गाँव की बड़ी पूजा

#जानिए_मेरे_गाँव_जगतियापुर_को : 55
#रच्छा_करिअउ_देवी_मइया . . . 

गाँव में हजारों वर्षों की परम्परा थी #बड़ी_पूजा’ की और तभी से सुअर के दो बच्चों की बलि भी होती चली आई थी । पुजारी के सामने ही #मेठ’ दोनों बच्चों को #हसिए’ से काटता चला आ रहा था । सभी प्रसन्न । सभी उत्सव मनाते थे । वही हजारों वर्षों से । ... और हजारों वर्षों बाद मैं इस बलि में #अड़ंगा’ बन कर कूद गया था । 
   
मुझे गाँव की इस पूजा में यदि कोई दिलचस्पी नहीं थी तो उससे कोई गुरेज भी नहीं था । बल्कि मैं इस पूजा को गाँव के लिए कुछ अर्थों में सकारात्मक रूप में ही देखता था । कम से कम यह गाँव का एक ऐसा बड़ा अवसर था जब सभी एक साथ होते थे । एक साथ काम करते थे । काम की तैयारी करते थे । आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक रूप से एक प्लेटफ़ार्म पर खड़े होते थे । पर इस पूजा में #सुअर’ के दो बच्चों की हसिए से धीरे-धीरे काटकर जो नृसंस हत्या होती थी, उसने मुझे इस हत्या के विरुद्ध खड़ा होने के लिए मज़बूर कर दिया । मैं खड़ा हुआ और इस हत्या को रुकवा भी लिया । कुछ विरोध हुआ तो कई नौजवानों ने मेरा प्रत्यक्ष / अप्रत्यक्ष साथ भी दिया ।
 
हजारों सालों से चली आ रही #हत्या’ की इस परंपरा में मैंने सबसे पहले #सद्धू_बुढ्ढ़े’ को ये बच्चे काटते देखा था । जब वह गाँव छोड़कर चले गए तो उनका ही एक रिश्तेदार पूजा में बच्चे काटने लगा । इसका नाम #सुमेर है । 

बात यही कोई पाँच-सात साल पुरानी है । मैं गाँव में ही था । पूजा की तैयारी जोरों पर थी । पूरे गाँव से चन्दा वसूला जा रहा था । धीरे-धीरे वह दिन भी आ गया, जब पूजा होनी थी । देवी मइया की पूजा । ग्राम देवता के थान पर राजा वेन की छोटी बेटी देवी #गूंगा को प्रतीक बनाकर #देवी’ की पूजा । इस पूजा में पुरोहित ‘दुर्गा सप्तसती’ का पाठ करते हुए उसके प्रत्येक श्लोक पर हवन कुंड में आहुतियाँ देता था । साथ ही गाँव के सभी लोगों के प्रतीक रूप में #पाँच_सवर्ण भी इस पूजा में आहुतियाँ दिया करते थे । यह सब सामान्य था लेकिन इस सामान्य से पहले जो होता था, वह उतना सामान्य न था ।
 
पूजा वाले दिन सबसे पहले #भूधर_धोबी’ (गाँव का ही एक व्यक्ति, जिसे कई अर्थो में तांत्रिक भी कहा जाता है) अपने मुँह पर महीन लाल मारकीन (ट्रान्सपरेंट लाल कपड़ा) बाँधकर हमारे गाँव से करीब चार-पाँच किलो मीटर दूर #माती_के_तालाब’ तक लगभग दौड़ते हुए जाता था । वहाँ से वह तालाब का पानी भरकर लाता था, जिससे देवी को स्नान करवाया जाता था । इस व्यक्ति को #देवी_का_घोड़ा’ कहा जाता था । इसके पीछे-पीछे गाँव के तमाम किशोर और नौजवान भी जाया करते थे । पानी लाकर ग्राम देवता को चढ़ाते हुए पुण्य कमाते थे । सुअर का काटे गए एक बच्चे का #धड़’ इस ‘भूधर धोबी’ को मिला करता था और दूसरा काटने वाले को । दोनों बच्चों के सिर वहीं पड़े रहते थे, जिन्हें बाद में कुत्ते नोचते थे।
 
