क्षेत्रीय इतिहास की जड़ों की गंभीर पहचान (सुधीर विद्यार्थी की चार पुस्तकों-पहचान बीसलपुर, मेरे हिस्से का शहर, शहर के भीतर शहर एवं बरेली एक कोलाज के संदर्भ में)


यूँ तो सुधीर विद्यार्थी की मूल लेखकीय पहचान उनकी क्रांति चेतना को लेकर ही है । उन्होंने भारतीय क्रांति की चेतना को उसकी असल ज़मीं प्रदान की, इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं है । उनकी क्रांति के नायक भगतसिंह, अशफाक, चन्द्रशेखर, बिस्मिल आदि हैं । वे विदेशी नायकों को भारतीयता का लबादा नहीं उढ़ाते, बल्कि अपने बीच के नायकों को जन-जन तक पहुँचाने का प्रयास करते हैं ।
इसके साथ ही सुधीर विद्यार्थी ने जिस संजीदगी के साथ अपनी ज़मीं को शब्दों में बाँधा है, वह कम महत्त्वपूर्ण नहीं है । आपने अपनी जन्मभूमि बीसलपुर से लेकर कर्मभूमि शाहजहाँपुर और आगे चलकर स्थाई निवास के रूप में चुने गए बरेली शहर को अपने शब्दों से एक अलग पहचान दिलाई । आपने इन शहरों को अपनी नज़र से देखा और अपने हिस्से के इतिहास को पहचान दिलाई । शाहजहाँपुर की पृष्ठभूमि पर लिखी गई पुस्तक ‘मेरे हिस्से का शहर’ की भूमिका में सुधीर विद्यार्थी बड़ी ही ईमानदारी से स्वीकारते हैं कि – ‘यह मेरे अपने हिस्से का शहर है । किसी दूसरे के हिस्से का शहर कुछ और या इससे अधिक हो सकता है । मेरी अपनी दृष्टि और प्रतिबद्धताएँ हैं । उसी से मैंने चीजों की नाप-जोख की है । मैं निष्पक्ष लेखक नहीं हूँ और न ही वैसा होने का ढोंग मेरे पास है।’
लेखक की यह स्वीकारोक्ति उसकी ईमानदारी के साथ-साथ साहित्य जगत में फैले ढोंग को अनायास ही तार-तार कर देती है ।
सुधीर विद्यार्थी की इन चार पुस्तकों का परिचय कुछ इसी भूमिका के साथ दिया जा सकता है । यह चार किताबें लेखक के अपने जिए, अपने भोगे, अपने समझे का केवल इतिहास नहीं है बल्कि संवेदनाओं की एक डोर है जिससे लेखक ने अपने आस-पास को बाँधने का सार्थक प्रयास किया है । ‘मेरे हिस्से का शहर’ की भूमिका में ही लेखक इस प्रकार के लेखक के पीछे के उद्देश्य को भी पूरी ईंमानदारी के साथ स्पष्ट कर देता है । लेखक स्पष्ट करता है कि अब शहर पहले-से नहीं रहे । वह बड़े शहरों की फूहड़ अनुकृति-से बनते जा रहे हैं । तरक्की का विरोधी न होते हुए भी लेखक के लिए इस बदलाव को देखना पीड़ादायक है । वास्तव में शहरों की अपनी पहचान खोती जा रही है । ‘लोगों के चेह्रों पर अब उनकी जगहों के नाम और निशान मिट गए हैं, उनकी स्थानीयता लुप्त हुई है और उनका भूगोल भी गायब होता जा रहा है ।’
वास्तव में सुधीर विद्यार्थी ने इन चार पुस्तकों के माध्यम से शहरों के असल नाम और निशान, उनकी स्थानीयता, उनका भूगोल बचाने का कड़ा प्रयास किया है ।

पुस्तक : पहचान बीसलपुर
लेखक : सुधीर विद्यार्थी
विधा : संस्मरणात्मक इतिहास
प्रकाशन : संदर्श, बीसलपुर, पीलीभीत
प्रथम संस्करण : सन् 2000
मूल्य : रु.150 (पेपरबैक)
