#पर्यावरण_की_चिंता_का_बालसाहित्य

ग्रामीण संवेदना और पर्यावरण एक-दूसरे के पूरक हैं । इसको लेकर साहित्य में खूब चिंता व्यक्त की गई है । बालसाहित्य में भी यह चिंता खूब दिखाई देती है ।

बालसाहित्यकार बंधु डॉ. (मो.) #अरशद_खान एवं डॉ. (मो.) #साजिद_खान की यह कविताएँ इस क्षेत्र में एक नवीन चित्र हमारे समक्ष प्रस्तुत करती हैं । आफ भी पढ़िए इन कविताओं और इनकी कविताई को ............. सुनील मानव ।

#सूना_सूना_सा_लगता_है_अब_नानी_का_गांव : डॉ.मो.अरशद खान ॥

आज भूमण्डलीकरण के दौर में गांव अपनी मूल संवेदना से अनायास ही कटते जा रहे हैं। गावों की प्रकृति के साथ ही वहाँ का मेल-मिलाप भी अब बदला-बदला लगने लगा है। वर्तमान की विषाक्त राजनीतिपूर्ण वातावरण ने गाँवों तक से उनकी उस संवेदना को उखाड़ फेंका है, जिससे गाँव के सब छोटे-बड़े एक डोर में बंधे रहते थे।
  बाल साहित्यकार ने ग्रामीण संवेदना को बड़ी गहराई तक महसूस किया है। पिछले दस सालों से जब आज के गांव को देखता हूं तो बस यही दिखता है........
 
दूर-दूर तक हरा-भरा जो
फैला था मैदान।
लालाजी ने बनवा ली हैं,
वहां कई दूकान।
बनकर ठूंठ खड़ा है पीपल,
जो देता था छांव।
माली बाबा की फुलबारी
सूख गई अब हाय!
 
रामदीन का लड़का अब तो
वहां चराता गाय।
सूख गई वह नदिया प्यारी,
जिसमे चलती नाव।

हमें सुनाता था जो  जंगल
पुरवइया में गान,
चुभता है अब आंखों में वह,
बनकर रेगिस्तान।

कोयल की अब कुहुक नहीं बस,
सुन पड़ती है कांव।

गाँव का चुनाव हो गया, जिसमें पूरा गाँव कई दलों में विभाजित हो गया। जो रामचरन अभी तक मंदिर पर मनाये जाने वाले शिवरात्रि आदि उत्सवों में दिल खोलकर नाचता-गाता था, अब उसके लिए वह मंदिर सवर्ण का मंदिर हो गया है। जो पुरोहित बाबा गाँव के हर घर में सत्त्यनारायण की कथा सुनाया करते थे, उनके लिए गाँव के तमाम घरों से ‘दलित सी’ बदबू आने लगी है। वलीउल्ला मनिहार, छुटन्ने खाँ दूधिया और बगिया वाले रहीम चच्चा सफेद कुरता-धोती की अपनी पोशाक में दोनों समुदायों को एक धागे में बाँधे रहते थे, आज गोल टोपी लगाने पर मज़बूर हो गए हैं। चुनाव के बाद ताकत आ जाने पर लाला जी ने गाँव में बच्चों के खेलने के स्थान खड़े बरगद को कटवाकर कई दूकाने बनवा ली हैं। हरा-भरा मैदान गया सो गया ही, दुआरे पर खड़ा पीपल का पेड़, जिसके तले शिव जी के सानिध्य में रानी, मीरा, खलोली, अकरम और फरीद के साथ जो खेल खेल जाते थे, सब समाप्त हो गए हैं। रानी और मीरा का ब्याह हो गया है। खलोली और फरीद बाहर चले गए हैं और अकरम दूसरी पार्टी से संबंधित है। पीपल बाबा ने ऐसा कभी नहीं सोचा था कि उनके नीचे का यह सौंदर्य कभी समाप्त भी होगा, लेकिन क्या करें! बदली हुई हवा ने सब कुछ समाप्त कर दिया। जड़ के घेरे में बैठे शिव जी कहीं और चले गए, सिर की शोभा बगुलों का भी वहाँ मन नहीं लगा। अब पीपल बाबा क्या करें। आत्मरस निचुड़ गया। सूख तो जायेगे ही। 
माली दादा की फुलवारी मुरझा गई, रामदीन का चारागाह सूख गया और तो और सदा नाव को अपने जल प्रवाह से हिचकोले देने वाली नदी भी सूख गई। पुरवइया की तानों पर संगीत छेड़ने वाला जंगल आधुनिक बाज़ार की बलि चढ़ गया। वहाँ एक बड़ी फैक्टरी लग गई और जो स्थान हमेशा महकता रहता था, वहाँ आज धूप की प्रेतात्माओं का परिभ्रमण आरम्भ हो गया है। कोयल की मीठी कूक अब ‘कड़वी काँव’ में बदल गई है।

आश्चर्य होता है कि एक बालकविता कही जाने वाली रचना अपने हृदय में इतनी गहन संवेदनाओं को समाये हुए हैं। क्या किसी ने कवि के मासूम से हृदय को टटोलने का प्रयास किया है? पल-पल मरने के बाद कहीं संवेदनाओं को शब्दों का जामा पहना पाया होगा। अद्भुत !

