ज़मीन

#जल_जंगल_और_ज़मीन_को_बचाने_की_जद्दोजहद : सुनील मानव

#जंगल

 एक समय था जब जंगल की हरीतिमा हमारे घरों तक समाई हुई थी लेकिन आज वह हमसे बहुत दूर होता चला गया । साथ ही दूर होती चली गई जीवन की हरियाली भी । जी हाँ मैं बात कर रहा हूँ उस जंगल की जहाँ हमने प्रकृति के साथ सामंजस्य बिठाकर जीना सीखा था । हमारे गाँव और क्षेत्र के पाँच किलोमीटर के परिक्षेत्र में खूब घना जंगल हुआ करता था जो आज सिमटकर हमसे काफ़ी दूर हो गया है । जो बचा भी है वह भी बाहर से देखने पर ठीक-ठाक सा लेकिन अंदर ही अंदर एकदम खोखला-सा होता चला जा रहा है । इसे खोखला करने का जिम्मेवार वहाँ के अधिकारियों / कर्मचारियों से लेकर आस-पास के हम सब निवासी भी हैं । हम अपने थोड़े से स्वार्थ और कुछ पैसे बचाने के कारण जंगल को खाए जा रहे हैं यह सोचे बगैर कि यह जंगल है तो हम हैं । इसके बिना हमारा कोई वजूद नहीं ।

हम ‘पीलीभीत’ के जिस तराई परिक्षेत्र से आते हैं उसकी बड़ी पहचान ही यह ‘जंगल’ रहा है । आज बेहिसाब से जंगल का कटान हो रहा है । लकड़ी माफ़ियाओं ने उसका रस चूस कर उसे अंदर ही अंदर खोखला कर दिया है । माफ़ियायों का पूरा तंत्र है जो जंगल के दोहन का जिम्मेवार है । ... और मुझे तो कई बार ऐसा लगता है कि इस ‘माफ़िया तंत्र’ से इस जंगल को बचाना अब नामुमकिन-सा होता जा रहा है ।
जब हम कार्तिक पूर्णिमा के मेले के लिए शारदा नदी पर स्नान करने और मेला देखने जाते थे तो मेरे लिए सबसे अधिक आकर्षण का केंद्र हमारे गाँव / क्षेत्र के आस-पास का यह जंगल ही हुआ करता था । जंगल के परिक्षेत्र में रहने के बावजूद भी हम बाघ जैसे जंगली जानवरों को देखने के लिए आतुर रहा करते थे लेकिन शायद ही कभी वह दिन आया हो जब हमें बाघ देखने को मिला हो । वह सब घने जंगल में रहते थे । आज से बीस-पच्चीस साल पहले शायद ही कोई ऐसी घटना सुनता हो कि ‘बाघ किसी गाँव में घुसा है अथवा उसने किसी पालतू जानवर या मनुष्य आदि पर हमला किया है ।’ 

समय बदल गया । जंगल की सीमा छोटी होती चली गई । इन जंगली जानवरों का घर उजड़ गया और यह जंगल से बाहर आने को मज़बूर हो गए । साथ ही प्राणभय से इन्होंने ‘हम पर’ हमले करना भी शुरु कर दिए । आज अखबारो में गाहे-बगाहे इस प्रकार की खबरें खूब देखी जा सकती हैं । 

आज हमारा यह ‘जंगली परिक्षेत्र’ ‘पीलीभीत टाइगर रिजर्व’ के नाम से जाना जाता है । दूर-दूर से लोग इसकी खूबसूरती और यहाँ पाए जाने वाले जानवरों, खासकर ‘बाघों’ को देखने आते हैं । बावजूद इसके एक नकारात्मक भाव भी इन पर्यटकों में पनपने लगा है । 

मुंबई के एक मित्र ने एक दिन हमने ‘पीलीभीत टाइगर रिजर्व’ घूमने की इच्छा प्रकट की, लेकिन फ़िर असमर्थता भी जताने लगे कि ‘वहाँ तो यार बाघ कहीं से भी निकलकर हमला कर देते हैं ।’ इस मित्र की इस बात में मुझे काफ़ी दुख दिया । दुख दिया उन लोगों के प्रति जो हमारे इस जंगल के महत्त्व को समझ नहीं रहे हैं । 

