भगवतशरण अवस्थी

#जानिए_मेरे_गाँव_जगतियापुर_को : 53

#बाबा_की_पुण्यतिथि_पर_स्मरण_करते_हुए

बाबा को दुनिया से गए आज #पाँच_साल हो गए । गए क्या पूरा परिवार ही बिखरता चला गया । सबके स्वार्थ और परिस्थितियों ने ‘खुशियों के पूर’ रूपी परिवार को खंड-खंड कर दिया । इस खंडत्त्व में अधिकांश प्रसन्न भी हैं लेकिन मैं टूट गया और अपनी टूटन में घुटने लगा । खैर ! इसे कहीं अलग विस्तार दूंगा । यहाँ कुछ और संवेदनाएँ हैं, जिन्हें सहेजने का प्रयास है ।

आप चले गए । पाँच साल हो गए लेकिन ऐसा लग रहा है कि कहीं तीर्थयात्रा पर गए हैं । आते ही होंगे । बगिया में आपकी समाधि को गाँव में होने के दौरान दिन में एक-आध बार देखा आता हूँ दूर से, जिसमें मैंने अपने हाथों आपको बिठाया था । सन्यासियों की पूरी क्रियाविध से । यह आपका ही आदेश था । मैं और छोटे चाचा । साथ में उनके एक शिष्य । लग ही नहीं रहा था कि आप अब हमेशा के लिए समाधिस्ट हो रहे हैं । गहरे गढ्ढ़े में आपको बिठाकर । सभी कर्मकांड करने के बाद जब आपके शरीर को गलाने के लिए नमक भरा जा रहा था, बिलकुल ऊपर तक, सिर के ढकने तक भर जाने से एक पल पहिले तक यही लगता रहा कि आप उठेंगे । थोड़ा हिले-डुलेंगे और हम झट से आपको ऊपर निकाल लेंगे । एक-एक-एक पल उम्मीद टूटती गई । आप समाधिस्ट हो गए । हम सब बहुत देर तक ज़मीन से कुछ ऊपर तक उठे मिट्टी के ढेर को निहारते रहे । शायद अब भी कोई हरकत हो जाए । कहीं दूर से या पीछे से कोई कहे कि देखो-देखो मिट्टी हिल रही है । बाबा जी को निकालो बाहर । नहीं । ऐसा कुछ न हुआ । धीरे-धीरे हम बाहर निकल आए । 

सब रो रहे थे । विलख रहे थे । एक-दूसरे को सांत्वना दे रहे थे । बावजूद इसके किसी को ऐसा नहीं लग रहा था कि स्वामी जी अब इस दुनिया में नहीं रहे । अब वह कभी वापस न आयेंगे । अब तीर्थयात्रा से उनके वापस आने का इंतजार न होगा । सभी कयास समाप्त हो गए थे । पहली मौत थी मेरे ‘घर’ में । पहली बार लग रहा था कि कुछ चला गया है । दूर । हम सभी से बहुत दूर । जो कभी न आयेगा । जब-जब बाबा की बरसी यानि कि जून की दस तारीख आती है । भूली-बिसरी स्मृतियां मनो-मस्तिष्क में हलचल मचाने लगती हैं ।   

बाबा मेडिसिन में डॉक्ट्रेट थे । फारसी, अंग्रेजी, संस्कृत और हिंदी पर आपका समान अधिकार रहा । डॉक्ट्रेट होने के बाद कुछ वर्ष गाँव-गाँव जाकर मरीज़ों की सेवा की । वह क्या था जिसने वैराग्य उत्पन्न किया और घर से चले गए । सन्यास ले लिया । 'कर्म से सन्यासी और मन से सामान्य मनुष्य' का जीवन सदा जीते रहे । किताबों के कीड़े थे । कभी-कभी कृष्ण प्रेम के पद भी लिखा करते थे । एक बार कुछ पद दिखाए भी थे, लेकिन दुर्भाग्य कि वह अब मेरे पास नहीं है । बाबा का यही कीड़ा बापू से होते हुए मेरे तक आया । धार्मिक किताबों में आपका जितना अधिकार पुराणों पर रहा उससे कहीं अधिक हिंदी साहित्य पर । प्रेमचंद, यशपाल, रेणु, जैनेन्द्र कुमार, अज्ञेय आदि आपके प्रिय लेखक रहे । आप जब तक रहे, मेरे हर लिखे को पढते रहे । जाने से ठीक पहले आपने मुझसे ‘भीष्म’ पर लिखने की इच्छा जाहिर की थी । मैंने उक्त विषय पर पटकथा लिखी, पर उन्हें पढने का अवसर नहीं मिला । डॉ. भगवतशरण अवस्थी, आज आपकी पुण्य तिथि पर अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित करता हूँ ।

