भक्तिकाव्य के विरल कवि ‘नंददास’

भक्तिकाव्य के विरल कवि ‘नंददास’
Ø  सुनील ‘मानव’

भारत में कृष्णभक्ति की परंपरा भागवत धर्म के रूप में अति पुरातन काल से मौजूद रही है। लेकिन कालांतर में इस परंपरा में कर्मकांडों का प्रभाव बढ़ जाने से भागवत धर्म की मूल प्रवृत्ति समाप्त प्राय हो गई। ऐसी परिस्थिति में उत्तर भारत में जहां जैन और बौद्ध धर्म का प्रभाव बढ़ने लगा वहीं दक्षिण में यह स्थान आलवरों ने लिया। इन बाद में विकसित हुए धर्मों में जैन धर्म जहां कर्मकांडी जकड़ के चलते एक सम्प्रदाय में सिमट गया वहीं बौद्ध धर्म ने राजाश्रय से भारत ही नहीं भारतेतर स्थानों पर भी अपना परचम लहराया। जैन धर्म की कर्मकांडता ने आगे चलकर महायान, हीनयान, सहजयान आदि धर्म की जटिल परंपराओं को जन्म दिया, जिसके चलते समाज में नाथों, सिद्धों, कापालिको, योगियों आदि का प्रादुर्भाव हुआ। इन्होंने धर्म की स्वतंत्र व्याख्या करके उसको दूसरी दिशा में मोड़ने का प्रयास किया। ऐसी सामाजिक और धार्मिक क्रियाओं के समक्ष शंकराचार्य ने‘ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या’ की घोषणा करके वैदिक चिंतन धारा को एक नवीन गति प्रदान की। शंकर की इस चिंतन प्रक्रिया को ‘अद्वैतवाद’ के नाम से जाना गया, लेकिन अत्यधिक शास्त्रीय होने के कारण यह चिंतन जनसामान्य में अपना प्रभाव नहीं डाल सका और फलस्वरूप भक्ति की लोक में स्थापना के उद्देश्य से श्री, सनक, ब्रह्म और रुद्र सम्प्रदायों का उदय हुआ।
                   ‘पद्मपुराण में माना गया है कि “रुद्र सम्प्रदाय के प्रवर्तक विष्णु गोस्वामी थे। नाभादास के ‘भक्तमाल’ से ज्ञात होता है कि विष्णु गोस्वामी के सम्प्रदायोंमें ही ज्ञानदेव(१२७५-१२९६ ई.), नामदेव, त्रिलोचन आदि सन्त थे तथा वल्लभाचार्य(जन्म १४७९ई.) ने इसी मार्ग का अनुसरण कर शुद्धाद्वैतवाद और इसका भक्ति सम्प्रदाय पुष्टिमार्ग चलाया। इस मत के प्रमुख आचार्य और प्रवर्तक वल्लभ ही हैं।”[1]
जिस समय वल्लभाचार्य का प्रादुर्भाव हुआ था उस समय देश मेंनाथों, सिद्धों, जैनों, निर्गुणिया सन्तों और सूफियों का प्रभाव बढ़ रहा था।“विरक्ति का स्वर सारे देश में प्रबल था, अत:लोक-जीवन के सामान्य कार्य-व्यापारों के बीच भक्ति की प्रतिष्ठापना इस युग की सबसे बड़ी माँग थी। आचार्य जी ने पुष्टिमार्ग चलाकर यही कार्य किया।”[2]
गोस्वामी वल्लभाचार्य के समय में इनके संप्रदाय का काफी प्रचार-प्रसार हुआ। इसके तहत जनमानस के हृदय में शृद्धा का प्रभाव बढ़ा ही साथ ही पुष्टिमार्गीय मंदिरों में पूजा-अर्चना का विधान किया गया। वल्लाभाचार्य के पुत्र गोस्वामी विट्ठलनाथ नेइस पूजा पद्यति के लिएअपने पिता और अपने चार-चार शिष्यों को लेकर ‘अष्टछाप’ की स्थापना की। अष्टछाप के इन भक्तकवियों में प्रथम चार –सूरदास, परमानंददास, कुंभनदास, कृष्णदास- वल्लाभाचार्य के शिष्य थे तो बाद के चार –गोविंद स्वामी, छीतस्वामी, चतुर्भुजदास, नन्ददास- विट्ठलनाथ जी के शिष्य थे। “ये आठो भक्त कवि गोस्वामी विट्ठलनाथ जी के सहवास में लगभग संवत्‍ १६०६ से १६३५ तक एक दूसरे के समकालीन थे तथा गोवर्धन पर्वत पर स्थित श्रीनाथ जी के मन्दिर में कीर्तन-सेवा करते हुए ब्रजभाषा में पदरचना करते रहते थे।