पूरा गाँव ‘पूजा’ और #धार्मिक_भय’ के चलते यह सब ‘टिकुर-टिकुर’ देखा करता था । मैं सुनता तो रहा था पर इसको कभी देखा नहीं था । एक बार अनायास ही यह सब देखने को मिल गया । हृदय घृणा से सराबोर हो गया । अगली पूजा पर इसे रुकवाने के बारे में सोचने लगा । घर-परिवार वालों से इस संबंध में बात की । गाँव के कुछ लोगों से भी बात की । सभी इसको गलत मान रहे थे लेकिन विरोध करने से सभी मना करने लगे । सबके चेहरों पर ‘धार्मिक भय’ स्पष्ट देखा जा सकता था । सबके मुँह पर एक ही बात थी कि ‘किसी व्यक्ति का विरोध तो किया जा सकता है लेकिन ‘ईश्वर’ का विरोध संभव न था ।’ मैं बड़े असमंजस में पड़ गया । सीमा से इस संबंध में बात की तो सीमा मेरे साथ आईं । उन्होंने इस विरोध में मेरा मानसिक रूप से हौशला बढ़ाया और इस हत्या का विरोध करके लिए मुझे उत्साहित किया । 
 
इस समय पीलीभीत में कोई ‘लेडी’ एस.पी. थीं । नाम मुझे याद न रहा । मैं उनसे, उनके आवास पर जाकर मिला और पूरी बात बताते हुए उनसे मदद माँगी । उन्होंने मेरी बात को समझा और मुझे अपना नम्बर देते हुए मदद के लिए आश्वस्त किया । उन्होंने कहा कि आप अपने तरीके से ऐसे इस काम को हैंडिल कीजिए कि स्थितियाँ असामान्य न हों, किसी प्रकार का कोई क्राइम न हो । स्थिति असामान्य होने पर आप सीधे मुझे फ़ोन करें । मैं देख लूंगी ।’ इन महोदया के बातों से मुझे काफ़ी बल मिला । बाद में मुझे इनकी आवश्यकता ही नहीं पड़ी । बातों से ही सब ठीक हो गया ।
 
मैंने गाँव आकर धीरे-धीरे कुछ लोगों के माध्यम से यह बात गाँव में फ़ैलानी आरम्भ कर दी कि ‘इस बार की पूजा में सुअर के बच्चों की बलि नहीं होगी । किसी ने ऐसा करने का प्रयास भी किया तो उससे सख्ती से निपटा जाएगा ।’ 
 
गाँव के तमाम लोग मेरे विरोध में खड़े होने लगे लेकिन कोई खुलकर सामने नहीं आया । मैंने सबसे पहले गाँव के कुछ नौजवानों को बुलाकर अपनी बात उन्हें समझाई । इसमें यशपाल सिंह और छोटे लल्ला सिंह प्रमुख थे । मैंने इन लोगों से जाना कि सुमेर बच्चों को क्यों काटता है । यशपाल ने कहा कि ‘उसे एक पन्नी शराब और मीट के लिए सौ रुपए दे दो तो बिलकुल न काटेगा सुअर के बच्चों को ।’ मैंने सुमेर को बुलवाया और अपनी बात बताई । पहले तो सुमेर ने मुझे धर्म की दुहाई देते हुए ‘कन्वेंस’ करने का प्रयास किया लेकिन जब मैंने उसे ‘कठिन’ शब्दो में लताड़ा तो वह लाइन पर आ गया । मैंने उसकी जेब में दो सौ रुपए डालते हुए कहा कि ‘कोई कुछ भी कहे, कितना भी कहे लेकिन तुम बच्चों को नहीं काटोगे ।’ सुमेर ने वैसा ही किया । 
 