अभी कुछ दिन पहले एक किताब में बापू एवं चाचाओं के नाम लिखा हुआ एक पत्र मिला, जो आपने सन् 1993 में (सन्यासी होने के बाद) भूमानिकेतन आश्रम, हरिद्वार से लिखा था । पत्र के अत्यंत कम शब्दों में इतनी ज्यादा संवेदनाओं का समावेश हुआ है कि बाबा के स्मरण से आँखे अपना बहाव रोक न सकीं. . . वास्तव में आपने भले ही गृहस्थ धर्म का पालन भली-भांति न किया हो फ़िर भी आप एक महामानव थे । आपने परिवार में सकारात्मक उर्जा का विकास किया और भ्रमात्मक संसार में हम सबका मार्ग प्रशस्त किया । और सबसे अधिक तो आपने हमारे अंदर ‘शब्द’ गढने की जो उर्जा भरी, उससे आप सदा हमारे हृदय व शब्दों में अमर रहेंगे. . . 
आज जब आपकी लगाई, अपने ‘घर’ रूपी बगिया को बिखरते-उजड़ते देखता हूँ तो कई बार पूरी-पूरी रात सो नहीं पाता हूँ । 

मेरे बाबा महामानव या ईश्वर थे । उनमें किसी प्रकार का अवगुण न था । ऐसा कहना मेरे लिए बेमानी होगी । बाबा से कई बातों पर मेरी असहमति, जब से समझने वाला हुआ, तब से लेकर अंत तक बनी रही । घर में भी जिया से लेकर बापू-चाचाओं तक उनका एक निर्णय आलोचना का केन्द्रबिन्दु बना रहा । यह इन लोगों का सामाजिक और भौतिक स्वार्थ भी हो सकता है ।

जिया जमीदार परिवार से थीं । संभवत: उनकी शादी बाबा से इसलिए हुई होगी क्योंकि वह मेडिसिन में डॉक्टर थे । लेकिन बाबा की सांसारिक अरुचि ने सबकी इच्छाओं पर पानी फ़ेर दिया था । वह तो जिया की कर्मठता थी कि उन्होंने घर संभाल लिया । जिया बताती थीं कि शादी के बाद भी उन्होंने घर-गृहस्थी पर ध्यान नहीं दिया । बावजूद इसके उन्हें एक के बाद एक पाँच बच्चे हुए । एक लड़की और चार लड़के । सबको यथोचित पढ़ाने का प्रयास किया, लेकिन इसमें बाबा का कम और जिया का योगदान अधिक रहा । बाबू और बड़े चाचा की शादी के बाद जब बुआ की शादी की और शादी में आए एक मेहमान को छोड़ने उनके घर गए । गए ही क्या चले ही गए । दसियों साल तक कोई खोज-खबर नहीं दी । बहुत ढूंढ़ा गया । न जाने कहाँ-कहाँ । तब जाकर कहीं उनका पता चला । और सन्यासी होने के बाद पहली बार जब बाबा घर आए तो सबके न जाने कितने गिले-सिकबे थे, जो आँसुओं की राह बह चले थे । रात का कोई ग्यारह-बारह बजा होगा । गाँव के कोल्हू पर ‘राब’ बन रही थी । मैं वहीं था । उसी समय किसी ने कहा आकर ‘तुम्हारे बाबा आइ गे’ । ऐसा लगा था उस दिन कि उस समय तक की सभी स्मृतियाँ एक साथ सामने सजीव हो आई हों । यकायक । धक्क से ।

मैंने बचपन में बाबा को सफ़ेद धोती-कुर्ता पहने देखा था लेकिन आज लम्बी सफ़ेद दाढ़ी-मूछों से आच्छादित-परिवेष्टित गेरुए कपड़ों में एक सन्यासी को सामने देख रहा था । एक ओजस्वी सन्यासी । पहले-पहल तो विश्वास ही नहीं हुआ था कि ये मेरे बाबा हैं जो पूजा के समय छाते के ऊपर हाथ करके एक पेड़ा मुझे रोज खिलाया करते थे । मैं कुछ पल एकटक निहारता रहा था । तब तक जब तक उन्होंने स्वयं मुझे अपनी ओर खींचकर गले न लगा लिया । ऐसा भी कोई सन्यासी करता है कहीं भला ! वह भूल गए थे कि वह अब सन्यासी हैं । मुझे मोहपास में बिंधा एक सामान्य इंसान भर दिखाई दे रहा था ।

