पटकथा लेखन की यांत्रिकी

‘पटकथा’ यानि कि ऐसी कथा जो ‘पट’ अर्थात् पर्दे पर दिखाई जाए । यह कथा ही सिनेमा की जान होती है । जब हम किसी कहानी को पढ़ते हैं तो हमारे दिमाग में बिंबात्मकता प्रकट होती है । पटकथा लेखक इसी बिंबात्मकता को पर्दे पर दिखाने के अनुसार लिखता है ।
आज फिल्म के विभिन्न क्षेत्रों की भाँति युवक पटकथा लेखन के क्षेत्र में भी हाथ आजमा रहे हैं । इस क्षेत्र में पटकथा लेखन की यांत्रिकी सीखने की सबसे बड़ी दिक्कत आती है । अधिकांश युवाओं के पास अपने आस-पास से लेकर अन्य प्रकार की कोई न कोई कहानी होती है । जिसे लेकर वह निर्देशकों ? फिल्मकारों के पीछे-पीछे दौड़ते रहते हैं । कई बार सबसे बड़ी दिक्कत यह आती है कि निर्देशक अथवा फिल्मकार के समक्ष अपनी कथा को सही से प्रस्तुत न कर पाने के कारण अच्छी-अच्छी कहानियों का भी कोई लेनदार नहीं होता है । फिल्मकार के पास इतना समय नहीं होता है कि बड़ी-बड़ी कहानियाँ पढ़ता फिरे । उसे चाहिए कम समय में एक अच्छा ‘थॉट’ । इसके लिए लेखक के पास पटकथा की यात्रिकता का ज्ञान होना अत्यंत आवश्यक है ।
यूँ तो कई सारे ऐसे संस्थान भी हैं जो पटकथा लेखन सिखाते हैं, लेकिन सबका वहाँ जा पाना भी संभव नहीं होता है । हिन्दी लिखने-बोलने वालों के सामने हिन्दी में यांत्रिकता सीखने की भी एक बड़ी समस्या होती है ।
ऐसे में हम आपको दो पुस्तकें पढ़ने की सलाह देते हैं । यह पुस्तकें हिंदी इतना सहज रूप से लिखी गई हैं कि आप बिना किसी संस्थान जाये स्वयं से ही पटकथा लेखन की यांत्रिकता को सीख सकते हैं । आप पटकथा को गहराई से समझ सकते हैं ।
यह पुस्तकें हैं – ‘पटकथा लेखन : एक परिचय’ तथा ‘हिन्दी में पटकथा लेखन’ ।

पुस्तक : पटकथा लेखन : एक परिचय
लेखक : मनोहर श्याम जोशी
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
संस्करण : 2000
मूल्य : रु. 75 (पेपरबैक)

हिंदी के प्रख्यात लेखक मनोहर श्याम जोशी लम्बे समय तक पटकथा लेखन से जुड़े रहे हैं । यह पुस्तक आपके लम्बे अनुभव की ही परिणति है । इसमें लेखक ने सिनेमा के सामान्य परिचय से आरम्भ कर पटकथा लेखन की गहराई तक की समझ को पाठकों के सामने, खासकर हिन्दी पाठकों के सामने प्रस्तुत किया है । यह पुस्तक सरस और सामान्य भाषा में लिखी गई है । इसको पढ़ते हुए कहीं ऐसा नहीं लगता कि आप कोई यांत्रिकी की पुस्तक पढ़ रहे हैं । इसको पढ़ना किसी कहानी की रोचकता से कम नहीं है ।
‘देखने सुनने की चीज है सिनेमा’, ‘पटकथा क्या बला है ?’, ‘कथा हो तो पटकथा बने’, ‘अथ आइडिया माहात्म्य’, ‘कथासार और उसका विस्तार’, ‘पटकथा का कंकाल : स्टेप आउटलाइन’, ‘मिथक-पुराण उर्फ चरित्रों की खान’, ‘अपने पात्रों के बारे में सबकुछ जानिए’, ‘चरित्र कर्म कथानक : मुर्गी अंडा आमलेट’, ‘पटकथा का छन्द : द्वन्द्व-प्रतिद्वन्द्व’, ‘भूमिका ही नहीं तो चरित्र क्या करेगा’, ‘पटकथा की शरीर रचना’, ‘पहला अंक : सेट-अप’, ‘दूसरा अंक : टकराहट’, ‘तीसरा अंक : चरमोत्कर्ष और समाधान’, ‘दश्य लेखन’, ‘दृश्य का उद्देश्य : कथा-निरूपण और चरित्र-चित्रण’, ‘सीक्वेंस : एक माला बने दॄश्यों की’, ‘सोप, ऑपेरा हॉर्स ऑपेरा वगैरहा-वगैरहा’, ‘डॉक्यूमेंटरी डॉक्यूड्रामा और डबिंग’, ‘कला और फार्मूला उर्फ अच्छी फिल्में बुरी फिल्में’, ‘सिनेमा की भाषा-शॉट बोलेंगे’ और अंतिम ‘लेखक बनाम दिग्दर्शक’ जैसे शीर्षक जब आप शुरू से आरम्भ तक पढ़ जाते हैं तो आपके पास भी एक यांत्रिकतापूर्ण पटकथा होती है ।