बकौल सुधीर विद्यार्थी ‘यह पुस्तक बीसलपुर क्षेत्र का मुकम्मल इतिहास नहीं है । यह हमारी एक कोशिश है यहाँ बिखरे पड़े इतिहास और संस्कृति के कुछ सूत्रों को तलाश करने और उन्हें पहचान दिलाने की ।’ लेखक ने इस पहचान को सामने लाने के लिए अपने गाँव और अपने लोगों के साथ इस पुस्तक का आरम्भ किया और इस आरम्भ में उसने अपने गाँव के लोगों के किस्सों-कहानियों को गहराई से उकेरा ।
पुस्तक का आरम्भ ‘मेरा गाँव, मेरे लोग’ शीर्षक से होता है जो आगे जाकर ‘समय के साथ दौड़ता एक कस्बा’ शीर्षक में अपनी पूर्णता सिद्ध करता है । गाँव से कस्बे का यह सफर लेखक की भी एक यात्रा है, जिसे उसने अपनी संवेदनाओं में तय किया है । इसके बाद आरम्भ होती है प्रतीकों की पड़ताल की मुहिम । यह मुहिम बीसलपुर की खोती जा रही पहचान को एक विशेष रूप में सामने लाती है । ‘मोरध्वज का किला’, ‘बिसई खेड़ा पर तीसरा पहर’, ‘कबीर के सामने’, ‘आर्यसमाज मन्दिर’, ‘इलाबाँस-देवल के मन्दिर’, ‘हीरासिंह का चौरा’, ‘लोककथा के वेन’ आदि वह प्रतीक है जो बीसलपुर परिक्षेत्र को एक माला में पिरोते हुए उसे एक अलह पहचान दिलाते हैं ।
इसके बाद ‘स्वतंत्रता की हुंकार’ में बीसलपुर का योगदान परिलक्षित हुआ है, जिसमें कुँवर भगवानसिंह, महाशय कुन्दनलाल, पं.श्रीराम, ठाकुर प्रसाद तथा राजबहादुर सक्सेना उर्फ राजा को विशेष रूप से कुछ इस प्रकार से याद किया गया है कि इन सभी चरित्रों से पाठको का अपना-सा संबंध स्थापित हो जाता है ।
किसी परिक्षेत्र का मूल्यांकन उसके लोकगायन अथवा लोक कलाकारों के बिना पूरा नहीं हो सकता । . . . तो लेखक ने बीसलपुर क्षेत्र के उन लोककलाकारों का भी बड़े अपनापे के साथ स्मरण किया है - ‘फ़न और फ्ज़नकार’ शीर्षक के तहत स्वामी नारायणानन्द सरस्वती ‘अख़्तर’, गेंदनलाल ‘बेनवा’, रामचन्द्र ‘शैदा’, हरनन्दन प्रसाद ‘आमिल’, बनवारीलाल सक्सेना ‘साबिर’, हरस्वरूप सक्सेना ‘अंजुम’, रामचन्द्र लाल राही ‘राही बीसलपुरी’, डॉ. फतहसिंह तथा राधारानी । इन नामों के मार्फत आपने बीसलपुर के साहित्य और लोककला को नवीन आयाम प्रदान किया है । यह वह नाम हैं जो अपनी गुमनामी से ऊपर उठकर आपकी लेखनी के माध्यम से सामने आए ।
वास्तव में ‘पहचान बीसलपुर’ छोटे से गाँव और कस्बे का एक ऐसा जीवंत दस्तावेज है जो महानगरों के सामने अपनी पहचान का आइना दिखा रहा है । महानगरों की तेज़ी से खोती हुई पहचान ही इस पुस्तक की सबसे बड़ी ताकत है । संक्रांति के इस काल में यह पुस्तक बीसलपुर जैसे छोटे कस्बे की पहचान को पर्वत की भाँति अडिगता से सम्हाले हुए है ।

पुस्तक : मेरे हिस्से का शहर
लेखक : सुधीर विद्यार्थी
विधा : संस्मरणात्मक इतिहास
प्रकाशन : प्रतिमान प्रकाशन, शाहजहाँपुर
प्रथम संस्करण : सन् 2008
मूल्य : रु.150 (पेपरबैक)