लोकजीवन के कार्य-व्यापारों के बीच प्रेम, सौंदर्य, आनंद और लीलामय भगवान कृष्ण की अवतारणा कर इन कृष्ण भक्त कवियों ने मन वाणी से अगम-अगोचर ब्रह्म को सांसों के निकट लाकर बिठा दिया। निर्गुण उपासक संतों और प्रेम मार्गीय सूफियों के बीच सगुण भक्ति का अधिष्ठान कर इन अष्टछापी कवियों ने हिन्दी साहित्य के इतिहास में बड़ा मूल्यवान योगदान दिया है।’’[3]
                   भक्तिकाल कीकृष्णभक्ति शाखा में प्राय: सूरदास जी के समकालीन और अष्टछाप के कवियों में अपना एक विशेष स्थान रखने वाले कृष्ण भक्त कवि नंददास जी अपनी कृष्ण विषयक भक्ति के लिए सूरदास के बाद सबसे अधिक प्रसिद्ध कवि रहे हैं। आ. रामचन्द्र शुक्ल का मानना है कि – “अष्टछाप में सूरदास के पीछे इन्हीं का नाम लेना पड़ता है। इनकी रचना भी बड़ी सरस और मधुर है। इनके संबंध में यह कहावत प्रसिद्ध है कि ‘और कवि गढ़िया, नंददास जड़िया।’”[4]
विट्ठलनाथ के प्रिय शिष्य नंददास की प्रसिद्धि का मुख्य आधार उनके ग्रंथ ‘रास पंचाध्यायी’ को माना जाता है, लेकिन इसके अतिरिक्त भी इनके कई ग्रंथ माने जाते हैं– भागवत दशम स्कंध, भ्रमरगीत, रूपमंजरी, रसमंजर, विरहमंजरी, अनेकार्थ मंजरी, नाम मंजरी, रुक्मणीमंगल, श्याम सगाई और सिद्धांत पंचाध्यायी। उक्त ग्रंथों में सूरदास की तर्ज पर लिखा गया ‘भँवरगीत’ को लेकर नंददास जी कृष्णभक्ति शाखा में विशेष चर्चा में रहे हैं। सूरदास के साथ इनकी तुलना करते हुए बच्चन सिंह जी लिखते हैं- “सूर की देखादेखी नन्ददास ने भ्रमरगीत लिखा। सूर का भ्रमरगीत मुक्तक काव्य है तो नन्ददास का प्रबंधात्मक। सूर में लोक का रंग है तो नन्ददास में शास्त्र का। सूरदास के भ्रमरगीत में गोपी-उद्धव संवाद की स्थितियां कम हैं जबकि नन्ददास के भ्रमरगीत में गोपियों और उद्धव का शास्त्रार्थ होता है-कथोपकथन के रूप में। उद्धव कहते हैं-‘सुनों ब्रजनागरी’। इसके उत्तर में गोपियाँ संवोधित करती हैं-सखा! सुनि स्याम के।’ सूर की गोपियाँ सरल-सहज हैं और नन्ददास की पंडित। सूर की भाषा ठेठ ब्रजी है और नन्ददास की संस्कृतनिष्ठ ब्रजी। शब्दों के प्रति सजग होने के कारण उन्हें ‘जड़िया’ कहा जाता है।”[5]
नन्ददास जी जिस कृष्णभक्ति काव्य के अनुयायी थे उसकी परंपरा वैष्णव धर्म के रूप में अत्यंत प्राचीन काल से इस देश में विद्यमान रही है। भक्तिकाल में इस परंपरा को कृष्णभक्ति के रूप में प्रज्ज्वलित करने वाले आचार्य बल्लभाचार्य हुए।बल्लभाचार्य ने ‘शुद्धाद्वैतवाद’ का प्रतिपादन किया था। उनका यह मत शंकराचार्य के अद्वैतवाद की प्रतिक्रिया स्वरूप था। अद्वैतवाद में जहाँ माया की प्रधानता है वहीं शुद्धाद्वैतवाद में ब्रह्म, माया के संबंध से रहित होने के कारण शुद्ध है। इस सिद्धांत में कार्य और कारण, दोनों रूपों में ब्रह्म को माया से पृथक रूप में व्याख्यायित किया गया है। कहा भी जाता है कि “माया रहित ब्रह्म ही एक अद्वैत तत्त्व है। सारा जगत्‍ प्रपंच उसी की लीला का विलास है।”[6] शुद्धाद्वैतवाद के मूल में ‘सर्व खलु इदं ब्रह्म’ अर्थात्‍ ब्रह्म सर्वमय है; सूक्ति प्रसिद्ध है।
