भूत

#जानिए_मेरे_गाँव_जगतियापुर_को : 50
#हाइ_दइया_माड्डारो ...

आप मानें या न मानें आज से बीस-पच्चीस साल पहिले तक ‘भूत’ कभी न कभी हर किसी को मिलता ही रहा है । गाँव-गिराँव की लड़कियों-औरतों पर वह आज अभी आ जाता है लेकिन उस समय तो ये ‘भूत’ महराज हमारी रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा हुआ करते थे । बाद में जब गाँव-गाँव आइसर ट्रेक्टर आने लगे तो लोग उसकी आवाज से हँसी-ठिठोली करते हुए कहते ‘जबसे जहु सारो आइसरु आओ... जहने सब भूत भजाइ दे...’

एक बार मुझे भी ‘साक्षात भूत’ मिला । बड़ा मज़ेदार किस्सा है और ऐसे किस्से हम सभी के पास किसी न किसी रूप में हो सकते हैं । 

...तो #भूत_का_किस्सा ।

उस समय मैं यही कोई छठी-सातवीं में पढ़ता रहा हूँगा । घर पर ट्रेक्टर था नहीं उस समय । दो बैल थे – भूरा और सफिदा । भूरा सीधा-साधा था तो सफिदा उसका विलोम । खूब खुराफ़ाती । प्रेमचन्द के हीरा-मोती जैसे । हूबहू । पूरी खेती-किसानी का भार इन पर ही था । बड़े चाचा बाहर नौकरी करते थे और छोटे चाचा बाहर पढ़ते थे । घर पर परमोद चाचा और बापू थे । बाबू वैद्य हैं । इसलिए किसानी का भार परमोद चाचा पर ही था । हाँ बापू मरीज़ों से फ़ुर्सत पाकर खेती-किसानी में मदद करते थे । 

घर में आयुर्वेद का प्रसार था । बाबा मेडीसिन में डॉक्टर थे ही और उनकी विद्या को बापू आगे बढ़ा रहे थे । ... तो घर में आयुर्वेद की तमाम सारी जड़ी-बूटियाँ बनी ही रहती थीं । इन जड़ी-बूटियों में सबसे अधिक सुलभ होती थी ‘भाँग’ । बापू आस-पास से कटवाकर और सुखाकर ‘भाँग’ इकट्ठी कर लिया करते थे । इसमें कई अन्य चीजें मिलाकर बापू और बाबा कुछ आयुर्वेदिक दवाइयां बनाते थे । इसके साथ ही बापू के मित्र और मेरे प्रथम मास्टर ‘मलिखान सिंह’ भाँग के बड़े शौकीन थे । सो गाहे-बगाहे खाने आ जाया करते थे । 

ऐसे ही एक दिन मलिखान मास्टर घर आए । बग्गर, जिसे हम ‘खड़हरा’ कहते थे, से बापू ने कहलाया तो जिया ने उनके लिए भांग सिलबट्टे पर पिसबाकर भिजवा दी । इसके साथ एक गिलास राब का शर्बत हमेशा हुआ करता था । वह भी दही पड़ा हुआ । मलिखान मास्टर ने खाया-पिया और निकल लिए । मैं बहुत दिनों से उस भांग को ललचाई आँखों से निहार रहा था । कई बार चोरी-छिपे खाने का प्रयास भी किया था लेकिन घरवालों की चौकन्नी नज़रों से बच नहीं पाता था । आज मौका मिल गया था । मलिखान मास्टर को बाहर तक छोड़ने के बहाने बापू बगिया की ओर निलल गए थे । भाँग का चूरन और मिश्री वहीं बाहर ही रखी रह गई । मैंने चारो ओर देखा और भांग का एक बड़ा चम्मच चूरन हथेली पर रखा । उसमें मिश्री मिलाई और ‘फांक’ गया । भांग का तो कोई स्वाद न था लेकिन मिश्री का मज़ा था । इससे भी अधिक उस वस्तु को जानने की अभिलाषा । बाद में कभी यह स्वाद न लिया । खैर ! 