पूजा का सारा काम संपन्न हो चुका था । अब सुअर के बच्चों की बलि देने का समय था । सुमेर अड़ गया । उसने पुरोहित और मुखिया लोगों से कह दिया कि ‘जब तक सुनील नहीं आकर कहेंगे, तब तक वह इन बच्चों को नहीं काटेगा ।’ काफ़ी देर तक यह सब चलने के बाद मुझे बुलवाया गया । जबकि मुझे पल-पल की खबर पहले से ही मिल रही थी । 
 
जब मैं पूजा स्थल पर पहुँचा तो स्थितियाँ असामान्य थीं । सबसे अधिक क्रोध में #पुरोहित’ और #भूधर’ यानि की ‘देवी का घोड़ा’ था । पुरोहित को पुजापे का और घोड़े को मीट का लालच था । उन्हें यह सब अपने हाथ से निकलता दिख रहा था । इन्होंने लोगों की धार्मिक भावनाओं को भड़काना आरम्भ कर दिया था, लेकिन मेरे पहुँचते ही ये चुप गए । मैंने अपनी बात सबके सामने रखी । मैंने कहा कि ‘मुझे गाँव की इस पूजा या किसी भी प्रकार के सामूहिक उत्सव से कोई परहेज नहीं है । बस यह बलि के नाम पर हत्या न होने दूंगा ।’ मैंने तरह-तरह के तर्क देकर सबको समझाने का प्रयास किया । अधिकांश लोगों ने मेरी बात को समझा और मेरी हाँ में हाँ मिलाने लगे । इसी समय पुरोहित और घोड़े ने ऐसी चाल ग्रामीणों के सामने चली कि सब धराशाही हो गए । उसने कहा कि ‘बलि रुकने से देवी नाराज हो सकती हैं । ऐसे में यदि गाँव का कुछ अनिष्ट हुआ तो उसका जिम्मेवार कौन होगा ?’ 
 
पूरा का पूरा माहौल मेरे विपरीत होने लगा । मैंने कई प्रकार से सबको समझाने का प्रयास किया लेकिन कोई ‘रिश्क’ लेने को तैयार न था । अंत में मैंने कड़े शब्दो में कहा कि ‘बलि तो न होने दूंगा, भले ही आप मेरी बलि चढ़ा दीजिए । मैं इस बलि को रुकवाने के लिए कुछ भी करने को तैयार हूँ ।’ मैंने फ़ोन लगाकर झूठ-मूठ एस.पी. से बात करने का अभिनय किया । बात करने के मेरे लहजे ने सबको डरा दिया । पुरोहित और घोड़े की चाल नाकामयाब होने लगी । उसने वातावरण को संभालने के प्रयास से और मुझे फ़ंसाने के लिए एक और चाल चल दी । पुरोहित और घोड़े ने कई बुजुर्ग ग्रामीणों के साथ बातचीत करके मेरी ओर एक ऐसा अस्त्र फ़ेंका, जो उनकी नज़रो में कभी खाली नहीं जा सकता था । 
 
एक बुजुर्ग ने मेरे सामने आकर कहा ‘हम तुम्हारी बातों से पूरी तरह सहमत हैं । बलि नहीं होगी लेकिन आपको गाँव वालों के हित में एक काम करना होगा ?’ मैं प्रश्नाकुल नज़रों से उन्हें देखने लगा । वह आगे बोला ‘आपको हवनकुंड के ऊपर हाथ करके कसम खानी होगी कि इस बलि को रुकवाने के लिए केवल और केवल आप ही जिम्मेवार हैं । इससे उत्पन्न किसी भी प्रकार का अनिष्ट केवल आप ही झेलें । गाँव वालों पर इसका असर न हो ।’ 
 
