मटिकढ़ा
#जानिए मेरे गाँव जगतियापुर को : 51
#हुअन_गियारह_मूड़_गड़े_हइं...
‘मटिकढ़ा बाले बरमबाबा’ से जुड़ी मेरी यादों पर बात करने से पहले इसके अर्थ को
समझ लेना कुछ आवश्यक है ।
‘मटि’ यानि की ‘माटी’
‘कढ़ा’ यानि की ‘काढ़ना’ अर्थात् ‘निकालना’
बोलें तो वह स्थान जहाँ से मिट्टी निकाली जाती है । मेरे गाँव की सीमा का वह
तालाब जहाँ से ग्रामीण अपने घरों को लीपने के लिए ‘पड़ोर’ निकाला करते थे ।
‘पड़ोर’ मिट्टी अत्यधिक चिकनी होती है और अमूमन तालाबों में ही पाई जाती है ।
तालाबों में इसलिए क्योंकि बरसात आदि का जो पानी तालाबों में आता है, उसमें पाए
जाने वाले मिट्टी के कुछ बड़े कण पानी के बहाव में बह जाते हैं जबकि अत्यधिक
छोटे-छोटे जो कण होते हैं वह तालाब की तलहटी में बैठ जाते हैं । ग्रामीण इन्हीं
एकत्रित कणों को ‘पड़ोर’ कहते हैं और तालाब में जब पानी कम होता है तभी उसे निकालकर
अपने-अपने घरो में इकट्ठा कर लेते हैं । बाद में ‘चौकों’ यानि कि रसोईघरों की
रोज-रोज की पुताई और कच्ची दीवारों की पुताई तथा आँगन आदि की लिपाई के लिए इसका
प्रयोग किया जाता है । आँगन की लिपाई के समय इसमें गोबर भी मिलाया जाता है । यह
मिट्टी एक प्रकार के ‘एण्टीबायोटिक’ का भी काम करती है । सामान्य रूप से मनुष्य को
हानि पहुँचाने वाले जीवाणु-विषाणु इस मिट्टी की लिपाई-पुताई के कारण स्वतंत्र रूप
से हमें हानि नहीं पहुँचा पाते हैं । घरों के पक्के होने जाने के चलते इसका प्रयोग
आज लगभग समाप्त प्राय ही है । गाँव-गिराँव में ‘चूल्हे’ और ‘बरोसी’ आज इस मिट्टी
से बनी दिख जाती हैं ।
... तो इस ‘मटिकढ़ा तालाब’ के कारण ही इस पूरे क्षेत्र को ‘मटिकढ़ा’ के नाम से
संबोधित किया जाता रहा है । पास ही में एक ‘पीपल का पूज्य पेड़’ है जिसे ‘मटिकढ़ा
बाले बरमबाबा’ नाम से आस-पास के क्षेत्र में संबोधित किया जाता रहा है । मेरी कुछ
यादें इन्हें ‘मटिकढ़ा वाले’ बरमबाबा महराज से जुड़ी हैं ।
मैं बहुत छोटा था । उस समय एक महात्मा जी इन बरमबाबा महराज के पास रहा करते थे
। रहे होंगे यही कोई साल-दो साल । लोग कहते थे कि वह ‘औघड़’ थे और उन्होंने ग्यारह
‘नरमुंड’ क्षेत्र में मरने के बाद दफ़नाए गए मनुष्यों की कब्रों से निकालकर बरमबाबा
महराज के चबूतरे के नीचे गड़ाए थे । इनके ऊपर बैठकर यह अपनी तांत्रिक साधना करते थे
। बाबा जी के बारे में यह बातें कम से कम हमारे गाँव में तो खूब ही फ़ैली थीं । वह
समय सामाजिक रूप से ‘भूत-प्रेतों’ को अत्यधिक मान्यता देता था । इसलिए गाँव-गिराँव
में किसी महिला या लड़की पर कोई भूत-प्रेत-चुड़ैल आती थी तो यही बाबा जी उसे अपने बस
में किया करते थे ।
मेरी जिया का इन पर बड़ा विश्वास था । मेरे एक पारिवारिक बाबा थे रघुनंदन
प्रसाद । उनका एक लड़का था रमाकांत । हमारे चचेरे चाचा । ये मानसिक रूप से सामान्य
लोगों से कुछ प्रतिशत कम थे । कभी यह कुएं में कूद जाते तो कभी घर में उत्पात
मचाते थी । घर-परिवार वालों को लगा कि इन पर किसी ‘भूत-प्रेत’ की छाया है । इनके
उपचार के लिए ये बाबा जी कई बार घर आया करते थे । इसी दौरान इन रमाकांत चाचा के
ऊपर की वह ‘प्रेतात्मा’ छाया मेरे घर में भी प्रवेश कर गई । मेरी एक चाची के शरीर
पर उसने आक्रमण किया । वह तरह-तरह के डरावने अभिनय करने लगीं । घर-परिवार में एक
अजीब-सा भय छाने लगा । हम बच्चों के लिए तो वह बहुत ही डरावना हुआ करता था । हर
वक्त भय के वातावरण में हम जीने लगे थे । इसी समय जिया ने उन बरमबाबा महराज के
सेवक बाबा जी को बुलवाकर चाची का इलाज कराया । कारण कुछ भी रहा हो । स्थितियाँ कुछ
