टेंढ़े बाबा


#जानिए मेरे गाँव जगतियापुर को : 52
#सिब_भोलानाथ_देबन_मइं_महदेबा...

हमारे बाबा के चचेरे भाई थे पं. रघुनंदन प्रसाद अवस्थी, जिन्हें कुछ झुककर चलने के कारण घर-परि
वार से लेकर गाँव-गिराँव के उनके हमउम्र या उनके प्रति कुछ विद्वैष का भाव रखने वाले कुछेक लोग ‘टेढ़ें’ कहा करते थे । बावजूद इसके मेरे लिए वह निश्छल रूप से स्नेह देने वाले बाबा ही थे । बाबा के साथ मेरे परिवार का पारिवारिक द्वेष चलते रहने के बावजूद भी मेरे प्रति उनका प्रेम कभी कम न हुआ था । उनके स्वरूप का बिंब आज मेरे मस्तिष्क में भले ही अस्पष्ट हो गया हो लेकिन बाबा से जुड़ी कुछेक स्मृतियाँ उन्हें आज भी हमारे हृदय में बसाए हुए हैं । ‘धमार गीतों’ के संग्रह के दौरान जब-जब ‘सिब भोलानाथ, देबन मइं महादेबा’ गीत सामने आया तो हरिपाल बाबा पूरे उत्साह से बताने लगे थे कि ‘यह गीत तुम्हारे बाबा रघुनंदन प्रसाद जी के अतिरिक्त कोई और पूरे गाँव में नहीं गा पाता था, क्योंकि यह गीत धमार का सबसे बड़ा गीत था । उनके मरने के साथ ही इस गीत की गबंत भी समाप्त हो गई ।’

बाबा शिव भक्त थे । उनकी पूजा-आराधना से मैंने यह देखा ही था । इससे जुड़ी एक स्मृति कभी भुलाई नहीं जा सकेगी ।

उस समय परिवार का एक संयुक्त घर हुआ करता था और घर के ही सामने बेला और हुड़हल की बेल से आच्छादित एक शिवाला था । वैसे तो यह शिवाला आज भी है लेकिन अब उस पर किसी एक का अधिकार हो गया है । गाँव-गिराँव का कोई भी वहाँ नहीं जाता है । बाबा नहाने के बाद इस शिवाले पर काफ़ी देर तक पूजा किया करते थे । अंत में जब वह शिवलिंग पर जल चढ़ाते थे तो बकरे की सा स्वर अपने मुँह से निकाला करते थे । हम बच्चों के लिए वह बिंब बड़ा सुखदाई और जिज्ञासा भरा रहा हमेशा । एक दिन मैंने जिया से पूछा कि बाबा ऐसे क्यों करते हैं । जिया का व्यवहार उनके प्रति अधिक सहज न था । इसलिए वह कुछ व्यंग्य और खीझ के भाव से बताने लगीं ‘बलबलात हइं संकर जी का खुस कन्नकि ले ।’ ... और जिया उनके प्रति विद्वेश के वशीभूत होने के कारण अधिक न बतातीं ।

एक दिन मैंने अपने बाबा से ही इसका राज पूछ लिया था । उन्होंने बताया कि ‘जब राजा दक्ष प्रजापति के यज्ञ में पार्वती सती हो गईं तब मारे क्रोध के शिव ने हाहाकार मचा दिया और दक्ष का सिर काट लिया । बाद में विष्णु आदि की प्रार्थना पर शिव ने दक्ष का सिर वापस लगाने की सहमति दी । साथ ही शर्त दी कि जैसे ही वह संकेत करें, वैसे ही तुरंत सिर लगा देना धड़ से । सब तैयार हो गए । शिव ने संकेत दिया तो लगाने वाले ने हड़बड़ी में पास ही बलि दिए गए बकरे का सिर पड़ा था, वह लगा दिया । अब दक्ष के बकरे का सिर लग गया था और वह ‘मिमियाने’ लगा । दक्ष को बकरे के सिर से ‘मिमियाते’ देख शिव बड़े प्रसन्न हुए । बस उसी दिन से जो भी भक्त शिवलिंग पर जल अर्पित करते समय ‘मिमियाता’ है तो शिव बड़े खुश होते हैं । ‘टेढ़े’ भी शिव को प्रसन्न करने के लिए यह उपाय अपनाते हैं ।’ बाबा पूरा किस्सा सुना गए और हम एकाग्रचित्त होकर सुनते गए । बाद में जब भी बाबा शिवलिंग पर जल चढ़ाते हुए मिमियाते, हमें वह किस्सा याद हो आता था ।

बाबा के एक लड़का रमाकांत और एक लड़की कुसुमा थीं । जिन्हें हम चाचा और बुआ कहा करते थे । रमाकांत चाचा की मानसिक स्थिति कुछ अच्छी नहीं थी । कुसुमा बुआ का ब्याह मेरी यादों के विकसित होने से काफ़ी पहले ही हो गया था । रमाकांत चाचा ला ब्याह हमारे बचपन में हुआ । जो चाची ब्याहकर आईं, घर-परिवार के साथ उनका व्यवहार जो भी रहा हो, मेरे प्रति उनका व्यवहार सदा ही स्नेह भरा रहा और आज भी है । एक बहुत अच्छी घटना थी, जो मैं संभवत: कभी भुला न सकूंगा ।