‘पहचान बीसलपुर’ की ही तरह सुधीर विद्यार्थी की यह पुस्तक एक छोटे शहर ‘शाहजहाँपुर’ की बृहद पृष्ठभूमि पर लिखी गई है । इसमें लेखक ने अपने संस्मरणों के माध्यम से शहजहाँपुर की क्रांतिचेतना को सहेजने का कार्य किया है । कबर पृष्ठ के अनुसार यह पुस्तक ‘शाहजहाँपुर के इतिहास और उससे जुड़े लोगों के साथ एक तरह का संवाद है ।’ लेखक ने जिन चरित्रों को इसमें स्थान दिया है ‘उन लोगों को पूजा की वस्तु की तरह ही नहीं देखा, बल्कि उनसे एक मनुष्य की तरह ही गुफ्तगू की है ।’
शाहजहाँपुर लेखक की कर्मस्थली रही है । लेखक की एक विशेष ललक इस शहर के साथ दिखाई पड़ती है । अपनी कर्मस्थली से दूर जाकर इस पुस्तक को रचना विशेष रूप में अपने शहर की ओर वापस लौटना ही है । लेखक स्वीकारता भी है कि – ‘ इस पुस्तक के माध्यम से मैं अपने जिये शहर को वह लौटाना चाहता हूँ, जो उसने उम्र के सबसे महत्त्वपूर्ण समय में मुझे अनुभव और स्मृति के रूम में मुझे दिया । कह सकता हूँ कि इस शहर ने मुझे एक पहचान दी है, जिस पर मैं गर्व कर सकता हूँ । यहाँ रहते मैंने व्यक्तिगत रूप से बहुत कुछ खोया भी, पर जिंदगी मेरे लिए खोने-पाने का बहीखाता-भर नहीं है ।’
‘किसी ने शाहजहाँपुर को ‘सोया हुआ शहर’ कहा था तो किसी ने ‘नशा’ । मेरी स्मृति में दर्ज है वह इबारत भी जिसमें इसे निराली अदा और अनोखी सदा वाली बस्ती बताकर यहाँ के बाशिन्दों को इस पर फिदा होना बताया गया था ।’ (पूर्व कथन) सुधीर विद्यार्थी ने अपने निराले अंदाज में शहर के इतिहास को व्यक्ति चरित्रों के माध्यम से कुछ इस प्रकार प्रस्तुत किया है कि पूरा शहर एक बारगी जी-सा उठता है । अपने पिछले समय में जाते हुए वर्तमान की ‘लोलुपताओं’ को भुला-सा देता है । पाठक का चोला बासंती हो जाता है । अशफाक और बिस्मिल की दोस्ती गलियों में परवान चढ़ती हुई सी दिखने लगती है । अहमदुल्लाह शाह का सिर मज़ार से उठकर अपनी गबाही देने लगता है । बिस्मिल और अशफाक की सहादत काकोरी की पूरे काण्ड को जीवित कर जाती है, जिससे कुछ गद्दारों के अनचीन्हें चेहरे स्पष्ट होने लगते हैं । रोशन सिंह की जिन्दगी की जिन्दादिली अपनी खुशनुमा लहर पाठक पर बिखरा देती है । बिस्मिल की माँ के आँसू शहर के सामने आइना खड़ा कर देती हैं तो बिस्मिल ए पिता की लाचारी अपना बयांन देने लगती है ।
इसके अतिरिक्त इतिहास के लिए इतना ही काफी है, कोसमा से एक खत, रोशनी का कोई घर नहीं होता, मदिया कटिया से खण्डहर तक, खण्डहर की ग्राम-कथा, व्यक्ति से बड़ा होता है देश, काकोरी-युग की यादें, नगरपालिका का झण्डा, अजीजगंज धर्मशाले पर बम, वे इस धरती से जुड़े रहे, बिहार से छितकी धूप का टुकड़ा, मौलाना की तकरीर मैं सुनना चाहता हूँ, रंग महल में ‘बेदार मंजिल’, ‘साथी’ का संग्राम, कांग्रेस के भीष्म पितामह, खादी के सैनिक, भारतीय स्काउट के जनम, भौहन पै लिख कुंजबिहारी, खानाबदोश, छायावाद की अंतिम कड़ी, ‘चोंच’ के चहचहे, विसंगतियों के पर्वत पर, वह मिले भी और नहीं भी, अरबी में ‘गीता.....’, गुरु ई ओर से दक्षिणा, बस्ती दूर थी तुम्हारी, भाइयों ! मेरा नाम . . . , एक रिश्ता जो याद आता है, मानसरोवरनामा, पुवाँया तक नक्सलबाड़ी, वे अकेले ही पार्टी थे, मजदूर कामरेड, लाल टोपी तथा छात्रनेता सब-के-सब ऐसे संस्मरण हैं, जिनमें शाहजहाँपुर का संपूर्ण इतिहास, संपूर्ण साहित्य, संपूर्ण लोक चेतना, समाजिक चेतना आदि सब कुछ एक साथ हाथ से हाथ मिलाकर गलबहियां करते हुए चलता है ।