डॉ.भगवानदास तिवारी लिखते हैं- “उनके आविर्भाव के समय सारे देश में नाथों, सिद्धों, जैनों, निर्गुणिया संतों और प्रेममार्गी सूफियों का बोलबाला था। नाथों और सिद्धों की सिद्धि रहस्यमय चमत्कारों, सूफियों का प्रेम दिव्य उन्माद और निर्गुणिया सन्तों की वाणी उपदेशात्मकता से बोझिल थी। विरक्ति का स्वर सारे देश में प्रबल था, अत: लोक-जीवन के सामान्य कार्य-व्यापारों के बीच भक्ति की प्रतिष्ठापना इस युग की बड़ी माँग थी। आचार्य जी ने पुष्टिमार्ग चलाकर यही कार्य किया।”[7] इन्हीं बल्लभाचार्य की शिष्य परंपरा में नन्ददास जी ने अपना काव्यस्रजन किया था। जिस समय बल्ल्भाचार्य भक्ति और दर्शन की बात कर रहे थे वह समय राजनैतिक और सामाजिक स्तर पर पर्याप्त उथल-पुथल का युग था। मुस्लिम शासन होने के कारण अरबी-फारसी का जन-जीवन में काफी प्रभाव था और सूफी-दर्शन भारतीय समाज में अपना प्रभाव बढ़ा रहा था। ऐसे में बल्लभाचार्य ने संस्कृत की परंपरा को एक नई तरह से निर्देशित किया। इसके लिए उन्होंने संस्कृत के तमाम ग्रंथों के भाष्य लिखे ही साथ ही साथ ‘भाषा’ में वैष्णव धर्म को नए आयाम दिए। वास्तव में देखा जाए तो बल्लभाचार्य ने संस्कृत की शास्त्रीयता का एक प्रकार से प्रचार-प्रसार ही किया। भक्तिकाल की कृष्णभक्ति शाखा में नन्ददास सबसे अधिक पढ़े लिखे और शास्त्र-संपन्न कवि थे, अत: उनकी कविताई में शास्त्रीयता का आ जाना स्वाभाविक ही था। और वास्तव में कृष्णकाव्य में नन्ददास की पहचान सहज-सरल भक्तिकवि से कहीं अधिक एक शास्त्रीय कवि की ही अधिक है। उनकी गोपियों की प्रसिद्धि के मूल में सहज भक्ति की अपेक्षा शात्रीय तर्कजाल ही अधिक है।
बल्लभाचार्य ने अपनी भक्ति-भवना के प्रचार-प्रसार के लिए जो दर्शन दिया वह ‘शुद्धाद्वैत दर्शन’ कहलाया, जिसके चलते ही उन्होंने ‘पुष्टिमार्ग’ का सिद्धांत दिया। इसी पुष्टिमार्ग के अनुयायी थे नन्ददास। डॉ.कृष्णदेव झारी का मानना है कि गोस्वामी बल्लभाचार्य के शुद्धाद्वैतवाद की “जितनी स्पष्ट और विस्तृत व्यंजना नन्ददास की रचनाओं में हुई है, उतनी सूर को छोड़कर अष्टछाप के अन्य किसी भी कवि के काव्य में नहीं मिलती। ‘सिद्धांत पंचाध्यायी’, ‘रूपमंजरी’, ‘रासपंचाध्यायी’, ‘भँवरगीत’ आदि रचनाओं में ब्रह्म श्रीकृष्ण, जीव, संसार, पुष्टि भक्ति, रासलीला, सगुण-निर्गुण आदि सभी से सम्बंधित उनके पुष्टिमार्गीय दृष्टिकोण का अध्ययन किया जा सकता है।”[8]