मुझे बचपन से ही दूध, दही या उससे बनी चीजें बड़ी भाती थीं । खासकर दुंधाड़ी का मोटी साढ़ी पड़ा हुआ हल्का लल्छौंहा दूध । हमारे घर उस समय कोई गाय-भैंस न थी । या रही भी होगी तो इतना दूध न होता होगा जिससे मेरी उक्त इच्छाएँ पूरी हो सकें । इन बाबा के यहाँ एक गाय लगा करती थी । दूध भी अच्छा देती थी । बाबा रोज उसके लिए चुन-चुनकर दूब लाते थे । पहले ही कह चुका हूँ कि मेरे घर से बाबा के घर का कुछ मन-मुटाव हमेशा चलता रहता था तो सीधे तौर पर मुझे उनके घर जाने की इजाजत न थी । एक दिन मैं बाहर ही खेल रहा था । अकेला था । आस-पास कोई नहीं । चाची अपने बरोठे में थीं । उन्होंने मुझे इशारे से चुपचाप बुलाया और घर के अंदर ले गईं । उन्होंने पहले से ही एक बड़े गिलास में दुंधाड़ी का ललछौंहा दूध, जिस पर मोटी साढ़ी पड़ी थी, निकालकर रखा था, मुझे पीने को दिया । साथ ही हिदायत भी दी कि मैं यह बात अपने घर किसी को न बताऊँ । मैंने वैसा ही किया । इसके बाद तो यह सिलसिला आगे भी खूब चलता रहा, जब तक घर के लोग जान नहीं गए । ... और हमारा यह स्नेह संबंध चाची के साथ आज भी बना हुआ है भले ही अब सालों से बात और मुलाकात नहीं हो पाती है ।

बाबा को लेकर कुछ बातें कभी भुलाई नहीं जा सकेंगी । छोटे पर मुझे गर्म राब खाने का बड़ा शौक था । वह भी गाँव में लगे कोल्हू पर बन रही ताजी राब । बाबा मुझे ‘कन्धैयां’ बैठाकर ‘कुलुहा’ पर ले जाते थे । गन्ने की एक ‘डुड़िया’ बनाकर पत्ते पर ‘राब’ रखबा देते थे । फ़िर हम दोनों लोग एक साथ बैठकर उस गन्ने की ‘डुड़िया’ से ‘राब’ चाटा करते । यह स्वाद और संग जीवन में दोबारा न मिला । कई बार हम कुलुहा पर अकेले ही चले जाते थे और किसी की भी राब बन रही हो, माँगकर खाते थे । इस बात को लेकर कई बार डाँट-फटकार के साथ-साथ धौल-धुप्पा भी मेरे साथ हो जाया करता था । घरवालों द्वारा किए गए इस धौल-धुप्पे के पीछे उनकी सवर्ण मानसिकाता हुआ करती थी । हमें सिखाया जाता कि ‘तुमइं सरम नाइं आउति चूहे-चमन्न्सि राब मांगिकि खाति भे...’ । बावजूद हम बहुत दिनों तक न बदले ।

होली का दिन था । हम लोगों को खुले आम गाँव के लड़के-बच्चों के साथ खुलकर खेलने की इजाजत न थी । हम घर में और आस-पास ही होली खेल लेते थे । पूरी तरह तो याद नहीं लेकिन मुझे उस दिन होली पर कोई रंगने को न मिला था । उल्टे मुझे रंग दिया गया था । मैं घर से कुछ आगे आकर बगिया के पास अपना रंग से भरा हुआ कमंडल लेकर रुआंसा-सा जा बैठा । उधर से बाबा गाय के लिए घास का एक गट्ठर लिए आ गए । मुहे वहाँ ऐसे बैठे देख वहाँ इस तरह बैठने का कारण पूछा । मैंने बता दिया कि मुझे कोई रंगने को नहीं मिला है । बाबा ठट्ठा मारकर हँसे । घास का गट्ठर नीचे रख दिया । सामने बैठ गए और बोले ‘लेउ हमइं रंगि लेउ तुम ...’ और हमने अपने कमंडल और स्नेह के रंग से उन्हें इतना रंगा कि वह रंग एक-दूसरे के शरीर आउर आत्मा से कभी न उतरा ।

मेरे एक ‘पारिवारिक’ हुआ करते थे, जिनकी एक आदत से मुझे कभी भी पसंद नहीं रही । वह अपनी और अपने बच्चों को छोड़ दुनिया के सभी लोगों की मज़ाक बनाने में खूब रस लेते थे । लेते क्या थे, आज भी उनकी इस आदत में कोई कमी नहीं आई है । इसकी स्थिति सदा से ही धृतराष्ट्र वाली रही । अपने बच्चों की आदतें और व्यवहार देखने के लिए सदा ये अंधे रहे और दूसरों के लिए दिव्य दृष्टि वाले । खैर ! यह ‘पारिवारिक’ जी इन बाबा को लेकर तीन बातें हमेशा खूब रस लेकर सुनाया करते थे जिन्हें खड़ी बोली में प्रस्तुत करने का प्रयास है ।

