राजबहादुर सिंह

#जानिए_मेरे_गाँव_जगतियापुर_को : 29
#जोबनु_मेरे_बस_मइं_नाहीं_पिया ...
कार्य चाहें किसी भी प्रकार का क्यों न हो, बिना प्रबन्धक के हो ही नहीं सकता है । यह बात हमारे गाँव के #राजबहादुर_सिंह पर बखूबी लागू होती है । 

जब से मैंने अपने गाँव की धमार को देखा है तब से मैं राजबहादुर सिंह को ही उसके प्रबन्धक के रूप में देखता चला आ रहा हूँ । ... और सही मायनों में कहूँ तो बिना इनके मेरे गाँव की धमार की कल्पना तक नहीं की जा सकती है । हाँ ! इनसे पहले की मेरे पास बहुत कम ही स्मृतियाँ हैं । बड़े-बूढ़ों से कहते सुना हैं कि ‘‘पहले बन्धूसिंह आदि लोग धमार तथा भजन मण्डली आदि बाँधा करते थे लेकिन जबसे राजबहादुर समझने वाले हुए, धमार का सारा प्रबन्ध इन्होंने ही सम्हाल लिया ।’

गाँव-गिराँव के रिश्ते से राजबहादुर सिंह मेरे चाचाओं में लगते हैं लेकिन मैं उन्हें ‘राजबादुर दादा’ के नाम से ही पुकारता रहा हूँ । इस कारण उनसे अन्यों की अपेक्षा कुछ हँसी-मज़ाक भी अक्सर हो जाया करती थी । 

#अमिलिया_तीर’ हमारे गाँव का एक ऐसा स्थान है जो पूरे गाँव की ‘जमघट’ का केन्द्र न जाने कब से बना हुआ है । पहले यहाँ इमली का एक बड़ा पेड़ हुआ करता था । इस पर सावन में झूला पड़ता था । यह झूला भी राजबहादुर दादा अपने हम उम्रों के साथ मिलकर डाला करते थे । लड़कियों-महिलाओं के अतिरिक्त हम सब बच्चे भी कभी-कभार उसका लुत्फ़ उठाते रहे थे । हमारा तो दिन भर का अधिकांश समय यहीं कटा करता था । हमारा ही क्या गाँव के तमाम लोगों की दुपहरिया यहीं बीता करती थी । #ताश_का_जमघट हो या #गुप्पल_खेलते_बच्चे; सबका केन्द्र था यह ‘अमिलिया तीर’ का स्थान ।

होली आने वाली है और राजबहादुर दादा का काम पूरे उत्साह के साथ आरम्भ हो जाता था । ढोलक के #पुरे’ ठीक करना । यदि फ़ूट-फ़ाट गई हो तो उन्हें स्वयं ही #बकरे_की_खाल लाकर मढ़ लिया करते थे । #मोरपंखों की व्यवस्था में लड़कों को लेकर कई बार तो जंगल-जंगल घूमकर एक-एक पंख बीनकर लाते और उनसे धमार के पैंतरेबाजों के लिए #मूठ’ बनाते । एक मुट्ठीभर मोरपंखों को एक साथ बाँधकर उन्हें तरह-तरह के #फ़ीतों’ और #काँच तथा #सितारों से सज़ाने का उनका उत्साह देखते ही बनता था । 

धमार गायन में दो ढोलकों की आवश्यकता होती थी । राजबहादुर दादा सदैव इससे अधिक ढोलकों की व्यवस्था अपने पास रखते थे । #डंके स्वयं अच्छी लकड़ी लाकर श्रीपाल से बनवाते थे । मैं अक्सर महसूस करता कि जैसे कोई व्यक्ति घर में लड़की के ब्याह की तैयारी करता है ठीक वैसा ही उत्साह मैं धमार की तैयारी में राजबहादुर दादा के चेहरे पर देखता । सबसे अधिक मज़े की बात यह थी कि राजबहादुर दादा इस दौरान कभी झल्लाते नहीं थे । वह लड़के-बच्चों से हँसी-मज़ाक करते हुए अपना सहयोग करवा लिया करते थे । 

होली से ठीक एक महीने पहले, #बसंत_पंचमी के दिन जब होलिका दहन स्थल पर #अंडौवा’ की जड़ गाड़ी जाती थी, से ही #ढोल, #मज़ीरे और #मूठें तैयार करके रात में ‘अमिलिया तीर’ पड़े बंगले में धमार गायन का अभ्यास होने लगता था । राजबहादुर दादा बच्चों की सहायता से स्वयं लोगों को एकत्र करते थे और रात में कई-कई घंटे धमार गायन का अभ्यास होता था । 

रात-रात भर चला यह अभ्यास होली वाले दिन, जब पूरा गाँव मस्ती में होता, अपने सजीव रूप में गाँव के सामने आता था । राजबहादुर दादा की अगुवाई में मण्डली तैयार हो जाती थी । फ़िर तो होली से पन्द्रह दिन तक धमार गायन का वह समां बंधता था कि पूछो मत । 

राजबहादुर दादा गाने-बज़ाने में थोड़ा पीछे रहते थे लेकिन धमार गाय़न के दौरान जब #गुपली’ गाई जाती थीं तब इनके चेहरे की चमक देखते ही बनती थी । खासकर जब “जोबनु मेरे बस मइं नाहीं पिया / नाहीं पिया हो नाहीं पिया जोबनु मेरे बस मइं नाहीं पिया।”

धीरे-धीरे गाँव में दूषित राजनीति ने अपने पैर पसारने आरम्भ किए तो उमंग और उत्साह के संवाहक हमारे गाँव की यह संस्कृति भी मुरझाने लगी । लोगों का उत्साह कम होने लगा तो राजबहादुर दादा भी कुछ ढीले पड़ने लगे । 

आज भी राजबहादुर दादा के ही पास धमार का प्रबन्ध और साजो सामान मौजूद है लेकिन अब न वह समय रहा और न वह उत्साह । धमार मण्डली के अवशेष बक्सों में बंद धूल खा रहे अपनी जवानी के दिनों को याद करते हुए जैसे राजबहादुर दादा से रोष व्यक्त कर रहे हों । 

एक समय का वह #जोबन’ जो इनके बस में नहीं था आज ढ़लने लगा है । कभी-कभार हमारे कहने पर यह सब इकट्ठे तो हो जाते हैं लेकिन वह रस न रहा अब । घर-गृहस्थी के बोझ और सामाजिक दूरियों ने राजबहादुर दादा के अंदर का उत्साह समाप्त कर दिया है ।

काश ! एक बार फ़िर से वह समय लौट आता जिसमें मैं धमार टोली के बीच होली वाले दिन गत्ते की टोली बनाकर, सज-संवरकर मारे उत्साह के ज़मीन पर पैर न रखता था । काश ! एक बार फ़िर से राजबहादुर दादा के अंदर वही उत्साह वापस आ जाता जब वह धमार टोली में गुपली गायन के दौरान यकायक कूदकर गाने लगते थे #जोबनु_मेरे_बस_मइं_नाहीं_पिया_/_नाहीं_पिया_हो_नाहीं_पिया_जोबनु_मेरे_बस_मइं_नाहीं_पिया_।” 

... और सबके चेहरों पर शृंगार की एक गहरी रेखा खिच जाया करती थी ।

सुनील मानव, 28.04.2020

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