नन्ददास की भक्तिभावना, दर्शन और तर्कपटुता को अगर एक साथ देखना हो तो उनके ‘भँवरगीत’ को विशेष रूप से देखना ज्यादा समीचीन होता है। हिन्दी साहित्य में जितने भी भ्रमरगीत विषयक काव्य लिखे गए, मूलत: सबका आधार भागवत ग्रंथ ही रहा है, लेकिन उद्देश्य और प्रसंग को लेकर सभी भ्रमरगीत अपनी युगीन मौलिकता को समेटे हुए नजर आते हैं। भागवत में भाक्ति की निर्गुण और सगुण दोनों पद्धतियों का समान रूप से विश्लेषण किया गया है लेकिन भ्रमरगीत के रचनाकार सगुण भक्ति के प्रचारक रहे हैं अत: उन्होंने अपने भ्रमरगीत विषयक ग्रंथों से सगुण भक्ति का ही निरूपण किया है। यह प्रवृत्ति युगीन थी। वास्तव में “सूरदास, नन्ददास आदि भक्तों के युग में ज्ञान-मार्गीय निर्गुणवादियों तथा प्रेम-मार्गीय सगुणवादियों में बड़ा संघर्ष चल रहा था। अत: सूर, नन्ददास आदि सगुण भक्त कवियों ने अपने भ्रमरगीतों का उद्देश्य, काव्यात्मक ढ़ंग से ज्ञान, योग और भक्ति का वाद-विवाद दिखाकर, ज्ञान-योग मार्ग तथा निर्गुण पर सगुण भक्ति की प्रतिष्ठा बना लिया।”[9]
नन्ददास के भँवरगीत में जब गोपियों के तर्कों से उद्धव निरुत्तर हो जाते हैं तो कहते हैं-
“अब ह्वै रहौं ब्रज भूमि को मारग मैं की धूरि।
विचरत पग मों पैं धरैं सब सुख जीवन मूरि॥ मुनिनहूं दुर्लभ जो॥”
कहने का मतलब यह है कि नन्ददास ने भागवत के भ्रमरगीत प्रसंग को आधार बनाकर ही निर्गुण पर सगुण की विजय स्थापित करने का प्रयास किया है।यह युगीन वातावरण का ही प्रभाव था।
ऊपर कहा जा चुका है कि भ्रमरगीत का विकास श्रीमद्‍ भागवत्‍ से हुआ है। इस संबंध में भागवत में एक कथा-प्रसंग आता है, जिसमें वर्णित है कि एक बार मथुरा के राजा कृष्ण ने अपने मंत्री और मित्र उद्धव को बुलाकर गोकुल जाने को कहा। कृष्ण ने उद्धव से कहा कि वह गोकुल जाकर यहाँ की कुशलता से माता-पिता और गोप-गोपियों कोअवगत कारायें तथा वहाँ की कुशलता के समाचार यहाँ लायें।कृष्ण ने यह भी कहा कि गोकुल के गोप-गोपियां उनसे अत्यधिक प्रेम करते हैं। वह सब उनके विरह में जल रहे हैं। अत: उद्धव वहाँ जाकर उन सबको ‘ज्ञान’ का संदेश दें। उद्धव को अपने ज्ञान पर बड़ा अभिमान था। गोकुल में उनका बड़ा स्वागत-सत्कार हुआ। सभी इस आस में उनसे मिलने आये कि वह कृष्ण के कुछ हाल-चाल बतायेंगे, लेकिन उद्धव ने जब बोलना आरंभ किया तो कृष्ण के प्रति उपेक्षा का भाव पाकर गोपियां तिलमिला उठीं। चूंकि घर आये मेहमान का निरादर भी नहीं कर सकती थीं, इसलिए वह अंदर ही अंदर जलने लगीं।उसी समय गोपियों के सौभाग्य से एक ‘भ्रमर’ उड़ता हुआ वहां आ पहुंचा। फिर क्या था, गोपियों को तो बस बहाना चाहिए था सो मिल गया। इसके बाद गोपियों और उद्धव के बीच भ्रमर को आधार बनाकर अथवा कहें कि गोपियों द्वारा ‘भ्रमर’ संबोधन से जो वाद-विवाद हुआ, ‘भ्रमरगीत’ कहलाया। हिन्दी में सूरदास और नंददास के अतिरिक्त भी तमाम कवियों ने इस पर अपनी लेखनी चलायी है।