“एक : ‘टेंढ़े दउवा को अपनी हिम्मत पर बड़ा घमंड था । एक बार किसी तांत्रिक से भिड़ गए । उससे शर्त लगा ली कि तुममें दम हो तो मुझे साक्षात भूत-प्रेत दिखाओ । तांत्रिक ने खूब समझाया लेकिन दउवा को समझ न आया । तांत्रिक कहकर चला गया कि ‘जल्द ही तुम्हें प्रेत देखने को मिलेगा ।’ बात आई गई हो गई । एक दिन दउवा घास काटकर आ रहे थे ‘मइनियां के पास आए ही थे कि उन्हें सामने से कोई दिखा । बड़ा भयानक और डरावना-सा । उसे देखकर वह इतना भयभीत हो गए कि कई दिनों तक बुदबुदाते रहे और बुखार में तपते रहे । इनकी सारी हेकड़ी निकल गई ।’
दो : दउवा को शराब भी पीने का शौका रहा है । कई बार तो वह गाँव की बड़ी पूजा से भी चुरा लाते थे ।
तीन : बुढ़ापे में उनकी पाचन क्रिया अत्यधिक खराब हो गई थी । भुरहरे को अक्सर वह अपना लंगोटा धोते दिखते थे ।”

ये कहानियां सुनाते समय यह ‘पारिवारिक’ जी बाबा का खूब उपहास उड़ाते । सच मानिए कि मैं ऐसे जल उठता था कि बराबर का होता तो न जाने क्या कर बैठता । एक-आध बार प्रतिकार भी कि लेकिन उसका इन पर कोई असर हुआ । मैंने अपने यादों में जब तक बाबा को देखा, कभी शराब के नशे में नहीं देखा था । हाँ बुढ़ापे में उनकी तबियत खराब रहने लगी थी तो कभी-कभार कपड़े अवश्य खराब हो जाया करते थे । इसमें कोई उपहास वाली बात न थी लेकिन इन ‘पारिवारिक’ महोदय के लिए यह सब मज़ा देने वाला था ।

बाबा की मौत हमारे परिवार की संभवत: पहली मौत थी जो मेरी यादों के दायरे में हुई थी । पहली बार मैं किसी के अंतिम संस्कार में गया था । पहली बार मैंने उसको जलते हुए देखा था, जिसके साथ मैं पल रहा था, बढ़ रहा था, बड़ा हो रहा था । किसी ने रमाकांत चाचा से कहा कि ‘टिकटी का बाँस निकालकर इनका सर फ़ोड़ दो नहीं तो यह भूत बनकर आयेंगे ।’ उफ़ ! कितना घृणास्पद और भयावह था यह दृश्य । वर्णनातीत ।

बाबा की मौत के बाद रमाकांत चाचा और चाची गाँव छोड़कर अपने एक रिश्तेदार के घर रहने चले गए । उन्हें हमारे गाँव और हमारे घर पर विश्वास न रहा था । सही भी था । घर उसी समय बेच गए और अभी पिछले साल बचा-खुचा खेत भी बेच गए । बावजूद इसके क्या उनकी संवेदनाएँ, उनकी यादें या उनसे जुड़ी मेरी स्मृतियाँ समाप्त हो पायेंगी कभी । कभी नहीं । सब भूल जाएं लेकिन मेरे हृदय में बाबा और उनका पूरा परिवार हमेशा बना रहेगा । कुसुमा बुआ से बात और मुलाकात आज भी कभी-कभार हो जाती है । पारिवारिक उत्सवों में भले ही उन्हें न बुलाया जाता हो लेकिन मैं उन्हें अपने द्वारा आयोजित उत्सवों में हमेशा बुलाता हूँ और वह प्रसन्नता से आती भी हैं । जब आती हैं तो न जाने कितनी यादें सिनेमा की रील की भाँति दोहरा जाती हैं ।

सच है । संवेदनाओं के प्रवाह को बाँधा नहीं जा सकता है । बाबा के साथ जुड़ी न जाने कितनी यादें हैं, जो मेरे अंतस्चल में दबी हुई हैं । हमेशा जीवित रहेंगी । घर, परिवार, संबंध टूट रहे हैं लेकिन मेरी यह संवेदनाएँ जीवित हैं और सदा रहेंगी ।

‘सिब भोलानाथ, देबन मइं महदेबा’ जैसा प्रबन्धात्मक गीत गाने वाला यह नायक हमारे गाँव के खुशबू में सदा मुस्कुराता रहेगा ।
  07.06.2020

Comments

Popular posts from this blog

आंचलिक उपन्यास की अवधारणा और मैला आंचल

भक्तिकाव्य के विरल कवि ‘नंददास’

पुस्तक : भुवनेश्वर व्यक्तित्व एवं कृतित्व संपादक : राजकुमार शर्मा विधा : संग्रह एवं विमर्श प्रकाशन : उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ प्रथम संस्करण : सन् 1992 मूल्य : रु.90 (हार्ड बाउंड)