यों को पुनर्परिभाषित करने के लिए ही जन्म लेते हैं) तथा रामतीर्थ पटेल (भुवनेश्वर : रचना का संघर्ष) जैसे लेखकों के आलेख भुवनेश्वर के चरित्र से लेकर उनके रचनासंसार की गहरी पड़ताल करते हैं तो गिरिजाकुमार माथुर (भुवनेश्वर : नयी यथार्थवादी सामाजिक चेतना के प्रस्थान बिन्दु), त्रिलोचन शास्त्री (वह पहले और श्रेष्ठ नाटककार हैं), अमृत राय (उनकी रचनाशीलता को उसका प्राप्य नहीं मिला), कृष्ण मोहन सक्सेना (भुवनेश्वर : शमशेर की नज़र में), श्रीपत राय (एकांकी नाटक उनकी विधा थी), डॉ. सुरेश अवस्थी (भुवनेश्वर पहले ही नहीं अन्तिम एकांकीकार भी हैं), डॉ. हरदेव बाहरी (मैंने उनका नाम छोटे निराला ही रख दिया), नर्मदेश्वर चतुर्वेदी (उनको किसी टीले की आवश्यकता नहीं थी), दयानन्दन लाल सिन्धु (अपनी महत्ता न होने के कारण वे घर छोड़कर चले गये) तथा कृष्णनारायण कक्कड़ (भुवनेश्वर की विशेषता उनकी सार्वभौमिकता है) जैसे विचारकों के साक्षात्कार भुवनेश्वर के ‘अंत:-बाह्य’ को पारदर्शी बनाने में पूरी तरह सफल होते हैं । यह साक्षात्कार भुवनेश्वर को अंदर से कुरेद-कुरेदकर निकालते हैं ।
उक्त के अतिरिक्त संपादक द्वारा भुवनेश्वर प्रसाद पर लिखे गये कुछ ऐसे संस्मरणों का संकलन किया गया है जो भुवनेश्वर की संपूर्णता को एक साथ प्रस्तुत करने में पाठक के लिए बेहद सहायक सिद्ध होते हैं । कृष्णनारायण कक्कड़ (भुवनेश्वर स्मृति), रामेश्वर शुक्ल अंचल (भुवनेश्वर एक उचटती याद), डॉ. प्रभाकर माचवे (भुवनेश्वर), राजबहादुर विकल (भुवनेश्वर : एक बिखरा हुआ आलोक शिखर), निरंकारदेव सेवक (हवा के उस झोंके की तरह वह गुज़र गया), रसूल अहमद अबोध (पत्ता-पत्ता बूटा-बूटा हाल हमारा जाने है), शिवसिंह सरोज (उन्होंने मेरे नाम को ही नाटक बना डाला), डॉ. शीला अग्रवाल (भुवनेश्वर : एक स्मृति), दामोदर श्वरूप विद्रोही (काश ! हम उन्हें समझ पाते), शमशेर बहादुर सिंह (ऐसी प्रतिभायें पैदा नहीं की जा सकतीं) तथा नरेश मेहता (उनके जैसा एकांकीकार हिन्दी में दूसरा नहीं) के संस्मरण भुवनेश्वर की तेजश्विता को और भी तीव्रता प्रदान करते हैं । यह संस्मरण पाठक के सामने भुवनेश्वर को और भी स्पष्ट करने का भरपूर प्रयास करते हैं । इन लेखकों ने अपने संस्मरणों में भुवनेश्वर के साथ के अपने ‘क्षण’ को अपने स्तर पर जिस भी श्वरूप में जिया, उसे पूरी ईमानदारी, पूरी निष्टा के साथ जिया । संक्षेप में यह कि पाठक इन संस्मरणों को पढ़ते हुए एकबारगी भुवनेश्वरमय हो जाता है ।
पुस्तक के अंत में संपादक द्वारा भुवनेश्वर की उस रचनाधर्मिता को प्रस्तुत किया गया है जो इससे पहले संभवत: अन्य कहीं संकलित रूप में प्राप्य नहीं होती है । इस स्तर पर संपादक द्वारा भुवनेश्वर की ‘यदि ऐसा हो तो . . ., ‘कहीं कभी’, ‘जन्म एक बच्चे का’, ‘शुक्राणु का रोमान्स’, ‘खुल सीसामा’, ‘नदी के दोनों पाट’, ‘ग़रीबी के पछोड़ में’, ‘बौछार पै बौछार’, ‘आँखों की नमी’, ‘आँखों की धुँध में’, ‘रूथ के प्रति’, ‘रूथ के लिए’ तथा ‘दिमागी नारों के बीच’ कुछ ऐसी कविताओं को इस पुस्तक में संकलित किया है जो भुवनेश्वर की एक अलग पहचान को भी संदर्भित करती हैं । प्रथम चार अंग्रेजी कविताओं को भुवनेश्वर की हस्तलिपि में भी प्रस्तुत किया गया है जो लेखक के प्रति पाठक के लगाव को और मज़बूती प्रदान करता है ।
इसके अतिरिक्त ‘मास्टरनी’ और ‘एक रात’ कहानियाँ, ‘भाभी-काम्पलेक्स और कार्ल मार्क्स-एक साहित्यिक मुगाल्ता’ आलोचना, ‘कवि सम्मेलन में अक्षम्य अशिष्टता’ एवं ‘प्रेमचन्द जी का स्वर्गवास’ जैसे आलेख और ‘जेरूसेलम’ एवं ‘आदमखोर’ जैसे नाटक भुवनेश्वर के भिन्न चरित्र को प्रस्तुत करते हुए पुस्तक को संग्रहणीय बना देते हैं ।
नि:संदेह भुवनेश्वर के व्यक्तित्व और कृतित्त्व को आधार बनाकर संकलित की गई यह पुस्तक भुवनेश्वर के प्रति संपादक की गहरी निष्ठा की परिचायक है । इस पुस्तक के संपादन में संपादक ने अथक परिश्रम किया है, इसमें कोई संदेह नहीं रह जाता है ।
जो पाठक भुवनेश्वर प्रसाद को उनकी पूर्णता में समझने के लिए एक ही पुस्तक पढ़ना चाहते हैं, उनके लिए यह एक अच्छी पुस्तक मानी जा सकती है ।
सुनील मानव
मानस स्थली
16.05.2018

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