सदियों के धार्मिक भय ने कुछ पल को मुझे भी भयभीत कर दिया था, लेकिन मैंने तुरंत ही अपने आपको संभाल लिया । सबके चेहरे पर प्रसन्नता का भाव था । सबको यही लग रहा था कि मैं ‘वैसा’ नहीं करूँगा जैसा कि इन लोगों ने कहा है । मैं धार्मिक कर्मकांडों का विरोधी रहा हूँ लेकिन ‘धार्मिक भय’ ने एक पल को मुझे झकझोर दिया था । मेरी आँखों के सामने एक पल को घर-परिवार के लिए अनिष्ट की आशंका घिरने लगी थी । मैंने जल्द ही अपने आपको संभाला और हवनकुंड की ओर चल पड़ा । वहाँ जाकर मैंने हवनकुंड के ऊपर हाथ करते हुए पुरोहित की ओर देखा और कहा कि ‘बताओ क्या कहना है ?’ सभी अचंभित थे । इस बात की उन्हें बिलकुल ही आशंका नहीं थी । मेरे चेहरे पर दृढ़ता मज़बूत होने लगी । चित्त शांत हो गया । कुछ देर आजू-बाजू झांकने के बाद जब पुरोहित आगे न बढ़ा तो किसी नौजवान साथी ने उसे फ़टकारते हुए कहा कि ‘जाओ आगे और उनसे प्रतिज्ञा करवाओ ... अब तुम्हारी क्यों फ़टी जा रही है ... जब वह सब कुछ करने को तैयार हैं ... ।’
 
गाँव का सारा वातावरण मेरी ओर हो गया । सबने पुरोहित को मेरे सामने ठेला । उसके सामने अब और कोई चारा न था । उसने एक प्रतिज्ञा करवाई । मैंने उसे दोहराया । 
 
‘हे देवी मइया यह बलि मैं अपने दम पर रुकवा रहा हूँ । इसमें गाँव वालों का कोई दोष नहीं है । यदि आप नाराज़ हों तो अपनी नाराज़गी केवल मुझसे ही निकालें । गाँव का कोई अनिष्ट न हो । इस परंपरा को रुकवाने के लिए केवल और केवल मैं ही जिम्मेवार हूँ ।’
 
मैंने पुरोहित द्वारा करवाई गई प्रतिज्ञा को दोहराया । पूरा माहौल बदल गया । बच्चों को वापस गंठी दादी के घर वालों को लौटा दिया गया । गाँव वालों ने नवीन परिप्रेक्ष्य में पूजा की । मैं वापस घर आ गया लेकिन दो लोग मुझसे हमेशा के लिए नाराज़ हो गए । पुरोहित जी और देवी का घोड़ा । गाँव वालों ने किसी न किसी रूप में मेरा साथ दिया । संभवत: वह भी इस हत्या को रुकवाना चाहते थे लेकिन धार्मिक भय के चलते कोई विरोध न कर पा रहा था । आज सब अपनी जीत समझ रहे थे । 
 
इस ‘काण्ड’ ने मेरे अंदर जो कुछ अंधविश्वासों के कर्मकाण्ड बचे थे, उन्हें भी उखाड़ फ़ेका था । मैं बहुत हल्का महसूस कर रहा था । मैं ही क्या पूरा गाँव ही हल्का महसूस करने लगा । पूजा आज भी होती है लेकिन बिना हत्या के । 

 अगले वर्ष जब पूजा हुई तो कुछ नौजवानों ने ‘घोड़े’ की ताकत आजमाने के लिए उसके चेहरे पर कुछ मोटा कपड़ा बाँध दिया । उसे कुछ दिखाई पड़ना बंद हो गया । वह माती की राह पर न जा पाया तो गाँव वालों के दिमाँग से यह भ्रम भी दूर हो गया कि ‘घोड़ा किसी देवी की ताकत से नहीं जाता है माती के तालाब में पानी भरने ।’
 
 मैं बाहर था । किसी ने फ़ोन पर पूरा वृत्तांत बताया । मैं प्रसन्न हुआ कि चलो धीरे-धीरे ही सही अंधविश्वासों की छाया छँट तो रही ही है । 

सुनील मानव
16.06.2020

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