पुस्तक : साहित्य का धूमकेतु भुवनेश्वर संपादक : चन्द्रमोहन दिनेश विधा : आलोचना प्रकाशन : संदर्श प्रकाशन, शाहजहाँपुर प्रथम संस्करण : सन् 1991 मूल्य : रु.100 (हार्ड बाउंड)

यूँ तो भुवनेश्वर ‘हँस’ के माध्यम से चर्चा में आए थे । उनकी कहानी ‘भेडिये’ ने साहित्य में उनकी पहचान धूमकेतु के समान कराई थी । तब हँस के संपादक प्रेमचन्द हुआ करते थे । इसके बाद राजेंद्र यादव ने हँस की कमान सँभाली और भुवनेश्वर को एक बार फिर स्वर मिला ।
प्रस्तुत पुस्तक ‘साहित्य का धूमकेतु भुवनेश्वर’ ने ‘हँस’ के स्वर को और भी गंभीरता से आगे बढ़ाया । संदर्श प्रकाशन, शाहजहाँपुर की इस पहल को चन्द्रमोहन दिनेश जैसे गंभीर संपादक का साथ मिला, जिसने भुवनेश्वर के भिन्न-भिन्न पहलुओं को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया । यह पहली ऐसी पुस्तक थी जिसने भुवनेश्वर को जन-जन तक पहुँचाया । उनकी दबी पड़ी हुई पहचान को प्रकाशित किया ।
इस पुस्तक में संपादक ने भुवनेश्वर के विविध पहलुओं को उनके समकालीनों के साथ-साथ उनको समझने वालों के माध्यम से प्रस्तुत किया । एक छोटे-से अभावग्रस्त शहर शाहजहाँपुर के अत्यंत सामान्य परिवार के भुवनेश्वर ने हिन्दी ही नहीं बल्कि विश्व साहित्य की मुख्य धारा में अपना नाम सुनिश्चित किया । प्रस्तुत पुस्तक की विषय-वस्तु ने इस बात को गहराई तक सिद्ध करने का प्रयास किया है ।
संस्मरण, आलोचना, प्रसंग, भुवनेश्वर की कलम से, बकौल भुवनेश्वर तथा परिशिष्ट आदि कॉलमों में संपादक ने जो सामग्री भुवनेश्वर के रचनाकर्म पर प्रस्तुत की है वह भुवनेश्वर के इर्द-गिर्द की तमाम पर्तों को पाठकों के समक्ष लाने में बड़ी सहायक बन पड़ी है ।
शमशेर बहादुर सिंह (भुवनेश्वर, कविता), डॉ. रामविलास शर्मा (न्यूरॉटिक भुवनेश्वर तथा भुवनेश्वर प्रसाद), कृष्णनारायण कक्कड़ (भुवनेश्वर स्मृति), रसूल अहमद अबोध (भुवनेश्वर प्रसाद : कुछ स्मृतियाँ), डॉ. विजय शुक्ल (दो अनोखे : निराला और भुवनेश्वर), निरंकार देव सेवक (एक हवा का झोंका), पी.डी.टण्डन (भुवनेश्वर को भुवनेश्वर से बचा न सके), धर्मपाल गुप्त शलभ (भुवनेश्वर : पैंतीस साल पहले), सुरेन्द्र मोहन मिश्र (भुवनेश्वर प्रसाद : आलोचक के रूप में), कवीन्द्र शेखर उप्रेती (तेरे ख्याल से गाफिल न मैं रहा), सुधीर विद्यार्थी (भुवनेश्वर : यादें और यादें) तथा डॉ. मूलचन्द गौतम (भुवनेश्वर और निराला : एक पुराने संदर्भ में) के संस्मरण भुवनेश्वर के व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं को हमारे सामने लाते हैं । यह संस्मरण लेखक किसी न किसी रूप में भुवनेश्वर से घुले-मिले रहे । इसलिए उनके यह संस्मरण भुवनेश्वर को समझने के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण सिद्ध होते हैं ।