यहां पर एक बात जो ध्यान देने की है वह यह है कि सूर और नंददास के भ्रमरगीत विषयक काव्यों में सगुण-निर्गुण का जो द्वंद्व दिखलायी पड़ता है वह भागवत में उतना नहीं है। “भागवतकार की गोपियां तो सगुण ब्रह्म के साथ-साथ उनकी ज्ञानपरक उपासना के महत्त्व को मान अंतत: भागवत्‍ ध्यान में, परम प्रेम में लीन हो जाती हैं, किन्तु भक्तिकाल के भ्रमरगीतों में निर्गुण-सगुण ब्रह्म-विवाद तात्कालीन धर्म-संप्रदायों के संघर्ष का प्रतीक है।”[10]
भागवत की इस परंपरा पर भक्तिकाल में सबसे सहज लेखनी सूरदास ने चालायी थी तो शास्त्रीयता से इसको नंददास ने सिंचित किया था। इनके अतिरिक्त तुलसीदास, हरिदास, रसखान, रहीम, सेनापति आदि कवियों के काव्य में भी कहीं-कहींइस प्रकार के गीत मिल जाते हैं।
रीतिकाल में जहां अक्षर अनन्य, आलम, नागरीदास, चाचा हित वृन्दावनदास, ब्रजवासीदास, महाकवि देव, घनानंद, ठाकुर, भिखारीदास, पद्‍माकर इत्यादि कवियों ने भ्रमरगीत पर लिखने का प्रयास किया तो आधुनिक कालीन कवियों में रघुनाथदाससनेही, भारतेंदु, रसीले, सत्यनारायण कविरत्न, जगन्नाथदास रत्नाकर आदि इस विषय के लिये जाने गये। इनके अतिरिक्त भी आधुनिक काल में कुछ कवियों; जैसे – मुकुन्दीलाल माहौर, चन्द्रभानु रज, प्रदुम्न टुगा, रमाशंकर शुक्ल रसाल, द्वारिकाप्रसाद मिश्र, श्यामसुंदर लाल दिक्षित इत्यादि ने अपनी रचनाओं में इस परंपरा का पोषण करने का प्रयास किया है।
उक्त नामों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि हिन्दी कविता में भ्रमरगीत परंपरा भक्तिकाल से लेकर किसी न किसी रूप में निरंतर चलती रही है, लेकिन ‘भ्रमरगीत’ को लेकर ख्याति मुख्य रूप से सूरदास और नंददास को ही मिली।
वास्तव में देखा जाए तो भागवत से लेकर आगे तक के धार्मिक काव्यों में ‘भ्रमर’ का प्रयोग एक प्रतीक के रूप में किया गया है। कृष्ण श्याम हैं तो उद्धव भी श्यामवर्णी हैं और इन दोनों पर पड़ने उपालम्भों को अपने पर झेलने वाल ‘भौंरा’ भी श्यामवर्ण का है। कृष्ण गोपियों को रोता-कलपता छोड़कर मथुरा चले गये। एक-दो दिन में वापस आने को कहकर थे लेकिन वर्षों नहीं आये। निष्ठुरता की भी एक हद होती है। गोपियां कृष्ण को अगाध प्रेम करती हैं, उनके लिए अपनी मान-मर्यादा तक को दांव पर लगा देती हैं। कृष्ण की ‘बंसरी’ के बुलावे पर वह अपने ‘आरज पथ’ तक को त्यागकर उनके पास पहुंच जाती थीं, लेकिन वही कृष्ण उनकी सुध तक नहीं लेते। और जब सुधि लेते भी हैं तो गोपियों को ऐसा लगता है जैसे वह उद्धव के माध्यम से उनके पवित्र ‘प्रेम’ का उपहास उड़ा रहे हों। इसके बावजूद भी गोपियां उनको सीधे-सीधे कोई उलाहना नहीं दे पाती हैं। आखिर प्रेम भी कोई चीज होता है। लेकिन उनके हृदय की कसक बाहर निकल पड़ने के लिए कुलबुलाती ही रहती है। आखिर एक दिन उन्हें मौका मिल ही जाता है। उद्धव बैठे हुए ज्ञान का आख्यानदे रहे हैं उतने में ही कहीं से एक भ्रमर उड़ता हुआ वहां आ जाता है। अब गोपियां अपने को रोकने में असमर्थ हो जाती हैं। बेचारा भ्रमर गोपियों के उपालम्भ का भाजन बैठे-ठाले में बन जाता है। लेकिन ‘बैठे-ठाले में’ तो कुछ भी नहीं होता! इसका एक कारण गोपियां तलाश कर लेती हैं।भ्रमर की कृष्ण के साथ कई अर्थों में समानता है। केशव नारायण सिंह की पुस्तक ‘कृष्णकव्य में भ्रमरगीत’ की भूमिका में श्री रघुवंश जी लिखते हैं – “भ्रमर अपने प्रेम-व्यवहार में निष्ठुर है – कृष्ण ने भी गोपियों के साथ इसी प्रकार का निष्ठुर व्यवहार किया है। साथ ही भ्रमर की अस्पष्ट ‘गुन-गुन’कृष्ण के निर्गुण संदेश और उद्धव के निर्गुण उपदेश से मिलती-जुलती है।”[11]
