पुस्तक : हस्ती नहीं मिटती लेखक : शरद दत्त विधा : समीक्षा प्रकाशक : सारांश प्रकाशन, दिल्ली-हैदराबाद संस्करण : 2011 मूल्य : रु. 350 (हार्डबाउंड)

सिनेमा के पिचहत्तर वर्ष पूरे होने पर शरद दत्त द्वारा इससे पूर्व में समय-समय पर लिखे गए लेखों का यह संकलन ‘सिने-इतिहास’ के वह सुनहले पन्ने हैं, जिनमें सिनेमा का स्वर्णिम इतिहास उसकी उठा-पटक के साथ पाठकों से रूबरू होता है । सिनेमा के पिचहत्तर वर्षों का सर्वेक्षण करती हुई यह लेखमाला इस पुस्तक में आने से पूर्व सन् 1988 में ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ के दो अंकों में प्रकाशित हो चुकी थी । बकौल फ्लैप ‘स्फुट लेखों का संकलन होते हुए भी पुस्तक एक सुनियोजित इतिहास जैसी बन गई है, जिसमें हिंदी सिनेमा के महत्त्वपूर्ण स्तंभों-निर्देशकों, संगीतकारों, गीतकारों, कलाकारों तथा पार्श्वगायकों के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है । हिन्दी सिनेमा के स्वर्णयुग में दिलचस्पी रखने वाले पाठकों के लिए यह एक उपयोगी तथा ज्ञानवर्धक पुस्तक सिद्ध होगी, ऐसा मेरा विश्वास है ।’
शरद दत्त सिनेमा पर गंभीरता से लिखने वाले अपने समय के, मेरी समझ के एकमात्र लेखक ठहरते हैं । आपने सिनेमा को गहराई से परखा और उसकी संगतियों / असंगतियों को बड़े ही संतुलन के साथ अपने शब्दों में प्रस्तुत किया । सिनेमा पर आपके लेखन को पढ़ना सिनेमा की एक यात्रा करने जैसा ही है । एक ऐसी यात्रा जो पाठक लेखक के साथ स्वयं से करता है ।
पुस्तक में एक साथ कई सारे ‘वैरिएशन’ हैं । एक साथ कई मुद्दों पर बात की गई है । इस क्रम में सबसे पहले लेखक ने ‘शास्त्रीय गायकी का करिश्मा बिखेरने वाले मास्टर मदन का स्मरण एक अश्रुतपूर्व संगीत-प्रतिभा’ के रूप में किया है । . . . और फिर आरम्भ होती है सिने इतिहास की गहरी पड़ताल । ‘भारतीय सिनेमा : 1913 से 1988’, ‘फ़िल्म-जगत : सफ़र कहीं रुका नहीं झुका नहीं’ से लेकर ‘रीमिक्स : गीत-संगीत की अंधी गलियां’ तक का ऐसा सर्वेक्षण शरद दत्त करते हैं कि पाठक दाँतो तले अंगुली दबा जाता है ।
हिन्दी फ़िल्म-निर्देशक के रूम में आप विमल राय, गुरुदत्त, हृषिकेश मुखर्जी तथा विजय आनंद को पूरी सिद्दत के साथ याद करते हैं तो पंकज मल्लिक, खेमचंद प्रकाश, सचिनदेव बर्मन तथा ओ.पी.नैयर जैसे संगीतकारों की असल पहचान एवं संगीत के प्रति उनकी ललक को पाठकों के समक्ष विनम्रता और ईमानदारी के साथ प्रस्तुत करते हैं ।
गीतकार साहिर लुधियानवी के साथ ही पार्श्वगायक मन्ना डे, शमशाद बेगम, सुरैया, लता मंगेशकर, मोहम्मद रफी, मुकेश, तथा जगमोन जैसे व्यक्तित्त्वों का जो परिचय और कला के साथ उनके समर्पण को आपने इंगित किया है, वह शरद दत्त जैसा लेखनीकार ही कर सकता था ।
कलाकार के रूप में आपने श्याम, देव आनंद और मीना कुमारी का स्मरण किया है और इस परंपरा में सामूहिक रूप से आगे बढ़ते हुए देवदास, मउगल-ए-आज़म, मेघे ढाका तारा, तीसरी कसम तथा ब्लैक जैसी नायाब फिल्मों की जो समीक्षा प्रस्तुत की है, उनका कोई सानी दीख नहीं पड़ता है ।
और अंत में सिने जगत पर लिखी गई दो बेहतरीन पुस्तकों की पड़ताल आपके लेखन में चार चाँद लगा देता है । ‘नरगिस : एक शानदार शख्सीयत की शनदार जीवनी’ तथा ‘मदन मोहन : अनुपम धुनों के सर्जक संगीतकार’ यह वह पुस्तके हैं जो नरगिस और मदन मोहन की जीवन यात्रा को हिन्दी सिनेमा के चकाचौंध से बाहर लाकर अपना बयांन दर्ज कराती हैं ।
वास्तव में यह पुस्तक अपनी हस्ती को न मिटने देने वाले पाथेय-सी सिद्ध होती है । सिनेमा पर लालायित पाथकों के लिए यह एक बेहतरीन पुस्तक है ।
सुनील मानव, 23.05.2018

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