बात पाँच-छह साल पहले की है । मैं गाँव के अपने एक मित्र यशपाल सिंह के साथ किसी काम से जंगल की ओर गया । यशपाल मुझे सरदारों के कई झालों पर ले गए । इन झालों पर, जो कि जंगल की सीमा में ही बने हैं, मैंने जंगली लकड़ी का बेहिसाब दोहन देखा । बंगलों में बेहिसाब जंगली लकड़ी लगी देखी । साथ ही कई झालों में तो मैंने उस समय लकड़ी की चिराई होते हुए भी देखी । मैंने यशपाल से इसके बारे में जानना चाहा और पूछा कि ‘क्या जंगल के अधिकारी यह सब नहीं देखते हैं ।’ यशपाल ने जो बताया वह सब अत्यधिक चौंकाने वाला था । पहले तो मुझे यशपाल की बात पर पूरा यकीन न हुआ लेकिन फ़िर वहीं जानवर चराने वाले एक व्यक्ति से मैंने अनजान बनकर वही प्रश्न पूछा तो वह बोला कि ‘अधिकारियों को सब पता रहता है । वह तो शराब की एक बोतल और एक बकरे के लिए पूरा पेड़ कटवा देते हैं । जंगल में लकड़ी का जितना भी खनन होता है सब जंगल के इन अधिकारियों / कर्मचारियों की देख-रेख में ही होता है । पहले ये जंगल में किसी पेड़ को काटकर गिरा देते हैं । फ़िर धीरे-धीरे उसे उठा ले जाते हैं । साथ ही जंगल में जो पेड़ स्वयं से गिर जाते हैं, उनकी भी काला बाज़ारी खूब होती है । सरकारी हिसाब में तो केवल कागजों की लीपा-पोती ही होती है ।’ 

जंगल के आस-पास का क्षेत्र यदि देखा जाए तो स्थानीय लोगों, जो जंगल की सीमा में अपने घर बनाए हुए हैं, ने समय-असमय जंगल काटकर अपने खेतों का विस्तार किया है । आज अभी यदि इन खेतों की नाम सरकारी स्तर पर और ईमानदारी से की जाए तो आधा जंगल इन खेतों में निकल आएगा, जिसमें एक भी पेड़ नहीं बचा है । 

लोगों ने जंगल की सीमा निर्धारित होने से पहले तो इस जंगल की असीम कटाई की और आज भी जंगलात के अधिकारियों के साथ मिलकर जंगल में ही लकड़ी की कटाई और चिराई होती है । क्षेत्रीय लोग कुछ थोड़े से फ़ायदे के लिए इन अवैध ‘बरंगों’ को ले आकर इस जंगली माफ़िया को अनायास ही बढ़ावा देने पर तुले हुए हैं । 

आप यदि जंगल के आस-पास के गाँवों में देखें तो हर जगह जंगल की बहुमूल्य लकड़ी बेहिसाब देखने को मिल जाएगी, जिसका कोई हिसाब-किताब नहीं है । इन गाँवों के हर घर में ‘जंगल माफ़िया द्वारा पहुँचाई जा रही लकड़ी का ही प्रयोग होता है ।’ 

जंगल के अंदर के कुछ गांवों का तो पूछिए ही नहीं, वहाँ तो ऐसा लगता है कि सब उनकी जागीर है । 

आज हमारे इस ‘टाइगर रिजर्व’ कहे जाने वाले जंगल में ऐसा क्या है जो हो नहीं रहा है । बस सब कुछ अधिकारियों / कर्मचारियों की देख-रेख और सबूत छोड़े बिना ही हो रहा है । सोचता हूँ कि क्या होगा जब यह जंगल सिमट जाएगा और वहाँ के जानवर एक साथ हम पर हमला कर देंगे ! बहुत दुख होता है जंगल को इस तरह तड़पते हुए देखकर । अंदर ही अंदर खोखला होते हुए देखकर । पता नहीं यह सब रुकेगा भी या नहीं ! 

सुनील मानव, जगतपुर
12.05.2020

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