आगे चलकर तो भ्रमरगीत परक काव्यों मेंयह तक देखने को मिलता है कि भले ही कवियों ने उद्धवके साथ गोपियों के संवाद के बीच भ्रमर का प्रवेश कराया हो लेकिन आगे चलकर यह संवाद उद्धव-कृष्ण और भ्रमर का सामूहिक आख्यान ही बन पड़ा है।
नन्ददास के ‘भंवरगीत’ की प्रसिद्धि का एक प्रमुख कारण उसकी कवित्त्व शक्ति को लेकर भी रहा है। इस दृष्टिकोण से वह भागवत के दार्शनिक आख्यान सेआगे बन पड़ता है।श्री रघुवंश कहते हैं – “श्रीमद भागवत धार्मिक ग्रंथ है; इसमें धार्मिक विवेचना और धार्मिक प्रतिपादन रूपकों और प्रतीकों के आधार पर किया गया है। परंतु इन धार्मिक प्रवृत्तियों के साथ इसमें कवित्त्व भी है। काव्य के दृष्टिकोण से भावनाओं और चरित्र की उद्‍भावना के क्षेत्र में भागवतकार नितांत रूढ़िवादी ही हैं। हिन्दी साहित्य के धार्मिक युग में भावों और चरित्रों के क्षेत्र में जो स्वच्छंद-भावना हमको मिलती है, वह इसमें नहीं है।”[12]
कहा जा चुका है कि नन्ददास के भ्रमरगीत का आधार भागवत ही है। भ्रमर का प्रवेश भी तकरीबन उसी प्रकार से होता है। लेकिन “इस अनुकरण के कारण नन्ददास की गोपियों में आत्मविश्वास की वह भावना नहीं मिलती जो सूर तथा अन्य कवियो में मिलती हैं। वे उद्धव्से तर्क करके उनके ज्ञान-सिद्धांत को काटकर भी अपनी मनोव्यथा में विवष ही लगती हैं और वे अपनी वेदना में काम-पीड़ा का अनुभव करती भी जान पड़ती हैं। ऐसा लगता हैं कि नन्ददास ने भक्ति की स्थापना के लिए तो अपने आचार्यों की तर्कना का आश्रय लिया है, पर भाव और प्रसंग को भागवत के अनुरूप ही रक्खा है।
इस प्रकार भक्ति साहित्य की भ्रमरगीत परंपरा में एक ओर भक्ति और ज्ञान का तर्क है जिसमें भक्ति की स्थापना की गई है, और दूसरी ओर भक्तिमार्ग की प्रेमसाधना की अभिव्यंजना है। इस युग के उपालम्भ में प्रिय की निर्ममता और निष्ठुरता का संकेत प्रेम की व्यंजना के अर्थ में हुआ है।”[13]
नन्ददास की अपनी कुछ ऐसी विशेषताएं हैं जिनके चलते उन्हें अष्टछाप में एक अलग पहचान मिलती है। उनमें कवित्त्वशक्ति और भक्तिभावना के अतिरिक्त ‘सिद्धांतवादिता’ एवं ‘शास्त्रीयता’ दो ऐसे बिन्दु हैं जो उन्हें एक पृथक स्थान दिलाते हैं। “कृष्ण-भक्ति के माहात्म्य को वे तर्क और पाण्डित्य द्वारा सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं। पुष्टिमार्गीय सिद्धांत-कथन के अतिरिक्त नन्ददास ने अपनी कृष्ण-भक्ति के संदर्भ में ही काव्य-शास्त्रीय विवेचन की भी प्रवृत्ति प्रकट की है। अष्टछाप के अन्य कवियों ने कृष्णलीला संबंधी विविध विषयों पर रचना अवश्य की, परन्तु उन विषयों को स्वतंत्र ग्रंथ के रूप में प्रस्तुत करने की प्रवृत्ति केवल नन्ददास में पायी जाती है।”[14]