धीरे-धीरे हम उनके सन्यासी स्वरूप के आदी होने लगे थे । वह अधिकांश बाहर ही रहते थे । साल-दो साल में कुछ दिनों के लिए घर आते । जब आते तो खूब सारा प्रसाद लाते । हमारे लिए वह लालच भरा था । 
बाबा अपने सन्यासी रूप को अक्सर व्याख्यायित करते । माया-मोह से दूर होने की बात करते, लेकिन मैं उनके व्यवहार में यह बात न देख पाता । मुझे उनमें घर का एक सदस्य दिखता जो अपने बच्चों से, पोते-पोतियों से अगाध स्नेह करता था । उनकी चिंता करता था । 

ऐसे ही एक बार मेरी एक धृष्टता से वह कुछ देर को आहत हुए थे लेकिन बाद में उन्होंने मुझे बुलाकर अपनी गलती स्वयं स्वीकारी भी थी । मेरी नज़रों में उनकी इज्जत उस दिन से कई गुना और बढ़ गई थी । 
हुआ यह था कि बाबा कहीं बाहर से आए थे । संभवत: मथुरा से । सब लोग उनके आस-पास इकट्ठे थे । दो-चार लोग गाँव के भी । हमें आतुरता थी कि कब बाबा अपना प्रसाद वाला डिब्बा खोलते हैं । कुछ देर के इंतजार के बाद उन्होंने डिब्बा खोला । वहाँ बैठे सबको एक-एक पेड़ा दिया । कुछ ग्रामीण बच्चे बहर से मिल रहे प्रसाद को लालच से ताक रहे थे । बाबा ने डिब्बे से पेड़ा निकाला । उसके चार हिस्से किए और उन बच्चों को दे दिए । मेरे लिए यह असहनीय था । स्नातक का छात्र था । तर्क करने लगा था । मैंने बाबा का दिया हुआ वह पेड़ा न खाया । धीरे से उठकर बाहर गया । किसी को अपनी व्यथा का अहसास न होने दिया । बाहर जाकर अपना पेड़ा उन बच्चो में बाँट दिया । मन में एक अजीब-सा गुबार उठ रहा था । अगले दिन मैंने बाबा को एकांत जानकर पूछ ही लिया । ‘बाबा आप तो कहते हो कि आप सन्यासी हो और सन्यासियों के लिए सब बराबर हैं । आपके बच्चे-पोते-पोतियाँ और ये सब ग्रामीण । लेकिन आपने सबको एक पेड़ा दिया और उन बच्चों को चौथाई क्यों दिया ?’

मेरा प्रश्न उनको अंदर तक हिला गया । संभवत: इसके लिए वह बिलकुल तैयार नहीं थे । वह कोई ऐसा उत्तर न दे पाए जिससे मुझे संतोष होता । मैंने भी बात आगे नहीं बढ़ाई लेकिन बाद में वह स्वयं कहने लगे कि ‘ये जो घर-परिवार का मोह है ... जाते-जाते भी नहीं जाता ... शारीरिक / भौतिक रूप से तो सन्यासी का जामा पहना जा सकता है लेकिन इसे हृदय तक पहुँचाने में उम्र बीत जाती है ।’ इस दिन मैं बाबा की साफ़गोई से बहुत प्रसन्न हुआ था । बावजूद इसके मुझे हमेशा उनके अंदर एक सवर्णबोध / ब्राह्मणत्त्व झाँकता दिखाई देता रहा । मैं भविष्य में फ़िर इस प्रकार की घटनाओं से बचता रहा । 

बात मोह की हो रही है तो स्पष्ट करता चलूँ कि उन्हें घर में दो लोगों से अत्यधिक स्नेह था । एक प्रमोद चाचा और दूसरे छोटे चाचा, जो शाहजहाँपुर में रहते हैं । वह घर में रहने के बाद भी शाहजहाँपुर जाकर छोटे चाचा के साथ रहने को लालायित रहते थे । वह अकसर कहते कि ‘तुम सबको तो खूब देख लेता हूँ लेकिन ‘हर्षू-शिखर’ को देखने के लिए मन करता रहता है ।’ बस इसी मोह के चलते वह शाहजहाँपुर चाचा के घर पहुँच जाते और कई बार तो काफ़ी दिनों के लिए ठहर भी जाते थे । उस समय मैं भी शाहजहँपुर में ही था । वैसे भले ही चाचा के घर रोज न पहुँचता हूँ लेकिन बाबा के होने के दौरान कुछ समय के लिए शाम को अक्सर जाता था । 
छोटे चाचा का बाबा के प्रति व्यवहार बहुत सेवा-भाव का था लेकिन संभवत: चाची को बाबा का उनके घर अधिक रहना पसंद न था । इसका कारण भी था । चाची कभी बड़े परिवार में नहीं रही थीं । इसलिए उन्हें अपने घर में अधिक लोगों का आना या रुकना पसंद नहीं था । चाचा के सामने तो वह कुछ न कह पातीं लेकिन पीछे-पीछे अपने भावों को तल्ख शब्दों में यहाँ-वहाँ बयां करती रहती थीं । इस बात की खबर घर-परिवार से लेकर पूरी रिश्तेदारी को थी लेकिन कोई भी चाचा के व्यवहार के चलते इस बात को जुबाँ पर न लाता था । 