पुस्तक : हिन्दी में पटकथा लेखन
लेखक : ज़ाकिर अली रजनीश
प्रकाशक : उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ
संस्करण : 2009
मूल्य : रु. 150 (पेपरबैक)

हिन्दी में, हिन्दी पाठकों को विशेष रूप से ध्यान में रखकर लिखी गई यह इस विषय पर दूसरी महत्त्वपूर्ण पुस्तक है । गहन लेखन से जुड़े ज़ाकिर अली जी गंभीर अध्येता हैं और यह पुस्तक उनके शोधपूर्ण अध्ययन की अनोखी उपज है ।
ऐसा नहीं कहा जा सकता कि यह पुस्तक मनोहर जी की पुस्तक को छोड़कर लिखी गई हो लेकिन इसका विषय-वस्तु और आधुनिकतापूर्ण नयापन इसकी मौलिकता की गबाही देता है । इस पुस्तक में ज़ाकिर अली जी ने जिस शोध और लगन से कार्य किया है, पुस्तक की विषय-वस्तु उसकी गंभीरता को अक्षरश: प्रमाणित करती है ।
हिन्दी के गंभीर लेखकों के मध्य सिनेमा को उचित स्थान संभवत: कभी नहीं मिला लेकिन धीरे-धीरे ही सही सिनेमा ने अपना स्थान निश्चित किया । इसके बावजूद भी सिनेमा में अच्छी समझ के अच्छे लेखकों की कमी हमेशा बनी रही है और आज भी बनी हुई है । इसका एक कारण सिनेमा की तकनीक की सही पकड़ न होना भी है । ज़ाकिर अली जी लिखते हैं ‘साहित्यकार लेखन में जहाँ सिर्फ अपने मन की उड़ान को शब्दों के रूप में उकेरता चलता है, वहीं फिल्म में उसके फॉर्मेट  और बाज़ार के गणित को दॄष्टिगत रखते हुए कलम चलाना पड़ता है ।’
वास्तव में फिल्म के गणित को समझना और उसी के आधार पर पटकथा का फॉर्मेट बना सबसे महत्त्वपूर्ण बात होती है । एक साहित्यकार और पटकथाकार में सबसे बड़ी भिन्नता इसी रूप में देखी जा सकती है । इस पुस्तक को पढ़ने के बाद आप सिनेमा के इस गणित को भी समझ सकेंगे ।
पुस्तक को मुख्य रूप से तीन खण्डों में बाँटा गया है । पहला ‘भाषा और सिनेमा’ की समझ का अंतर्संबंध, दूसरा ‘पटकथा का छंद’ सीखने की ललक और अभ्यास तथा तीसरा ‘परिशिष्ट’ जिसमें सिनेमा जगत की शब्दावलि को सहजता से स्पष्ट किया गया है ।
द्वितीय खण्ड, जिसे मैंने पटकथा का अभ्यास कार्य कहा है में कुल सात अध्याय हैं, जिनमें एक-एक कर पतकथा का क, ख, ग सिखाया गया है । ठीक वैसे ही जैसे किसी संस्थान के क्लाश रूम में कोई अध्यापक बोर्ड पर पढ़ता / सिखाता है । यह इस पुस्तक की एक बड़ी विशेषता इंगित की जा सकती है ।
‘पतकथा का क, ख, ग’, ‘कहानी का क्रमिक विकास’, ‘पात्रों के अन्तर्संबन्ध’, ‘पटकथा का प्रारूप’, ‘संवाद की गरिमा’, ‘रूपान्तरण का मर्म’ तथा ‘वृत्त चित्र (डॉक्यूमेंट्री)’ ऐसे अध्याय हैं, जिनसे गुजरते हुए आप अपने को एक कुशल पटकथाकार समझने लगते हैं ।

वास्तव में उक्त दोनों पुस्तकें ‘पटकथा लेखन’ सीखने के क्षेत्र में मील का पत्थर साबित हो सकती हैं । यूँ तो मैंने यह दोनों पुस्तके पढ़ने से पहले ही एक पटकथा लिखी थी, लेकिन इनको पढ़ने के बाद लिखी गईं बीसियों ‘पटकथाएँ’ अपनी यांत्रिकता में पहली वाली से कहीं आगे की मैं स्वयं महसूसता हूँ ।
मुंबई से मध्यप्रदेश की यात्रा के दौरान जिस पतकथा का ‘वनलाइनर’ मैंने लिखा था, इन पुस्तकों को पढ़ने के बाद उसकी पटकथा के डेबलेपमेंट में एक अभूतपूर्व बदलाव दिखा । ‘भीष्मा’, ‘लल्लन भैया’, ‘गंठी भंगिनियां’, ‘ब्रह्मराक्षस’, ‘राम-राम बिस्मिल’, ‘धरौना’, ‘रा-मा-य-ण’ से लेकर ‘नकटोरा’ तक की तकरीबन बीस-बाइस पटकथाओं की यांत्रिकी डेबलेप करने में मुझे इन पुस्तकों से बड़ी मदद मिली ।
सुनील मानव, 21.05.2018

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