इस पुस्तक को पढ़ना शाहजहाँपुर जैसे छोटे शहर को उसकी स्पष्टता / अस्पष्टता में एक साथ देखना है । छोटे शहर की कमियों और अच्छाइयों की एक साथ पड़ताल करने जैसा है ।
पुस्तक के पूर्व-कथन में लेखक की एक स्वीकारोक्ति बड़ी मज़ेदार लगती है । बिलकुल अपनी-सी जान पड़ती है । वह लिखते हैं कि – ‘साहित्य और राजनीति में मेरी एक जैसी दिलचस्पी के चलते मैं साहित्य का हो पाया न ही राजनीति का । राजनीति छूटी नहीं और साहित्य मेरी पकड़ से बहुत दूर बना रहा ।  विशुद्ध साहित्य लेखन मेरी प्रकृति के अनुकूल भी नहीं था ।’
वास्तव में यह पुस्तक अपनी प्रकृति में न तो पूरी तरह से साहित्य की ही कृति है और न ही पूरी तरह से इतिहास, समाज अथवा राजनीति की ही । इसमें उक्त सब कुछ अपनी पूर्णता / अपूर्णता में समाया हुआ है । इसमें किसी एक को खोजना पुस्तक के पढ़ने के आनंद को कम करना ही अधिक होगा । अत: इस पुस्तक को साहित्य, राजनीति, समाजनीति और इतिहास के ‘विद्यार्थीपन’ के मिश्रण के साथ ही पढ़ा जाना आनंदप्रद होगा ।

पुस्तक : शहर के भीतर शहर
लेखक : सुधीर विद्यार्थी
विधा : संस्मरणात्मक इतिहास
प्रकाशन : प्रतिमान प्रकाशन, शाहजहाँपुर
प्रथम संस्करण : सन् 2012
मूल्य : रु.200 (पेपरबैक)
‘शहर के भीतर शहर’ इस क्रम में लिखी विद्यार्थी जी की प्रथम पुस्तक ‘मेरे हिस्से का शहर’ का ही अगला क्रम है । सही शब्दों में कहें तो ‘मेरे हिस्से के शहर’ की पूर्णता भी । प्रथम पुस्तक का छूटा हुआ वह सब जो शाहजहाँपुर की पहचान को पूर्णता प्रदान करता है । इस पुस्तक में शहर के प्रतीक है, गलियाँ हैं, नुक्कड़ हैं, चौराहे हैं जो लेखक की स्मॄतियों की संपूर्णता को व्यक्त करते हैं । लेखक शहर के अंदर के उस शहर को तलाशने वापस पिछले शहर में आता है, जहाँ उसे मिलते हैं कुछ ऐसे राज जो छोटे शहर की संकीर्णता में कहीं खोये से पड़े थे ।
पुस्तक के पूर्व-कथन में लेखक लिखता है कि – ‘मैं बार-बार अपनी जमीन पर लौटकर क्यों आता हूँ ? यह सवाल मेरे लिए भी उतना ही अनसुलझा है जितना कि किसी दूसरे से पूछने पर वह मुझे इसका उत्तर देना चाहेगा । एक शहर के भीतर कई शहर होते हैं । सबके अपने-अपने शहर । लोग, सड़कें-गलियाँ, पेड़, आसमान, हवा वही पर सभी के भीतर उनकी तस्वीरें जुदा-जुदा । रंग अलग-अलग ।’