भी हों लेकिन चाची की तबियत ठीक हो गई । ... और बाबा जी पर घर-परिवार से लेकर
गाँव-गिराँव के लोगों की आस्था अत्यधिक मज़बूत हो गई । अब वह और भी अधिक पुजने लगे
थे ।
गाँव में वह केवल मेरे घर का ही खाना खाते थे । या फ़िर कुछ क्षत्रिय परिवारों
के घर का । अमूमन उनका खाना वहीं ‘मटिकढ़ा’ पर ही बना करता था । एक अजीब वातावरण था
वह जिसमें हम जी रहे थे । घोर अंधविश्वास और कर्मकांडों से लबरेज ।
मैं इस स्थान से भयभीत रहने लगा था । मैंने केवल सुना था । मैंने क्या पूरे
इलाके ने केवल सुना ही था कि इन बरमबाबा की जड़ के घेरे में नरमुंड गड़े हैं, देखा
किसी ने कभी न था । न ही किसी के पास किसी प्रकार का कोई प्रमाण ही था । सिवाय
दंतकथाओं के । बावजूद इसके मुझे यह स्थान डरावना लगने लगा । उस दौर में घर के
लोगों के साथ मैं भले ही वहाँ गया और खड़ा हुआ हूँ लेकिन मैं कभी यहाँ अकेला नहीं
गया । आज भी जब कभी उस रास्ते से निकलता हूँ तो नरमुंडों वाली बात स्मृत हो आती है
और एक अजीब-सी भय की सिहरन हृदय में दौड़ जाती है ।
एक बार इन बाबा जी ने ‘चौमास’ (बरसात के चार महीने) के एक महीने में संभवत:
आषाढ़ का महीना था, वीडियो चलबाया था । रामायण के सभी एपीसोड । पन्द्र-बीस दिन का
वह आयोजन हम वीडियो प्रेमियों के लिए एक बड़ा उत्सव था । शाम होते न होते सब वहाँ
जुटने लगते थे । हाँ ! गाँव से थोड़ा दूर होने के कारण घर के सभी लोग वहाँ नहीं जा
पाते थे । रामायण समाप्त होने के बाद यहाँ बड़ा भंडार भी हुआ था, जिसमें मेरे गाँव
से लेकर आनगाँव तक के न जाने कितने लोग इकट्ठे हुए थे । बद्री दद्दा इस पूरे आयोजन
के प्रबन्धक थे क्योंकि वह इन बाबा जी के विश्वसनीय शिष्य थे ।
थोड़े दिन रहने के बाद बाबा जी ‘मटिकढ़ा’ छोड़कर भीरा चले गए । वहाँ इन्होंने बड़ा
आश्रम बनाया । मंदिर में बनवाया । शिष्य मंडली की स्थापना की । बद्री दद्दा इनके
साथ ही रहे । बद्री के शब्दो में बाबा जी के बड़े ठाठ थे । एक से एक बड़े सेठ-साहूकार
इनकी सेवा में लगे रहते थे । खूब मौज़ थी । कई सालों तक इनका राज्य बना रहा लेकिन
बाद में पता चला कि किसी मंदिर से एक अष्टधातु की मूर्ति चोरी हो गई है और उस चोरी
में इन बाबा जी का भी हाथ था । सच्चाई कुछ भी रही हो लेकिन वहाँ से इनका पतन आरम्भ
हो गया और धीरे-धीरे वह लोगों की यादो में समा गए । कुछ सकारात्मक और कुछ
नकारात्मक रूप में ।
बाबा जी के जाने के बाद ‘मटिकढ़ा बाले बरमबाबा’ से लेकर पूरे ‘मटिकढ़ा’ परिक्षेत्र
में एक विशेष प्रकार की वीरानी छा गई । सारा रस समाप्त हो गया । पूरा वातावरण वीरान
हो गया ।
आज ‘मटिकढ़ा तालाब’ में जहाँ क्षेत्रीय लोग मछली पाल लेते हैं तो ‘मटिकढ़ा बाले
बरमबाबा’ एकांत में मुस्कुराते रहते हैं । किसी ने वहाँ नल लगवा दिया है । पीपल के
साथ कई और पेड़ होने के कारण यहाँ खूब छाया बनी रहती है । इस कारण आस-पास के खेतों
में काम करने वाले लोग यहाँ अपनी थकान मिटाने के लिए आ बैठते हैं । कभी-कभार कोई साफ़-सफ़ाई
भी कर देता है । गाँव-गिराँव में कोई मन्नत स्वरूप यहाँ ‘सत्यनारायण की कथा’ भी करवा
देता है । इसलिए साफ़-सफ़ाई बनी रहती है ।
विश्वास हो या अंधविश्वास, कांड हों या कर्मकांड, सकारात्मकता हो या नकारात्मकता;
यह सब बौद्धिक विमर्श के विषय हो सकते हैं लेकिन एक समय यहाँ जो लोगों को बाँधे रखने
की उर्जा थी, वह अब नहीं रही है । एक ऐसी उर्जा जो गाँव-गिराँव के थके-हारे लोगो
में जीवनी शक्ति का संचार किया करती थी । अब समाप्त हो गई है ।
06.06.2020
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