भक्तिकाल के अधिकांशत: सभी कवियों ने महज कृष्णभक्ति विषयक कविता ही की है लेकिन नन्ददास एक ऐसे कवि थे जिन्होंने कृष्णलीला संबंधी विषयों के अतिरिक्त भी कुछ ऐसे विषयों पर अपनी लेखनी चलायी जो लौकिक और साहित्यिक भी कहे जा सकते हैं। चूँकि नन्ददास अष्टछाप के कवियों में परवर्ती काल के कवि हैं सो स्वाभाविक ही है कि उनमें हम काफी हद तक साम्प्रदायिकता की प्रचुरता और लौकिक विषयों के प्रति उन्मुखता का भाव देखते हैं।
नन्ददास जी भक्त तो हैं ही साथ ही वे एक ऐसे सचेतन कलाकार भी हैं जिन्हें अपने कविकर्म का हमेशा ध्यान रहता है, भले ही उनकी काव्य-सामग्री का बड़ा स्रोत ‘सूरसागर’ रहा हो। संभवत: इस कारण भी अष्टछाप में इनका स्थान काफी ऊँचा रहा है।
वास्तव में देखा जाए तो भक्तिकाल के करीब-करीब समस्त कवि भक्ति रस से सराबोर होकर ही रचनाएं कर रहे थे। उनकी कविता के मूल में ‘भक्ति’ प्राथमिक थी ही साथ ही ‘लोकभावना’ की भी कम प्रचुरता नहीं थी। जनसामान्य के लिए उनकी कविता ने काफी हद तक ‘संजीवनी’ का काम किया था। ये समस्त कवि शास्त्र से आधार तो अवश्य लेते थे लेकिन इनकी कवितायी के मूल में अनुभव ही प्राथमिक भूमिका निभाता था। इन अर्थों में नन्ददास इन सबसे थोड़ा अलग थे। नन्ददास भक्तिकाल के कवियों में एक ऐसे स्थान पर आते हैं जिन्होंने शास्त्रों का काफी अध्ययन किया था। भक्तिकाल एक इसी समयावधि का नेतृत्त्व करता है जहाँ पर भारतीय शास्त्रीयता और इस्लाम तथा इसाइयत के दर्शनों के मध्य एक प्रकार से संघर्ष की स्थिति बन रही थी। पुरातन काल से ही शास्त्रों से दूर किया गया भारतीय समाज का एक वर्ग अभारतीय दर्शन की ओर उन्मुख हो रहा था। ऐसे में बल्लभाचार्य आदि सनातन धर्म के पोषकों ने सरल-सहज भाषा में शास्त्रों के भाष्य भारतीय जनमानस के लिए तैयार करने का जिम्मा उठाया। वास्तव में नन्ददास इसी परंपरा के पोषक थे।




[1]संगमलाल पाण्डेय : हिन्दी साहित्य कोश, भाग-१, पृ. : ६७३
[2]डॉ.भगवानदास तिवारी : महाकवि नंददास-प्रणीत भँवरगीत, पृ.-१०
[3]वही
[4]रामचन्द्र शुक्ल : हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ.-१२६
[5]बच्चन सिंह : हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास, पृ.-१२९
[6]संगमलाल पाण्डेय : हिन्दी साहित्य कोश, भाग-१, पृ. : ६७३
[7]डॉ.भगवानदास तिवारी : महाकवि नंददास-प्रणीत भँवरगीत, पृ.-१०
[8]डॉ. कृष्णदेव झारी : अष्टछाप और नंददास, पृ.-८३
[9]वही, पृ.-१४४
[10]डॉ.भगवानदास तिवारी : महाकवि नंददास-प्रणीत भँवरगीत, पृ.-२४
[11]केशव नारायण सिंह : कृष्ण-काव्य में भ्रमरगीत, भूमिका-रघुवंश, पृ.-०९
[12]वही
[13]केशव नारायण सिंह : कृष्ण-काव्य में भ्रमरगीत, भूमिका-रघुवंश, पृ.-१३
[14]ब्रजेश्वर वर्मा : हिन्दी साहित्य कोश, भाग दो, पृ.-२७९

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