रामनाथ की दुलहिन

#जानिए_मेरे_गाँव_जगतियापुर_को : 48
#जिज्जी_नेगु_ता_लिहींय_ऊ_नाइं_दिहउ_ता_लरिके_लिहीं ...

भारतीय संस्कारों / मांगलिक अवसरों में गाँव-गिराँव के कामगारों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है । दूसरे शब्दो में इन्हें शिल्पकार या हमारी भाषा में #पज्जा_पझारू’ कहकर संबोधित किया जाता रहा है । इनमें गाँव के #पुरोहित, #नाई, #धोबी, #लोहार, #बढ़ई, #कुम्हार और #मेहतर का विशेष नाम आता है । बच्चे का #जन्म हो या #जन्मदिन, #मुंडन हो या #कनछेदन; जीवन के हर एक पड़ाव पर इनका सहयोग जीवन को #उत्सवधर्मिता से भरता रहा है । यह सामाजिक जुड़ाव और समाज के सहयोग की एक बेहतरीन मिशाल रही है । इन लोगों का काम जाति आधारित न होकर कर्म आधारित होता था । समाज में सबके लिए कार्य बँटा होता था । उनमें ये लोग खेती-किसानी से इतर कार्य करके समाज का सहयोग किया करते थे तो उसके बदले खेती-किसानी करने वाले लोग सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक रूप से इनको साथ लेकर चलते थे । बाद में बदली हुई राजनैतिक परिस्थितियों ने इनको #जाति’ दंश में जकड़ दिया और इनका तथा समाज का स्वरूप बदलता चला गया । 

हमारे जीवन के विविध संस्कारो में इन ‘पज्जा-पझारुओं’ का बड़ा महत्व रहा है ही है । ये धन-धान्य के लिए ‘काम’ नहीं बल्कि समाज को जोड़ने के लिए #सहयोग’ किया करते थे । बदले में इन्हें मिलने वाला #नेग’ इनकी भावनाओं के सम्मान का प्रतीक हुआ करता था । भारतीय संस्कारो में जहाँ नाई और पुरोहित जन्म से लेकर मृत्यु तक के संस्कारों के सहयोगी होते थे तो शेष पाँच भी जीवन की विविधता को सहजता से भरते रहे हैं । इन सामाजिक कार्यों के लिए बढ़ई यदि लकड़ी का काम कर रहा है लोहार लोहे का । धोबी कपड़े धोने में सहायक रहा है तो कुम्हार मिट्टी के बर्तनों ने अपनी भूमिका निभाता रहा है । मेहतर साफ़-साफ़ाई से लेकर बच्चों के जन्म तक का विशेष सहयोग रहा है । कहने का तात्पर्य यह कि उक्त सभी सम्मिलित रूप से जीवन को जीवंत बनाने में साथ रहे हैं । 

समय ने इन संवेदनाओं की परिभाषा बदल दी और इनका स्वरूप बदलता चला गया । परिवर्तन अवस्यंभावी और आवश्यक भी था । इसे स्वीकारना ही चाहिए ।

ऐसे ही हमारे यहाँ एक दादी हैं, गाँव में जिन्हें लोग ‘#रामचन्दर_कि_अम्मा’ या #रामनाथ_कि_दुल्हिन’ कहकर बुलाते थे । गाँव-गिराँव की रिश्ते से हमारी वह #बड़ी_अम्मा’ रहीं । 

रामनाथ दउवा अब नहीं रहे लेकिन उन्हें जिस कर्मठता से अपने लड़के-बच्चों को मेहनत का पाठ पढ़ाया, गाँव में उसका कोई शानी मेरी नज़र में तो न रहा है और न ही आज है । खेती-किसानी से लेकर जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में इनके लड़कों ने मेहनत के मानदंड स्थापित किए । कुछ लड़को में खेती-किसानी को अपनाया तो कुछ लड़के पढ़-लिखकर आगे निकल रहे हैं, मेरे लिए यह अत्यंत सुखद अहसास है । बड़ी अम्मा आज भी इनकी छाया बनकर मज़बूती से खड़ी हैं । 

मैंने बचपन से ही इनको घर के उत्सवों में पूरे उत्साह के साथ सम्मिलित होता देखा है । हँसते, मुस्कुराते, बापू-चाचाओं से भौजाई वाली चुहल करते और शुभ अवसरों पर ‘नेग’ आदि के लिए मनुहार भरे भाव से लड़ते-झगड़ते हुए भी । कभी रोष में मैंने तो न देखा । 

लड़के-बच्चे छोटे रहे तब तक गाँव के मांगलिक कार्यों में खूब सम्मिलित होती रहीं । धीरे-धीरे समय के बदलाव ने संस्कारों के तौर-तरीके भी बदल दिए । सहज भाव ‘फार्मेलिटी’ से दिखने लगे । आधुनिकता ने इन भावों को, संस्कारों को बाज़ार की वस्तु बना दिया । और बाज़ार में तो केवल खरीद-फरोख्त होती है जुड़ाव नहीं । 

ये पज्जा-पझारू कहे जाने वाले लोग गाँव के जुड़ाव की, उसकी संवेदना की रीढ़ हुआ करते थे; धीरे-धीरे बिखरने लगे । 

आज भी बड़ी अम्मा गाँव में मिल जाती हैं अपनी चिरपरिचित अंदाज में लेकिन वह स्वरूप अब न रहा । वर्तमान सामाजिक स्वरूप में मुझे यह बदलाव उचित भी लगा । 

 02.06.2020

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