लेखक अपनी इन दो पुस्तकों की श्रंखला के द्वितीय क्रम में शहर की गलियों, नुक्कड़ों और चौराहों से भटकते हुए पुराने लोगों, गलियों, सड़कों, पेड़ों, आसमानों हवाओं की अलग-अलग तस्वीरों एवं अलग-अलग रंगों की तलाश में एक बार फिर वापस अपने शहर आता है । इस आने में वह सोचत है कि ‘... अपने शहर में लौटना किसी पुराने संग्रहालय में भटकने जैसा है । मैं जब-जब उसमें प्रवेश करता हूँ तो कदम-दर-कदम नुश्किलें पेश आती हैं ।’ . . . और लेखक इन मुश्किलों को पार करते हुए उन चीजों को खोज निकालता है जिन्हें यह शहर लगभग भूल-सा चुका है ।
खामोश चर्च के भीतर इतिहास की घंटियाँ, रुस्वा की यादों में तवारीख का एक अहम पन्ना, दर्द भरा वह चेहरा, बयालिस का समय जिंदा है उनकी आँखों में, गलती सरकार ने की माफी वह मांगे, एक चेहरा भला-सा, एक लीजेण्ड की याद, एक बेचैन भटकता आदमी, तमाम नज़्म में भर दीं हैं बिजलियां मैंने, तुम अपने को ‘शाहजहाँपुरी’ कहा करो, जिन्नात की बेटी के नाम प्रेम-पत्र, कमर का आशिक और रईस बानों का खाविंद, तुम ज़मीं में सो गए आकाश देकर, रामकली की टेर और फिर अक्षरों के संसार में जा पहुंचना एक दिन, खतों में खुशबू, निरुत्तर रहे सवालों के कुछ अटपटे घेरे, दर्द को मिठलौना कर देते हो, वह देसी ठाठ देसी बानी, कैनवस पर कुछ आड़ी-तिरछी रेखाएं, नए कुरुक्षेत्र की तलाश, भागलपुर का ‘मृदंगिया’ मेरी आँखों में, अपनी सरगम छोड़ गए तुम, वे मिले तो मिलते ही गए, यह महाविदा की उम्र तो न थी, देखता हूँ तुम्हें या खुद को, गूंजती है ‘इन्ना की आवाज’ अब तक, मेरा राजहंस, ‘छोटे-बड़े’ की दुकान रावण बनाने वाला गनी और ज़मीदार के बांड ‘शहर के भीतर शहर’ के ऐसे उप-शीर्षक हैं जो शाहजहाँपुर जैसे शहर की रंगीनियों को, लेखक की यारी-दोस्ती को, संग-साथ को, गाहे-बगाहे मिली मेल-मुलौवत को, बैठकियों को, शहर की हलचलों को एक साथ मिलाकर सुस्वादु मिश्रण की भाँति प्रस्तुत करते हैं ।
वास्तव में इस पुस्तक को पिछली पुस्तक के साथ मिलाकर भी पढ़ा जा सकता है और अलग-थलग रूप में भी । कुल मिलाकर इन पुस्तकों को पढ़ना पूरे शहर की शिनाख्त कर जाना भी है । शहर को जानना भी है और गहरे तक महसूसना भी है । इसके साथ ही इन पुस्तकों को पढ़ना शाहजहाँपुर हो जाना भी है ।

पुस्तक : बरेली एक कोलाज
लेखक : सुधीर विद्यार्थी
विधा : संस्मरणात्मक इतिहास
प्रकाशन : लोक प्रकाशन गृह, नई दिल्ली
प्रथम संस्करण : सन् 2015
मूल्य : रु.350 (पेपरबैक)
पुस्तक का सही विश्लेषण इसके फ्लैप पर लिखी टिप्पणी के बिना अधूरा सा है । इसलिए इस पुस्तक का परिचय फ्लैप पर लिखित सामग्री से ही आरम्भ करना उचित होगा । बकौल फ्लैप ‘बरेली को ‘बाँस बरेली’ भी कहा जाता है, यह पुस्तक उसी शहर का एक कोलाज है । इसमेम साहित्य, संस्कृति, कला और राजनीति के अनगिनत रंग हैं । सत्तवनी क्रांति का केन्द रहे इस भू-खण्ड में देश की स्वाधीनता के स्वर बाद को भी मद्धिम नहीं पड़े । गदर आंदोलन के समय इस शहर की छावनी में विद्रोह के प्रयास, उत्तर भारत के प्रसिद्ध ‘बनारस षड्‍यंत्र केस’ में क्रांतिकारी