'एक था मोहन' को पढते हुए ...



वर्तमान में गाँधी को महशूस करना बड़ा जोखिम भरा काम है । बावजूद इसके मुझे वर्ष 2017 की कुछ बेहतरीन किताबों में ‘एक था मोहन’ लगी । प्रासंगिक और मनोवैज्ञानिक किताब, क्योंकि यह किताब उस जड़ को मज़बूती प्रदान करती है जिस पर विचारों का एक बड़ा दरख्त खड़ा होना है । 
आज समाज में हर ओर अलगाव और घृणा अपने चरम की ओर तेजी से बढ़ रही है लेकिन यदि अलगाव और घृणा का विरोध अगर इन्हीं हथियारों से करेंगे तो यह चुनौतियाँ और भी गंभीर रूप धारण करेंगी । इनका विरोध इनकी विपरीत हथियारों से किया जा सकता है । लोगों के अंदर जो नफरत, घृणा, द्वेष है वह प्रेम, सत्य, अहिंसा के द्वारा ही मिट सकता है । नफरत की आग को नफरत से नहीं बुझाया जा सकता । वो बुझेगी सत्य, प्रेम, सद्भाव से । एक दूसरे के पास आने से । दूर होने से अलगाव बढ़ेगा । जब दोनों पास आएंगे तब मानवता का आधार सबल होगा । आशांत मन को शांति मिलेगी । सत्य को शक्ति और हिंसा को मिलेगी हार, अधर्म को शिकस्त और फिरकापरस्ती को करारा झटका । इस पूरे भाव को ‘एक था मोहन’ पुस्तक इतनी सहजता से कह जाती है कि किशोरवय, जिसके लिए यह पुस्तक लिखी गई है, स्वयं से तर्क करने को मज़बूर हो जाता है ।
हमारे समाज में राजनीति के तहत बड़ी ही साजिश के साथ गाँधी के बरक्श भगतसिंह को खड़ा कर दिया गया । इसका प्रभाग हमें स्कूल-कॉलेजों के किशोरों में स्पष्ट दिखाई देता है । वास्तव में गाँधी के बरक्श भगतसिंह को रखना एक अलगाववादी मुहिम है । किसी एक को गाली देकर दूसरी की भावना को स्वर नहीं दिया जा सकता है । इससे समाज टूटता ही है । अब समस्या यह है कि इस भावना को किशोरों तक, जो पुस्तकों से लगातार अलग होते जा रहे हैं, कैसे पहुँचाया जाए ? गाँधी पर लिखा गया साहित्य भी काफी गंभीर है और भगतसिंह के विचारों को भी किशोर ठीक से समझ नहीं पा रहे हैं । इस दिशा में गाँधी को किशोरों के मन तक सही अर्थों में पहुँचाने का एक सार्थक प्रयास है ‘एक था मोहन’ ।
आई.टी.एम. यूनीर्वसिटी ग्वालियर द्वारा गाँधी की जन्म शताब्दी पर प्रकाशित यह किताब किशोर वय के पाठकों से सीधे संवाद करती है । एक पुस्तक की सबसे बड़ी विशेषता भी यही होती है कि वह अपने पाठक से एक संवाद कायम कर सके और यह कार्य ‘एक था मोहन’ ने बड़ी ही सहजता से किया है । अपने इस संवाद में पुस्तक में ‘सहज जिज्ञासा’ को इस प्रकार से आधार बनाया गया है कि आप एक बार पुस्तक उठाते हैं तो एक के बाद एक पृष्ठ पलटते ही चले जाते हैं । इस बात की पुष्टि करते हैं इस पुस्तक के छोटे-छोटे किंतु सहज / गंभीर अध्याय जो दो से तीन मिनट में पढ़ जाते हैं । बच्चों के बीच पुस्तक का वाचन करते हुए मैंने अनुभव किया कि बच्चों को जब तक ‘बोरियत’ आने का समय होता है तब तक अध्याय समाप्त हो जाता है और अगले अध्याय के प्रति जिज्ञासा का भाव बढ़ा जाता है । पुस्तक के अध्याय पढ़ने के बाद कई बच्चों को ‘आगे क्या हुआ सर ?’ प्रश्न करना इस पुस्तक की शैली की एक और बड़ी विशेषता कही जा सकती है ।