हाँ तो जल्दी-जल्दी से मुँह पोंछा और खाली ग्लास और प्लेट लेकर घर जा पहुँचा । जिया ने शर्बत पीने को दे दिया । भांग खाने के बाद शर्बत पीना बड़ा खतरनाक होता है । यह बात मुझे पता नहीं थी और जिया को यह नहीं पता था कि मैंने भांग खाई है । इसी समय परमोद चाचा घर आए और खेत से पुआल भरलाने के लिए खेत पर साथ चलने को कहा । मैं सहर्ष तैयार हो गया । डल्लप तैयार ही था । हम लोग खेत पर आ गए, जहाँ बापू पहले से ही पुआल इकट्ठा कर रहे थे । 

मैं भांग खाने की घटना को छुपाना चाह रहा था । करीब एक घंटा हो भी चुका था । मन में अजीब-अजीब से हलचलें उठ रही थीं । बापू और चाचा पुआल के गट्ठर बना-बनाकर डल्लप तक ला रहे थे और मैं डल्लप पर खड़ा उस पुआल को डल्लप पर ‘सेट’ कर रहा था । शाम हो चली थी । धुँधलका गहराता ही जा रहा था । इतना कि दूर खेत के किनारे पर पुआल के गट्ठर बना रहे बापू-चाचा के चेहरे अस्पष्ट हो चुके थे । 
 
मेरे अंदर तरह-तरह के भाव पल्लवित होने लगे । कभी मन में कुछ आता तो कभी कुछ । कभी रोने का मन करता तो कभी हँसने का । बावजूद इसके मैं पूरे प्रयत्न से अपने भावों को छिपाने का प्रयास कर रहा था । अंधेरा कुछ और गहरा गया । अचानक मुझे ऐसा लगा कि दूर कोई अजीब-सी डरावनी आकृति मेरी ओर आ रही हो । एकदम काली-काली । सर पर बड़ा-सा पत्थर उठाए हुए । मैं अंदर तक डर गया । पशीना आने लगा । अचानक मन में एक भाव तेज हुआ और शब्द निकला ‘भूत’ । हाँ भूत ही तो था जो धीरे-धीरे मेरी ओर आ रहा था । मैं पूरी तरह उसके ‘तेज़’ में बिंधता जा रहा था । 

वह जैसे-जैसे मेरी ओर आता जा रहा था, मेरी सहनशक्ति जवाब देती जा रही थी । अंदर के सारी ताकत हवा हो चुकी थी । गाँव-गिराँव में ‘पोर’ आदि पर के भूत की सारी कहानियाँ यकायक सजीव हो उठीं । ‘भगत’ के यहाँ बज रहे ‘शंकर का बिहाउ’ के सारे भूत-प्रेत हमारी आँखों के सामने कूदने लगे । एक भूत जिसकी आकृति लगातार बड़ी होती जा रही थी, मेरे पास आ चुका था । मैं तेज़ी से चीखने का प्रयास करने लगा लेकिन नहीं । मेरी घिग्गी बंध गई थी । मुँह से आवाज़ ही नहीं निकल रही थी । पास आ चुके ‘भूत’ ने अपने हाथो में जो बड़ा-सा पत्थर उठा रखा था जोर लगाकर मेरे ऊपर फ़ेंक दिया । बहुत देर से गले में फ़ंसी आवाज़ जोर से निकल आई । मैं तेजी से चीखा और वहीं डल्लप पर गिर गया । 

इसके बाद उस दिन जो हुआ, मुझे कुछ नहीं पता चला । अगले दिन पूरी हकीकत सामने आई । मैं करीब बारह-तेरह घंटे लगातार सोता रहा । जिया के अनुसार पहले तो सभी घबराए लेकिन फ़िर मेरे भांग खाने की बात पता चल गई । सारा माज़रा सामने आ गया । 

हुआ यह कि भांग के नशे मे मैं खेत के किनारों पर लगी ‘पतेल’ की उरई (उरइया) को भूत समझ बैठा था । बापू-चाचा जो पुआल का गट्ठर ला रहे थे, उसे अपने ऊपर भूत का आक्रमण समझ लिया था । यह सब बस भांग का ही ‘परताप’ था । 

भविष्य में दोबारा कभी भांग खाने की हिम्मत न हुई । यही मेरा भूत दर्शन था । बाद में बच्चों को पढ़ाते हुए उनके प्रश्नों के उत्तर स्वरूप यह कहाने सुनाकर कई बार उनको बताता रहा हूँ कि जो ‘भूत’ है वह ‘वर्तमान’ नहीं हो सकता । हम बस किसी भ्रम के चलते ‘उरइया को भूत समझ लेते हैं ।’

05.06.2020

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