दामोदर श्वरूप सेठ को सजा और उसी मामले के राजस्थान के प्रताप सिंह बारहठ की केन्द्रीय कारागार में शहादत । उसके बाद इसी जेल में बन्द रहे काकोरी केस के बंदी क्रांतिकारियों की ऐतिहासिक भूख हड़ताल ने पूरे देश को हिला दिया । कथाकार यशपाल का विवाह इसी जेल के भीतर संपन्न हुआ । गांधी का संग्राम भी यहाँ खूब चला । साहित्य और संस्कृति की दुनिया में पं. राधेश्याम कथावाचक की रामायण और पारसी थियेटर की शुरुआती दौर में उनके नाटककाल ने इस ज़मीन को खूब महकाया । मुशी प्रेमचन्द यहाँ पं. राधेश्याम कथावाचक का नाटक देखने आए । प्रक्यात बालसाहित्यकार निरंकार देव सेवक की सक्रियता ने बरेली को एक ऐसे साहित्यिक केन्द्र के तौर पर पहचान दी, जिसने एक समय कवि हरिवंश राय बच्चन को भी अपनी ओर आकर्षित किया था । अपनी पत्नी तेजी को उन्होंने पहली बार यहीं देखा और सगाई हुई । उर्दू शायरी भी इस शहर में खूब परवान चढ़ी । उर्दू की मशहूर अफसानानिगार इस्मत चुग्ताई ने अपनी ज़िंदगी के बेहतरीन वर्ष यहीं गुजारे । वे इस्लामियां गर्ल्स स्कूल की पहली हेड मिस्ट्रेस थीं ।
इस शहर की शान और पहचान है बरेली कॉलेज, जिसकी स्थापना सन् 1837 में हुई थी । इस शिक्षा केन्द्र की देश में बड़ी ख्याति थी । सन् 1857 में इस कॉलेज के अध्यापक कुतुबशाह को देश निकाला तथा छात्र जैमिग्रीन को फाँसी की सजा मिली । यह शहर सुर्मा, माँझा और झुमके के लिए प्रसिद्ध है । इसकी अनुगूंज लोकगीतों से लेकर सिनेमा तक चीन्हीं जा सकती है । प्रख्यात कम्यूनिष्ट नेता कामरेड शिवसिंह इस शहर में वर्षों तक रहे । उनकी उपस्थिति ने कभी यहाँ के प्रगतिशील आंदोलन को नई दिशा और उर्जा देने का कार्य संपन्न किया ।
दिल्ली और उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के मध्य बसा यह महानगर भले ही आज विकास के रास्ते पर चलते हुए अपनी तई नई इबारत गढ़ रहा हो, पर इस ज़मीन पर प्राचीन इतिहास और संस्कृति सूत्र अभी धुंधले नहीं हुए हैं । इसे देखने-जानने का काम प्रख्यात हिन्दी लेखक सुधीर विद्यार्थी ने किया है जो जनपदीय इतिहास के रचनाकार के तौर पर भी सुपरिचित हैं । ‘बरेली एक कोलाज’ को उन्होंने गहरी आत्मीयता से रचा-बुना है ।’
उक्त विश्लेषण के बावजूद भी लेखक यही स्वीकारता है कि ‘बरेली की साहित्यिक और सांस्कृतिक तस्वीर को देखने की मेरी यह कोशिश अभी आधी-अधूरी है ।’ लेखक इसके पीछे कुछ कारण भी इंगित करता है । वह कहता है कि ‘राष्ट्रीय और अन्तराष्ट्रीय होने से पहले मैं क्षेत्रीय या इलाकाई होना ज्यादा पसंद करता हूँ । मेरे लिए उस हवा, पानी, गंध को अपने भीतर उतारना बेहद सुखद है जो उस भू-खण्ड की है, जिस पर सांस लेता हूँ ।’
लेखक अपनी राष्ट्रीय अथवा अंतर्राष्ट्रीय होने से पहले अपनी क्षेत्रीय अथवा इलाकाई समझ को ‘डेबलप’ करना चाहता है और समझ के इसी डेबलप होने के क्रम में लेखक बरेली जैसे बिखरे हुए महानगर को एक कोलाज के रूप में समेटत है ।