कई बार ऐसा होता है कि किसी बड़ी व्यक्तित्व पर कोई पुस्तक पढ़ते हुए अथवा उसके बारे में सुनते हुए जो ‘स्लो लर्नर’ बच्चे होते हैं अपने आप को उनसे अलग पाते हैं । उनके मन में चलता है कि यह तो इतना बड़ा व्यक्ति था और एक मैं हूँ जो इसके समक्षा कुछ भी नहीं । जरूर उसमें कोई न कोई ऐसी ताकत होगी जिसके बल पल पर वह इतना बड़ा बन सका । इस पुस्तक के पहले अध्याय के पहले ही वाक्यों में इस बात को नकारकर बच्चों से मित्रता का भाव स्थापित किया गया है ।
पुस्तक का आरम्भ कुछ यूँ होता है – “मोहन एक साहसी बालक नहीं था । बहुत से दूसरे बच्चों की तरह ही उसे भूत-प्रेत का, डाकुओं का, साँप का डर लगा रहता था । लाज इतनी आती कि स्कूल में किसी से बात करते सकुचाता था ।”
पुस्तक के इस प्रकार के आरंभ से ‘स्लो लर्नर’ बच्चा उत्साहित होगा और गाँधी जैसे महान व्यक्त्तिव को अपने बराबर रखकर विचार करेगा । पुस्तक के पहले अध्याय ‘डरपोक आजाद नहीं होते’ के दो पृष्ठों में गाँधी के पूरे जीवन संघर्ष को जिज्ञासा से भर कर ऐसे प्रस्तुत कर दिया गया है कि सामान्य से सामान्य पाठक भी अगले अध्याय के प्रति उत्साहित हुए बिना रह न सकेगा । कक्षा में बच्चों के साथ इस पुस्तक का वाचन करते हुए मैंने व्यक्तिगत स्तर पर ऐसा महसूस किया है । इसके साथ ही अध्यायों को सजीव बनाते चित्र बच्चे को पुस्तक के और भी करीब ले आते हैं ।
आज विद्यार्थी धीरे-धीरे पुस्तकों से पृथक से होते जा रहे हैं । कम्प्यूटर उनकी शिक्षा का माध्यम और गुरु का स्थान लेता जा रहा है । बाल-कथाओं की पुस्तकों से बच्चे करीब-करीब अलग हो गये हैं । संयुक्त परिवार टूटकर एकल बनते जा रहे हैं । रिस्ते संकुचित हो रहे हैं । माँ-बाप ‘नौकरी’ करने के चक्कर में बच्चे से दूर हो रहे हैं । बच्चों का लालन-पालन ‘आयायों’ द्वारा किया जा रहा है । दादी-नानी की कहानियाँ तो अब बीते जमाने की बात हो गई हैं । ऐसे में बच्चे पूरी तरह से मीडिया, टी.वी. और कम्प्यूटर पर निर्भर होते जा रहे हैं । कम्प्यूटर ही आज बच्चों का साथी और गुरु बनता जा रहा है । ‘हैरी पॉर्टर’ की अतिकाल्पनिक दुनिया और ‘स्टंटमैंन’ के सपनों से होड़ लगाती बच्चों की कल्पना अपनी जमीन से पृथक होती जा रही है । आधुनिक सुख-सुविधाओं से युक्त ‘मॉर्डन’ विद्यालयों में बच्चों को शिक्षा के स्थान पर बड़ा-से-बड़ा ‘नौकर’ बनाने की होड़ लगी है । जब कि वास्तविकता तो यह है कि आज के यह ‘मॉर्डन गुरू!’ बच्चों के आदर्श न होकर ‘नौकर’ में बदलते जा रहे हैं । आज के इस विकराल समय में भी ‘पंचतंत्र’ आदि की परम्परा से गुरु-शिष्य के संबंध को मज़बूती प्रदान की जा सकती है ।