घर-परिवार में सभी लोग उन्हें वहाँ जाने से मना किया करते थे लेकिन चाचा के साथ-साथ हर्षू और शिखर के मोह के कारण वह सभी बातों को दर किनार करते हुए छोटे चाचा के घर जाते भी रहे और जितना संभव हुआ, रुकते भी रहे । बाबा बहुत कुछ अंदर ही अंदर सहन कर जाते थे, जिसकी खबर किसी को नहीं हो पाती थी लेकिन मुझे ऐसा लगता रहा अंत तक कि वह हृदय से सन्यासी बनने का प्रयास कर रहे हैं । भले ही पारिवारिक मोह के चलते वह कभी बन न पाए हों । वास्तव में उनकी सहनशक्ति कमाल की थी । इस संबंध में मेरी उनसे एक बार लम्बी बात भी हुई थी । उन्होंने समझाया था कि ‘जितना अधिक सहन कर सकोगे, उतना ही अधिक तुम्हारे लेखन में भाव की गंभीरता होगी, गहराई होगी ।’ बाबा का यह वाक्य मेरे लेखन का ‘प्राण वाक्य’ बन गया । इस दिन के बाद मैं सब कुछ को अंदर ही अंदर सहन करने लगा । बाद में वह स्वयं ही मेरे लेखन से निकलने लगा था ।

हमारी जिया के अंदर बाबा के प्रति सर्वाधिक क्रोध था । उचित भी था । भरी जवानी से लेकर बुढ़ापे तक बाबा ने जिया की कद्र न की थी । इस कारण जिया के अंदर उनको लेकर एक विशेष प्रकार का विद्वेषी भाव भर गया था जो अंत तक न निकला । घर में सबको बाबा से अत्यधिक लगाव था । जीवन के अंतिम समय में वह लगातार दो वर्ष घर पर ही रहे क्योंकि अब चलने पर उनका ‘स्टेमिना’ साथ नहीं देता था । गाँव में, घर में उनके सभी लड़के-बहुओं ने उनकी खूब सेवा की । छोटे चाचा भी जल्दी-जल्दी समय निकालकर घर आते रहे । बाबा को काजू, बादाम, मूँगफ़ली और भुने चले खूब पसंद थे, गाँव में इन चीजों की व्यवस्था ठीक से न हो पाती लेकिन छोटे चाचा जब भी घर आते, ये सारी चीजें उनके लिए लाते । वैसे बाबा का तो बहाना ही था, यह सब घर-परिवार के लोग ही अधिक खाया करते थे । 

बहुत सारी यादे हैं । क्या लिखूँ और क्या छोड़ूँ ! समय विस्तार से लिखबाएगा तो लिखा जाएगा । आज के दिन पर छोटे चाचा घर आकर उनके द्वारा बनवाए गए मंदिर में उनकी याद में पूजा-पाठ करवाते हैं । सभी उसमें सम्मिलित होते हैं लेकिन अब स्नेह का एक बंधन, जो बाबा के होते सबके बीच बँधा था, न रहा । किसी एक को दोष देना बिलकुल ही उचित न होगा । समय, इतिहास पर स्वयं पैबंद लगबाता है । कुछ पीछे छूटता है तो बहुत कुछ आगे के लिए भी राह बनाता है । हमें अब इस नवीन बन रही राह को ही चलने के लिए स्वच्छ बनाने का प्रयास करना है । सभी प्रसन्न हैं लेकिन एक लेखक की संवेदना से बँधा होने के कारण जब मैं पीछे की ओर बह जाता हूँ तो कष्ट के बहुत गहरे सागर में डूबने-उतराने लगता हूँ । 

आज बाबा को उनकी पाँचवीं पुण्यतिथि पर याद करते हुए मोह के इस कष्ट से उबरने की कामना करता हूँ । आपको सादर श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ ।

08.06.2020

Comments

Popular posts from this blog

आंचलिक उपन्यास की अवधारणा और मैला आंचल

भक्तिकाव्य के विरल कवि ‘नंददास’

पुस्तक : भुवनेश्वर व्यक्तित्व एवं कृतित्व संपादक : राजकुमार शर्मा विधा : संग्रह एवं विमर्श प्रकाशन : उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ प्रथम संस्करण : सन् 1992 मूल्य : रु.90 (हार्ड बाउंड)