#क्या_गमले_में_उग_सकता_है_आम ? : डॉ.मो.साजिद खान ॥

आज जनसंख्या के बढ़ते हुए दबाव के चलते जल, जंगल और ज़मीन सब के सब सिकुड़ते जा रहे हैं। आज ईंटों के दिखावटी जंगल गढ़े जा रहे हैं। प्रकृति का विराट स्वरूप हमसे पृथक होता जा रहा है। नानी के गाँव का विशाल बरगद, जो बच्चों की छुट्टियों का गवाह और खेल का साथी था, निगाहों से ओझल हो गया है। तरह-तरह के करतब दिखाने वाले बन्दर मामा की उछल-कूद के लिए पेड़ ही कम होते जा रहे हैं। बच्चों की छुट्टियों को मादकता से भरने वाले आम, जामुन, शहतूत आदि के पेड़ कट चुके हैं। हरा-भरा सा वातावरण धूल उड़ाता-सा प्रतीत होने लगा है। बच्चों के बचपन की सहचरी प्रकृति आज ऐसा लगता है जैसे कि छोटे-छोटे घरों के गमले में समाती जा रही हो। डॉ.मो.साजिद खान की कविता ‘क्या गमले में उग सकता है आम?’ कई प्रश्न हमारे सामने छोड़ जाती है।

मम्मी! क्या मेरे गमले में
उग सकता है आम?
जिस पर बंदर मामा करते 
दिन भर खेल तमाम?

बच्चा अपनी माँ से बड़े ही मासूम से सवाल करता है – 

जो नानी के गाँव लगा था
बरगद प्यारा – प्यारा,
और द्वार पर नीम, ताप में 
देता बड़ा सहारा!

दाढ़ी वाले बरगद बाबा
पीपल मंदिर वाला,
वह इमली का बड़ा पेड़, वह
महुआ टीले वाला!
वैसा ही क्या लॉन हमारा
बन सकता है धाम?

तोतों की टें-टें, कोयल की
मीठी-मीठी बोली,
वे बगुलों की बड़ी कतारें
मोरों की वह टोली!

हरे-भरे वन बाग़ लहकते
जामुन बहुत दुलारा,
वही चाहिए, वही चाहिए
माँ! सब प्यारा प्यारा!
नहीं चाहिए लिली, कैक्टस
और उगा यह पास!

बदलते हुए वातावरण ने सबकुछ बदल दिया है। दिखावे की संस्कृति ने हमारे मनोमस्तिष्क पर इस कदर अपनी जड़ें जमा ली हैं कि हम उससे आगे बढ़कर कुछ सोच ही नहीं पा रहे हैं। बच्चे के सामने से दादी-नानी की कहानियाँ दूर हो गई हैं और उनके साथ ही दूर हो गया है वह सब भी जो उनके सानिध्य में बच्चा महसूस करता था। गाँव का वह बरगद, जिसके तले गुड्डे-गुड़ियों का खेल होता था, संवेदना का वह मिलन जो बच्चों को ताउम्र बाँधे रखता था। जिस स्थान पर आस-पड़ोस के तमाम बच्चे एकत्र होते थे, अब नहीं रहा। हमारी संवेदनाओं के प्रतीक द्वारे का नीम, मानवीय संवेदनाओं से भरा हुआ दाढ़ी वाले बरगद बाबा, मंदिर वाले पीपल देवता, इमली का बड़ा पेड़, टीले वाला महुआ सब कुछ आज की मर रही मार्मिकता की भेंट चढ़ गया है। 

बच्चा इन संवेदनाओं के तारों को अपने लॉन में बैठा हुआ अपनी कल्पनारूपी धागे में पिरो रहा है। वह सोचता है कि काश! कि यह सब उसके गमले में समा पाते। काश! कि यह सब उसके आस-पास झूम उठते। 
कविता में आए कैक्टस और लिली आदि बाजारवादी सोच के वह प्रतीक हैं जो हमारे दिमाग में गहराई से उतरते जा रहे हैं। यह वह हथियार हैं, जिन्होंने तोतों का गला घोट दिया है। कोयलों के गले की नाल को उखाड़ फेंका है । सहज प्रकृति को उजाड़ दिया है ।

सुनील मानव

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