लेखक ‘पुराने शहर की छत पर’ खड़े होकर नए शहर की रंगीनियों को देखते हुए पीछे छूटा हुआ कुछा तलाशता है । लेखक की इसी तलाश में उसे वह सब मिलने लगता है जिसके साथ अस्पष्ट / स्पष्ट उसका जुड़ाव रहा है । अपनी तलाश के क्रम में लेखक ‘इतिहास की देहरी पर खड़ी एक मौन शहादत’ के रूप में खान बहादुर खाँ को, ‘गुरु जो बागी बन गया’ के रूप में कुतुबशाह को, ‘सीने में घुट कर रह गई एक पाकीजा तमन्ना’ के रूप में जैमिग्रीन को, ‘बिखरी-खोयी यादों के सिलसिला’ के रूप में मुक्ति-युद्ध को, ‘जेल में साम्राज्यवाद –विरोधी संघर्ष का हलफनामा’ के रूप में केन्द्रीय कारागार को, ‘बाँस बरेली का सरदार’ के रूप में दामोदर स्वरूप सेथ को, ‘भुला दे गई एक शख्सियत’ के रूप में कामरेड शिवसिंह को, ‘बिहारीपुर की गली कामारथियान से बजी एक धुन’ के रूप में पं.राधेश्याम कथावाचक को, ‘सद्भाव की विरासत’ के रूप में चुन्ना मियाँ को, ‘इस्लामियां गर्ल्स स्कूल की (पहली) हेड मिस्ट्रेस’ के रूप में इस्मत चुगताई को, ‘जेल रोड के बायीं तरफ लगा एक उदास पत्थर’ के रूप में निरंकार देव सेवक को, ‘कमला कालोनी में कवियों के घरौंदे की बिखरी यादें’ के रूप में बाबूरामजी शरण सक्सेना को, ‘बरेली में बच्चन और तेजी’ के रूप में हरिवंश राय बच्चन को, ‘मैं उनके गाँव को दूर से देखता था’ के रूप में होरीलाल शर्मा नीरव को, ‘मिलता नहीं मिज़ाज़ तो लुत्फ़े-सुख़न कहाँ’ के रूप में मनमोहन लाल माथुर उर्फ ‘शमीम’ बरेलवी को, ‘और उस बेचैन ज़िंदगी से मुलाकात हो गई’ के रूप में हरीश जौहरी को, ‘बालजती कुआं तले नाल गड़ी अपनी जन्मभूमि’ के रूप में केपी सक्सेना को, ‘एक जिंदादिल शख्सियत का चले जाना’ के रूप में मुंशी प्रेमनारायण सक्सेना को, ‘प्रगतिशील राजनीति की इबारत’ के रूप में साथी गिरीश भारती को, ‘वह भला-सा ईमानदार और मज़बूत एक चेहरा’ के रूप में चौधरी हरसहाय सिंह को, ‘गंगापुर  चौराहे पर इल्ली’ के रूप में कामरेड इल्ली पहलवान को, ‘गुरहा भवन का भावुक यादनामा’ के रूप में कामरेड सतीश गोपाल गुरहा को, ‘धर्मनिरपेक्ष ज़िंदगीनामे के अक्स’ के रूप में प्रो.कृपानंदन को, ‘विचार और तर्क से लैस वे पैनी आँखें’ के रूप में धर्मपाल गुप्त शलभ को और ‘सिर्फ इमारत नहीं, इतिहास भी’ के रूप में बरेली कालेज को अपनी स्मृतियों से सहजता से निकालकर रचा है ।
व्यक्ति और स्थान रूपी शीर्षकों के रूप में लेखक ने केवल व्यक्ति अथवा स्थान के चित्रों को ही प्रस्तुत नहीं किया है बल्कि बरेली की संपूर्ण इतिहास चेतना को साहित्य की छौंक के साथ उसकी संपूर्णता में प्रस्तुत किया है ।
कुल मिलाकर बरेली का यह कोलाज ‘नाथनगरी’ को समझने और महसूसने का संपूर्ण दस्तावेज है । बरेली को जानने के लिए इसे पढ़ा ही जाना चाहिए ।

सुनील मानव
मानस स्थली
15.05.2018

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