पंचतंत्र से लेकर दादी-नानी की कथाओं की सहजता बच्चों के लिए आज भी प्रासंगिक है । आज भी बच्चों को कथा-कहानी सुनाने की शैली में बहुत कुछ सिखाय़ा जा सकता है । ‘एक था मोहन’ पुस्तक का कथा शैली में लिखा जाना उसकी एक बड़ी ताकत बना है । पुस्तक को पढ़ते हुए लगता ही नहीं है कि किसी महान व्यक्ति की जीवनगाथा पढ़ रहे हैं । ऐसा लगता है कि कोई बड़ा छोटी-छोटी कहानियाँ सुना रहा है । एक सामान्य व्यक्ति की कहानियाँ । पूरी पुस्तक पढ़ने के बाद महसूस होता है कि ‘अरे हम तो ‘मोहन’ के बारे में बहुत कुछ जान गए हैं ।’
पहला अध्याय पढ़ने के बाद मन में एक विचार आता है कि गाँधी तो बापू कहलाते हैं । सब उनका सम्मान करते हैं लेकिन वह डरते थे ! यह बात कुछ हजम नहीं हुई ! ऐसा तो नहीं कि किताब में झूठ लिख दिया गया हो ? यह भावना अपले अध्याय को पढ़ने की जिज्ञासा ऐसे भरती है कि पूछो मत !
पुस्तक के कुल 88 पृष्ठों में चालीस अध्याय हैं जो गाँधी के जीवन की घटनाओं को कहानी के रूप में प्रस्तुत करते हैं । साथ ही अपने शीर्षकों के माध्यम से पाठकों के अंदर जिज्ञासा व प्रोत्साहन का भाव बड़ी ही सहजता से भरते चले जाते हैं ।
आधुनिक युग के सबसे प्रसिद्ध वैज्ञानिक अलबर्ट आइंस्टाइन द्वारा कहा गया यह वाक्य – “आने वाली नस्लें शायद मुश्किल से ही विश्वास करेंगी कि हाड़-मांस से बना हुआ कोई (गांधी जी जैसा) व्यक्ति भी धरती पर चलता-फिरता था ।” – पूरी पुस्तक को मनोवैज्ञानिक रूप से जिज्ञासा से भर जाता है ।
‘डरपोक आजाद नहीं रहते’, ‘सत्य निडर बनाता है’, ‘महात्मा गांधी जहाँ हों वहाँ’, ‘एक मध्य दर्जे का छात्र’, ‘पति, पत्नी और आजादी की लड़ाई’ आदि अध्याय महज अध्याय न होकर गाँधी के जीवन की तमाम सामान्य से सामान्य घटनाओं को पाठक से समक्ष एक कहानी बनाकर प्रस्तुत करते हैं । वास्तव में कहानी के माध्यम से आज भी अन्य माध्यमों की अपेक्षा अधिक सीखा जा सकता है, जो इस पुस्तक में एक कारगर माध्यम सिद्ध हुआ है ।
वास्तव में ‘एक था मोहन’ पुस्तक गाँधी के जीवन की तमाम घटनाओं के माध्यम से उनके साधारण से असाधारण बनने की कहानी प्रस्तुत करती है और प्रेरणा देती है कि हर सामान्य व्यक्ति के अंदर एक असामान्य मानव का निवास होता है ।
सुनील मानव
फोन : 9307015177

Comments

Popular posts from this blog

आंचलिक उपन्यास की अवधारणा और मैला आंचल

भक्तिकाव्य के विरल कवि ‘नंददास’

पुस्तक : भुवनेश्वर व्यक्तित्व एवं कृतित्व संपादक : राजकुमार शर्मा विधा : संग्रह एवं विमर्श प्रकाशन : उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ प्रथम संस्करण : सन् 1992 मूल्य : रु.90 (हार्ड बाउंड)