डॉ. विपिन कुमार अग्रवाल, डॉ. इन्द्रनाथ मदान, भारत भारद्वाज तथा हृदयेश के क्रमश: भुवनेश्वर और नाटक, आधुनिकता और नाटक, भुवनेश्वर की कहानियाँ तथा भुवनेश्वर : आने वाले कल का लेखक आदि आलोचना आलेख भुवनेश्वर के साहित्य की सम्यक समीक्षा प्रस्तुत करते हैं । इन आलोचना आलेखों में चारों लेखकों ने भुवनेश्वर को गहराई तक कुरेदा है ।
प्रसंग वश संपादक ने ‘भुवनेश्वर प्रसाद की तारीफ : निराला का उत्तर और वाचस्पति पाठक तथा बलभद्र मिश्र की संपुष्टियाँ’ के अंतर्गत भुवनेश्वर के एक अलग प्रकार के व्यक्तित्व को प्रकाश में लाने का प्रयास किया गया है ।
उक्त के अतिरिक्त पुस्तक में संकलित ‘स्ट्राइक’ एकांकी, ‘भेडिये’ कहानी, कविताएँ, ‘शब्बीर हसन जोश’ तथा ‘सूर्यकांत त्रिपाठी निराला’ शब्दचित्र पुस्तक को एक विशेष लगाव से आपूरित कर देते हैं । इसके साथ ही ‘बकौल भुवनेश्वर’ के रूप में ‘कला का अर्थ’ तथा ‘मंथन’  जैसे विचारपरक आलेख भुवनेश्वर की वैचारिक समझ को पाठकों के सामने गहराई तक स्पष्ट करती है ।
परिशिष्ट के अंतर्गत ‘नयी कहानी की पहली कृति भेडिये’ (डॉ. शुकदेव सिंह), ‘भेडिये : मौलिकता के कुछ प्रश्न’ (राजेन्द्र यादव), ‘मानवीय नियति की क्रूरता का बोध’ (बंगड़ बैरागी), ‘भेडिये : एक मामूली कहानी’ (राजेंद्र कुमार मिश्र), ‘बहुत अच्छी कहानी होने के बावजूद भेड़िये पहली नई कहानी नहीं’ (अनुराधा), ‘नयी कहानी की पहली कृति : एक असाधारण भूल’ (जगदीश चन्द्र), ‘पहली कहानी का आग्रह अनुचित’ (गिरीश भरदया), ‘भेडिये : पाश्वीकरण के विरुद्ध एक निडर वक्तव्य’ (अर्चना वर्मा), ‘भेड़िये : नई कहानी की पहली नागरिकता का सवाल’ (डॉ. चन्द्रेश्वर कर्ण), ‘कहानी के लुप्त प्रतिमान ‘नई कहानीवाद’ और आग्रही आलोचना’ (रामप्रकाश कुशवाहा), ‘मनुष्य की नियति का समय’ (राकेश कुमार), ‘भेडिये कौन लोग हैं’ (डॉ. विश्वजीत), ‘भेड़िये’ (उज्ज्वल भट्टाचार्य) तथा ‘भेड़िये : मानव वृत्ति के रूपांतरण की कथा’ (श्याम जांगिड) आलेखों के माध्यम से संपादक ने ‘भेड़िये’ कहानी को नई कहानी आंदोलन की प्रथम रचना होने पर एक सफल बहस प्रस्तुत की है । इस बहस में ‘भेड़िये’ कहानी को विभिन्न दृष्टियों से देखते हुए नई कहानी आंदोलन की भी गहराई से पड़ताल की गई है ।
वास्तव में भुवनेश्वर को समझने के लिए यह पुस्तक अत्यंत अवश्यक पुस्तक बन पड़ी है । एक समझदार पाठक को यह पुस्तक पढ़नी ही चाहिए ।
सुनील मानव
मानस स्थली
17.05.2018

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